शिशु शिक्षा 31 – सजीव सृष्टि से आत्मीय परिचय

 – नम्रता दत्त

‘शिक्षा’ मात्र पुस्तकीय ज्ञान लेना नहीं अपितु जीवन जीने की कला को जानना है। शिक्षा वही है जो जीवन के व्यवहार में उतरती है। जीवन जीने के यह संस्कार शिशु अवस्था से ही सीखाने चाहिए क्योंकि संस्कार ग्रहण करने की यही सर्वश्रेष्ठ आयु है। परमात्मा ने इस सृष्टि की रचना की है और इस सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ रचना मनुष्य को माना जाता है। बहुत से गुण परमात्मा ने केवल मनुष्य को ही दिए हैं जैसे- प्रेम, दया, करुणा, वाणी आदि। अपने इन गुणों का सदुपयोग करते हुए इस सृष्टि की सभी रचनाओं से आत्मीय भाव रखना उसका कर्त्तव्य है।

इन कर्त्तव्यों के प्रति सजग रहना, उसे इसी अवस्था में सीखाना होगा। परमात्मा स्वरूप बालक तो सम्पूर्ण सृष्टि से प्रेम करता ही है। तब ही तो वह प्रकृति/सृष्टि में जाकर प्रसन्नता का अनुभव करता है। पेङ-पौधे, कीट-पतंगे, पक्षी-जानवर, बादल-वर्षा, सूर्य-चंद्रमा, नदी-झरना आदि उसको तो सब बहुत भाते हैं। परन्तु माता-पिता अथवा परिवार के सदस्य ही उसे अपने व्यवहार से इन सब से दूर कर देते हैं।

अनुभव के आधार पर हम देखते हैं कि यदि रोते हुए बच्चे को चिङिया या कौआ दिखाया जाए अथवा बाहर घूमाने ले जाया जाए तो वह चुप हो जाता है क्योंकि सृष्टि में रहना उसको अच्छा लगता है। पेङ-पौधों के पत्तों को हिलते हुए देखना, उन पर चढना, पत्तों को छूना, घास पर चलना/खेलना उनके मन को भाता है। इन सबसे उसका आत्मीय भाव बना रहे इसके लिए माता-पिता को कुछ अच्छे संस्कार देने चाहिए जैसे- पौधों में भी जीवन है और उनके कारण ही हम जीवित हैं क्योंकि उनसे ही हमें प्राणवायु मिलती है। वे हमें फल और छाया देते हैं। अतः उन्हें नमस्कार करना चाहिए, उनकी परिक्रमा करनी चाहिए। पौधों को भी प्यास लगती है उन्हें पानी देना, अकारण ही उनके पत्ते नहीं तोङना आदि आदि। नीम, पीपल और बरगद जैसे पेङ हमारे दादा हैं ऐसा बता कर उनसे सम्बन्ध जोङना चाहिए।

गाय हमारी माता है, बन्दर मामा है, बिल्ली मौसी है, हाथी दादा है, चिङिया बहना है ऐसी बातें सीखाकर माता-पिता पशु-पक्षियों से उसका सजीव सम्बन्ध जोङ सकते हैं।

एक टीचर ने चतुर्थ कक्षा के बच्चों को विज्ञान विषय पढाते हुए पूछा कि बताओ पृथ्वी और चन्द्रमा में क्या सम्बन्ध है तो बच्चों ने कहा कि उनमें बहन भाई का सम्बन्ध है। टीचर ने हैरान होकर पूछा – वो कैसे? बच्चों ने कहा कि धरती हमारी माता है और चन्द्रमा को हम मामा कहते हैं तो हो गया न बहन-भाई का सम्बन्ध। ऐसा बच्चों ने शिशु अवस्था में ही सुना था। इससे सिद्ध होता है कि शिशु अवस्था के संस्कार जीवन भर साथ रहते हैं।

शिशुओं को बताना चाहिए कि यह सारी सृष्टि, हमें बस देती ही देती है, हमसे कुछ लेती नहीं। पेङ हमें जीने के लिए फल और हवा देते हैं तो नदियां पीने के लिए पानी देती हैं। यह धरती हमारी माता है, इसकी गोद में ही हम जीवन भर पलते हैं। यह आकाश हमारा पिता है जिसके नीचे सबको रहने का स्थान मिलता है, चाहे वह अमीर हो या गरीब। चन्द्रमा हमारा मामा है तो सूरज दादा है, उसकी किरणों से ही सृष्टि पर रहने वाले सभी जीव जन्तुओं और प्राणियों को जीवन मिलता है।

इस सृष्टि को परमात्मा ने बनाया है और इस पर रहने वाले सभी पेङ-पौधों, कीट-पतंगों, पक्षी-जानवरों, बादल-वर्षा, सूर्य-चन्द्रमा, नदी-झरनों आदि को भी उसने बनाया है। जैसे सब, हमारे लिए हैं ऐसे ही हम, सबके लिए हैं। इन सब की रक्षा की जिम्मेदारी हमारी सबकी ही है। अतः किसी को भी नुकसान नहीं पहुंचाना चाहिए।

समय समय पर बच्चे को सृष्टि के सानिध्य में लेकर जाना चाहिए। चिङिया, कबूतर, मुर्गी, कौआ जैसे पक्षियों को उसके हाथ से दाना दिलवाना चाहिए। गाय, कुत्ता आदि को रोटी खिलाने का संस्कार डालना चाहिए। खाना खाने से पूर्व गो ग्रास निकालने की आदत भी इसी आयु में डालनी चाहिए। बच्चा अनुकरण से सीखता है। अतः स्वयं भी ऐसा करें और बच्चों से भी करवायें। इसी प्रकार मछलियों आदि को भी आटे की गोलियां/मुरमुरे आदि डालने का मौका देना चाहिए। इससे उसका संज्ञानात्मक विकास (cognative development) तो होता ही है और सद्गुण एवं सदाचार भी आता है।

गीत एवं कहानी आदि के माध्यम से भी बच्चों को ऐसे संस्कार सरलता से दिए जा सकते हैं। रामायण की कहानियां, हनुमान जी एवं श्री कृष्ण जी की बाल लीलाओं को भी सुनाया जा सकता है। यह सृष्टि भी हमारी छोटी छोटी भावनाओं को समझती है। हवन करने से वर्षा होती है अर्थात् हमारे भाव कैसे यह सृष्टि समझती है ऐसी बातें बच्चों के बीच करनी चाहिए और उन्हें करने का अवसर भी देना चाहिए।

जब हम बच्चे के समग्र विकास (holistic development) का विचार करते हैं तो उसमें मैं, परिवार, समाज, राष्ट्र, विश्व, सृष्टि और परमेष्टि अर्थात् परमात्मा को जानने का विचार करते हैं। इन सभी के संस्कार की नींव यही अवस्था (शिशु अवस्था) है क्योंकि यही सीखने की अवस्था है। जैसे छोट से बीज में जङ, तना और पत्ते आदि सब समाया होता है परन्तु समय अनुसार सब प्रकट होता है। जङ, तना और पत्तों की देखभाल ठीक से की जाए तो समय आने पर फूल और फल भी उत्तम आते हैं ऐसे ही इस नन्हें शिशु में सब समाया हुआ है। माता-पिता को समय अनुसार उसकी जङों को सींचने की आवश्यकता है। जङ मजबूत होगी तो तना तो मजबूत हो ही जाएगा अर्थात् आज दिए गए यह संस्कार, कल उसे जीवन जीने की कला सीखा देंगे। वास्तव में यही तो शिक्षा है।

(लेखिका शिशु शिक्षा विशेषज्ञ है और विद्या भारती शिशुवाटिका विभाग की अखिल भारतीय सह-संयोजिका है।)

और पढ़ें : शिशु शिक्षा 30 – शिशु की अवांछनीय आदतें एवं निराकरण

One thought on “शिशु शिक्षा 31 – सजीव सृष्टि से आत्मीय परिचय

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *