– नम्रता दत्त
श्रेष्ठ माता पिता कौन हैं? – इस प्रश्न के उत्तर के लिए हमें सबसे पहले यह जानना चाहिए कि संतान (बच्चा) किसकी है? अपनी, परायी, माता की, पिता की, माता-पिता की, परिवार की? सामान्यतः अधिकांश लोग इन्हीं प्रश्नों में से एक-दो उत्तर खोज लेंगे। परन्तु श्रेष्ठ माता पिता वही हैं जिनका उत्तर इससे अलग होगा। क्योंकि उनकी धारणा होती है कि संतान इन सबकी होने के साथ साथ समाज, राष्ट्र और विश्व की भी होती है। तब ही तो किसी खिलाङी के विजयी होने पर, उसके गांव/शहर और देश-विदेश में उसकी विजय का समारोह मनाया जाता है। सैनिक के शहीद होने पर पूरा राष्ट्र श्रद्धांजलि देता है।
व्यसन (शराब/सिगरेट, आलस्य, टी.वी./मोबाइल का प्रेमी, अति धन कमाने की इच्छा, भ्रष्टाचारी आदि) प्रधान युग में प्रत्येक माता-पिता यह जानता है कि इस सबका बुरा प्रभाव उसकी संतान पर पङेगा, परन्तु वह अपने व्यसन को छोङने को तैयार नहीं है। ऐसे माता पिता स्वयं की खुशी को ही महत्व देते हैं। श्रेष्ठ संतान बनाने के लिए अपने व्यसनों का त्याग करने का सोच-विचार तक वे नहीं कर सकते। क्या ये श्रेष्ठ माता पिता हैं?
हम अपने आसपास बहुत से ऐसे परिवारों (माता-पिता) को जानते हैं जिन्होंने अपने बच्चों को हायर स्टडीज के लिए विदेश भेजा। फिर उन्हें वहीं अच्छी नौकरी मिल गयी और वे वहीं बस गए। आज माता पिता अकेले रहते हैं। उनकी देखभाल के लिए भी कोई नहीं है। ऐसे माता पिता केवल अपनी संतान के भावी जीवन के लिए अपना तन-मन-धन का त्याग कर देते हैं। उसकी ‘पढाई और कमाई’ बस इतना ही चिन्तन किया। और किसी के बारे में तो क्या, परिवार के प्रति उसके कर्त्तव्य की शिक्षा और संस्कार ही उसको नहीं दे पाए। क्या ये श्रेष्ठ माता पिता हैं?
कुछ समय पहले परिवार के नियोजन के लिए सरकार द्वारा स्लोगन दिया गया था – ‘छोटा परिवार सुखी परिवार’ फिर दिया गया हम दो-हमारे दो, आज है हम दोनों एक हमारे एक। तो आज परिवार में एक ही बच्चे को जन्म दिया जाता है। माता पिता का विचार है कि इस महंगाई के युग में एक बच्चे का पालन पोषण भी कठिनाई से होता है। उस एक बच्चे के पालन पोषण में ही माता-पिता दोनों नौकरी/व्यवसाय करते हैं और अपने बच्चे की प्रत्येक इच्छा को पूरा करना ही उनके कमाने का उद्देश्य है। इस स्थिति में वे उसको, उसकी मांग के अनुसार सब कुछ लेकर देते हैं जैसे – मोबाइल, लैपटाप, बाइक/कार आदि। इस आदत के कारण वह बच्चा माता-पिता पर निर्भर हो जाता है। किसी वस्तु के मूल्य का उसे आभास ही नहीं हो पाता। वस्तु के न मिलने पर दुःखी एवं नाराज भी हो जाता है। क्या ये श्रेष्ठ माता पिता हैं?
बच्चे के जन्म से भी पूर्व (जब वह गर्भ में था) मीनाक्षी और कमल में यह बहस जब-तब होती थी – मीनाक्षी कहती कि बेटा हो या बेटी, मैं उसे टीचर ही बनाऊंगी और कमल का विचार था कि मेरे पिताजी मुझे डॉक्टर बनाना चाहते थे, मैं तो नहीं बन पाया, पर मैं अपने बच्चे को जरूर बनाऊंगा। गर्भस्थ बच्चे पर तो इसका प्रभाव पङा ही और जन्म के बाद भी (बेटी आकांक्षा) मीनाक्षी और कमल की इच्छाओं के झूले में हिलोरे लेती रही। अन्ततः माता-पिता से विमुख हो गई। उसने माता-पिता से कहा कि वह एक सोशल वर्कर बनना चाहती है। क्या मीनाक्षी और कमल श्रेष्ठ माता पिता हैं?
कोई किसी भी नौकरी/व्यवसाय में हो/या नहीं हो परन्तु त्याग, प्रेम, परोपकार एवं समाज, देश आदि के बारे में चिन्तन करना तो माता पिता के पालन पोषण पर ही निर्भर करता है। संस्कारित माता पिता बच्चे को सीखाते हैं कि हमारे किसी कार्य से व्यक्ति, परिवार, समाज और देश को कोई हानि तो नहीं पहुंचनी चाहिए। सर्वप्रथम सामाजिकता के संस्कार देना श्रेष्ठ माता पिता का कर्त्तव्य है क्योंकि परिवार के पश्चात् मनुष्य समाज में ही व्यवहार करना सीखता है। धर्म और कर्त्तव्यों का पालन करना सामाजिकता में ही अन्तर्निहित है। जीवन की विभिन्न परिस्थितियों में समायोजन करने का आधार भी सामाजिकता ही है। समाज के समूहों से ही राष्ट्र और राष्ट्रों के समूहों से ही विश्व बनता है। श्रेष्ठ माता पिता स्वार्थ से ऊपर उठकर परमार्थ का चिन्तन अपनी संतान को देते हैं। दिव्य गुणों से परिपूर्ण माता-पिता ही दिव्य गुणों वाली संतान का निर्माण कर सकते हैं। यही श्रेष्ठ माता पिता हैं। ऐसे माता-पिता स्वयं अच्छा बन, अपने से भी श्रेष्ठ संतान इस राष्ट्र को भेंट करते हैं। दिव्य गुणों को जानना, मानना और धारण करना माता-पिता के त्याग, तपस्या और साधना से ही सम्भव है। माता पिता के कारण संतान श्रेष्ठ बनती है और संतान के कारण माता-पिता श्रेष्ठ बनते हैं।
अतः संतान/बच्चा केवल आपका ही नहीं है। यह परमात्मा का उपहार है जिसे माता-पिता ने इस योग्य बनाना है कि वह इस सृष्टि की अलौकिक रचना सिद्ध हो और इस संसार में अमर हो जाए।
माता पिता को आयु अनुसार उसे मात्र अपनी ही धरोहर नहीं, अपितु इस सृष्टि के निर्माण हेतु परमात्म धरोहर के रूप में स्वीकार करना है। शैशवास्था में बालक माता-पिता एवं परिवार का, बाल्यावस्था में इन सबके साथ समाज का, किशोरावस्था में इन सबके साथ राष्ट्र का, यौवनावस्था में समस्त सृष्टि का है। अब उसका स्वधर्म है कि वह इस सृष्टिचक्र को चलाने के निमित्त बन अपने से भी श्रेष्ठ आत्मा को जन्म दे एवं संस्कारित करे।
इस प्रकार परिवार, समाज, राष्ट्र, विश्व यह सब उसके लिए हैं। वह विश्व के किसी भी कोने में जाए परन्तु अपनी जङों को न भूले क्योंकि उसको हरा भरा बनाने में उन जङों ने ही सींचा है। जड़ों की सिंचाई के कारण ही उसके फल दूसरों को भी प्राप्त होते हैं। माता पिता कितने भी धनवान हों परन्तु समाज के विभिन्न अंगों का सहयोग लिए बिना वे बच्चे का पालन पोषण नहीं कर सकते। इसलिए उन सब के प्रति कृतज्ञता और कर्त्तव्य का भाव उन्हें स्वयं भी सीखना है और बच्चे को भी सीखाना है। ऐसे माता-पिता ही श्रेष्ठ माता-पिता होते है जो ‘स्व’ (स्वार्थ) के विचार से ऊपर उठकर परम (परमात्मा) का विचार करते हैं। मेरी संतान श्रेष्ठ बने यह सपना उन्हीं का साकार होता है। इसके लिए माता-पिता में त्याग एवं समर्पण की भावना होनी अनिवार्य है। युग युगान्तर का भारतीय इतिहास ऐसे अनेको उदाहरणों से भरा पङा है। भविष्य में भी ऐसे नवीन उदाहरण इतिहास बनते रहें ताकि प्रेरणा की यह श्रंखला चलती रहे। मात्र श्रेष्ठ माता-पिता के कारण ही यह सम्भव है। अतः भावी माता-पिता को अपने कर्त्तव्यों के प्रति सचेत रहना होगा।
(लेखिका शिशु शिक्षा विशेषज्ञ है और विद्या भारती उत्तर क्षेत्र शिशुवाटिका विभाग की संयोजिका है।)
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