शिशु की मानसिक आवश्यकतायें एवं स्वाभाविक विकास में परिवार की भूमिका
– नम्रता दत्त
अभी तक हम नव दम्पति के शिक्षण पर विचार कर रहे थे। इस सोपान से जन्म से एक वर्ष के शिशुओं की माताओं के शिक्षण पर विचार करेंगे। स्मरण रहे कि 0 से 05 तक की शिशु अवस्था, शिशु शिक्षा के लिए एक महत्वपूर्ण कालखण्ड है। इस कालखण्ड में ही शिशु भावी जीवन हेतु 85 प्रतिशत संस्कार ग्रहण कर लेता है।
शिशु के जन्म के स्थान एवं समय आदि का शिशु के भावी जीवन पर बहुत प्रभाव पङता है। जन्म के समय पर तो माता का कोई वश नहीं है परन्तु जन्म के स्थान के विषय में विचार किया जा सकता है और करना भी चाहिए। स्थान की शुद्धता, पवित्रता और सात्विकता का शिशु के चित्त पर अंकित हो जाता है। ज्ञानेन्द्रियों की सक्रियता के कारण जन्म के समय का प्रथम स्पर्श, प्रथम ध्वनि, प्रथम गंध, प्रथम दृश्य का अनुभव बहुत गहरा होता है तथा यह जीवन भर साथ रहता है। अतः सुगन्धित वातावरण में (सम्भवतः घर में) परिचित विद्वान/विदूषी के आत्मीय स्पर्श अनुभव हो, ऐसी ही गोद में शिशु को देना चाहिए। शिशु के कान में ओम ध्वनि करना और जिह्वा पर मधु (शहद) में भिगोकर स्वर्ण श्लाका से ॐ लिखना चाहिए अर्थात् जातकर्म संस्कार करना चाहिए।
जन्म के पश्चात् शिशु की प्रत्यक्ष रूप से पालना प्रारम्भ हो जाती है। माता के लिए तो यह सुखद समय होता है, परन्तु शिशु के लिए यह बङा संक्रामक सा समय होता है। माता के गर्भ में वह अंधकार में रहता है। अपने शरीर के अंगों को लगभग बंधा हुआ सा अनुभव करता है। जन्म के पश्चात वह अपने को प्रकाश में समायोजित (एडजस्ट) करने का प्रयास करता है, इसीलिए उसकी आँखें सामान्यतः बन्द रहती हैं। अपने शरीर के अंगों को भी सिकोङ कर ही रखता है। केवल माता के पास ही उसे कुछ सुरक्षा का अहसास होता है। माता जब उसे सीने से लगाती है तब वह माता के हृदय की धङकन के श्रवण से ही सुरक्षित अनुभव करता है क्योंकि इस धङकन को वह गर्भ से ही पहचानता है। इसीलिए असुरक्षित वातावरण में वह माता की गोद में आकर शान्त हो जाता है। जैसे हम किसी नए स्थान पर जाकर अजनबी लोंगों के बीच असुरक्षित सा महसूस करते हैं वैसे ही उसकी भी स्थिति होती होगी। अतः ऐसी स्थिति में उसको बहुत सी मानसिक कठिनाइयों का सामना करना पङता है। परन्तु धीरे धीरे प्रेमपूर्ण सानिध्य में वह स्वयं को सुरक्षित अनुभव करने लगता है।
शिशु स्वयं भी मुस्कुरा कर दूसरों के प्रति अपने प्रेम को दर्शाता है। वह बोल नहीं सकता परन्तु अपनी मुस्कान से सबको अपनी ओर आकर्षित कर लेता है और स्वयं ही दूसरों से प्रेम प्राप्त कर, अपना सुरक्षा कवच बना लेता है। वह दूसरों के प्रेम को उनकी मुस्कान एवं स्पर्श से अनुभव करता है। अतः इस समय में शिशु को प्रेम एवं सुरक्षा की आवश्यकता सबसे अधिक होती है। इसी कारण धीरे धीरे वह माता के अतिरिक्त परिवार के अन्य सदस्यों को भी पहचानने लगता है। माता के साथ साथ परिवार के अन्य सदस्य जो उसे स्नेह और सुरक्षा देते हैं वह उन्हीं के सानिध्य में रहना पसन्द करता है। प्रेम एवं सुरक्षा के वातावरण में पलने वाला शिशु संतुष्ट एवं शान्त स्वभाव का बनता है और इसके अभाव में वह चिङचिङा एवं भयभीत सा रहता है।
इस अवस्था में ही शिशु करवट लेना, दांत निकालना, बैठना, घुटने चलना और सहारे से खङा होना आदि जैसे साहसिक कार्य अन्तःप्रेरणा से करता है। इन गतिविधियों में वह गिरता भी है, डरता भी है और चोट भी लगती है। परन्तु प्रेम, सुरक्षा के सानिध्य से उसे प्रोत्साहन मिलता है। वह निडर बनता है।
प्राकृतिक रूप से अपनी कर्मेन्द्रियों को सक्रिय करने के लिए वह एक ही क्रिया को बार बार करने का अभ्यास करता है। निरन्तर अभ्यास से वह उस क्रिया को करने में सफलता प्राप्त कर लेता है जैसे – पैरों पर खङा होने व चलने की क्रिया। उसके लिए यह सब करना ही किसी वैज्ञानिक साधना से कम नहीं है। यह सब उसकी अंतःप्रेरणा के कारण ही सम्भव हो पाता है। माता पिता को तो मात्र प्रेम, सुरक्षा, सान्निध्य एवं प्रोत्साहन ही देना है।
प्रेम, सुरक्षा, सानिध्य एवं प्रोत्साहन के वातावरण के निर्माण के लिए माता-पिता एवं परिवार को कुछ यत्न करने होंगे। जैसे कि –
एक वर्ष तक उसके शरीर की तेल मालिश करना। इससे उसके शरीर को तो बल मिलेगा ही, स्पर्श से प्रेमपूर्ण सानिध्य की अनुभूति भी होगी जिससे उसे मानसिक बल भी मिलेगा। सोते अथवा जागते समय शिशु कोई भयानक ध्वनि/दृश्य को न सुने/देखे इस बात का विशेष ध्यान रखें। शिशु मनोविज्ञान के अनुसार जिसे प्रेम मिलेगा, वही दूसरों को प्रेम दे सकता है। अतः प्रेम देने के संस्कार को गर्भावस्था के बाद जन्म के पश्चात् इस माध्यम से मजबूत करना चाहिए।
कम से कम एक वर्ष तक शिशु को लोरी सुनाकर झूले में सुलाना एवं प्रभाती सुनाकर ही जगाना चाहिए।
‘निष्क्रमण संस्कार’ के पश्चात् शिशु को सजीव सृष्टि के सानिध्य में रखना चाहिए। खुला आकाश, स्वच्छ वायु, पेङ-पौधे एवं पशु-पक्षी आदि को दिखाना चाहिए।
6 मास पूर्ण होने पर शिशु का अन्नप्राशन संस्कार किया जाता है। अतः माता को शिशु को गोद में बिठाकर हाथ से ही (चम्मच से नहीं) भोजन कराना चाहिए।
माता पिता को समझना चाहिए कि इस समय उसे खिलौने, कपङे आदि नहीं चाहिए। इस उम्र वह जो प्रेमपूर्वक सीखेगा, वही जीवन भर के संस्कार बन जाएंगे। अतः माता पिता को उसके लिए समय निकालना चाहिए। आज वह उसके लिए समय निकालेंगे तो वह भी बङा होकर उनके लिए समय निकालेगा।
अनुकरण की स्वाभाविक विशेषता के कारण माता पिता शिशु को जो भी संस्कार इस समय दे देते हैं वह जीवन भर उसके साथ रहते हैं। यदि घर का बनाया हुआ भोजन ही परिवार के सदस्य स्वयं खाते हैं और उसे भी खिलाते हैं तो उसको घर का भोजन (दाल, चावल, रोटी, सब्जी आदि) खाने का संस्कार हो जाएगा। अतः परिवार का वातावरण संस्कारक्षम बनाए रखने का दायित्व माता पिता/परिवार का है। यह संस्कार ही शिशु की भावी शिक्षा (चरित्र निर्माण) का माध्यम बनते हैं।
शिशु अवस्था में ज्ञानेन्द्रियां (आंख, नाक, कान, जिह्वा और स्पर्श) अधिक सक्रिय होती हैं। इन ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा वह क्रमशः रूप, गंध, शब्द, रस और स्पर्श से अनुभव प्राप्त करता है। अतः इन माध्यमों से उसे संस्कारित अनुभव ही हो ऐसा प्रयास करना होगा। अतः स्वतंत्र, संस्कारक्षम, अनुकरणीय वातावरण देने से शिशु का विकास सहज ही हो जाता है। शिशु की मानसिक स्थिति को समझते हुए उसकी स्वाभाविक विशेषताओं (अंतःप्रेरणा, अनुकरण एवं अनुभव) को ध्यान में रखते हुए पारिवारिक वातावरण का निर्माण करना चाहिए।
(लेखिका शिशु शिक्षा विशेषज्ञ है और विद्या भारती उत्तर क्षेत्र शिशुवाटिका विभाग की संयोजिका है।)
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