भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात 65 (शास्त्र की शिक्षा)

 –  वासुदेव प्रजापति

जीवन में जितनी महत्त्वपूर्ण मन की शिक्षा और कर्म की शिक्षा है, उतनी ही महत्त्वपूर्ण शास्त्र की शिक्षा भी है। जहाँ मन की शिक्षा से व्यक्ति सज्जन बनता है, कर्म की शिक्षा से श्रमनिष्ठ बनता है, वहीं शास्त्र की शिक्षा से व्यक्ति विद्वान बनता है। शास्त्र शिक्षा का अर्थ केवल धार्मिक ग्रंथों को पढ़ना नहीं है। शास्त्र शिक्षा का अर्थ किसी भी क्रिया, किसी भी रचना अथवा किसी भी पदार्थ के मूल तत्त्वों को जानना ही शास्त्र शिक्षा है।

शास्त्र ज्ञान को हम भाषा के उदाहरण से समझते हैं। प्रत्येक भाषा की वर्णमाला में स्वर और व्यंजन होते हैं। स्वर और व्यंजन की परिभाषा जानना और उस परिभाषा के अनुसार उच्चारण की प्रक्रिया का अवलोकन व परीक्षण करना शास्त्रीय ज्ञान कहलाता है। बिना सिद्धान्त जाने केवल अनुकरण से उच्चारण करना, यह क्रियात्मक शिक्षा है। सही उच्चारण करना, सही उच्चारण के आनन्द का अनुभव करना, सही उच्चारण के साथ मधुर स्वर से उच्चारण करने को भगवती सरस्वती की आराधना समझना, यह भाषा के सम्बन्ध में मन की शिक्षा है।

इस प्रकार से भाषा को समझने पर हमारे ध्यान में आता है कि एक भाषा का शास्त्र ज्ञान है, दूसरा भाषा का व्यवहार है और तीसरा वाग्देवी की उपासना है। स्वाभाविक रूप से वाग्देवी की उपासना पहले की जाती है, इसलिए मन की शिक्षा का क्रम पहला है, व्यवहार अर्थात् कर्मशिक्षा का क्रम दूसरा है और व्याकरण ज्ञान अर्थात् शास्त्रशिक्षा का क्रम तीसरा है।

हमारे व्यवहार का अनुभव भी यही है कि बालक में पहले भाषा के संस्कार होते हैं। माँ की कोख से ही उस पर भाषा के संस्कार होने लगते हैं। फलतः भाषा उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्व में समा जाती है। यही उसके लिए भाषा की उपासना है। आयु बढ़ने के साथ-साथ उपासना का भाव भी विकसित होता जाता है। यह मन की शिक्षा है। जन्म के समय भाषा तो उसके पास होती ही है। भाषा के वातावरण में वह बड़ा होता है। जब उसके उच्चारण के अवयव सक्रिय होते हैं, तब वह बोलना सीखता है। प्रेरणा और अभ्यास से उसका उच्चारण शुद्ध व मधुर होता है। यह कर्म की शिक्षा है। इसके बाद वह स्वर और व्यंजन की परिभाषा सीखता है। मुख में किस व्यंजन का उच्चारण स्थान कौनसा है? वह जानता है। यह शास्त्रशिक्षा है। भाषा सीखने में शास्त्र जानने का क्रम बाद में ही आता है।

हम पहले सिद्धांत सीखकर फिर बोलना नहीं सीखते, पहले बोलते हैं फिर सिद्धांत सीखते हैं। चलना, गाना, खाना, तैरना, खेलना आदि सारे काम पहले करते हैं फिर उसका सिद्धांत समझते हैं। तैरने का सिद्धांत जानकर तैरना नहीं सीखा जाता, क्रिया करने का अच्छा अभ्यास हो जाने पर सिद्धांत भी सरलता से समझ में आता है। इसका अर्थ यह भी नहीं कि शास्त्र शिक्षा की आवश्यकता ही नहीं है। कुछ विषय ऐसे हैं जिनमें पहले सिद्धांत जाना जाता है फिर विषय सीखा जाता है, जैसे – पदार्थ विज्ञान, गणित, भूमिति आदि सीखते समय पहले सिद्धांत जानते हैं, फिर सीखते हैं। किन्तु इसमें भी सिद्धांत के साथ क्रिया नहीं जुड़ी तो सिद्धांत समझना कठिन या कभी कभी तो असंभव भी हो जाता है। इसे एक कथा से समझेंगें –

ज्ञानं भार: क्रियां विना

एक गुरुकुल में गुरुजी ने अपने नन्हें-नन्हें शिष्यों को बताया कि ईश्वर सर्वत्र विद्यमान है। एक शिष्य को यह बात समझ में नहीं आई। उसने गुरुजी से पूछा, गुरुजी! मुझे तो ईश्वर कहीं भी दिखाई नहीं देते? गुरुजी जान गए कि इसे केवल सिद्धांत समझाने से काम नहीं चलेगा। उन्होंने शिष्य से कहा, जाओ! एक पानी से भरा गिलास और थोड़ी शक्कर लेकर आओ। शिष्य पानी से भरा गिलास व शक्कर ले आया। अब गुरुजी ने उसे पानी से भरी गिलास में शक्कर घोलने के लिए कहा। शिष्य ने पानी में शक्कर घोल दी। तब गुरुजी ने शिष्य से पूछा, तुम्हें पानी में शक्कर दिखाई देती है क्या? शिष्य बोला, अब शक्कर बिल्कुल दिखाई नहीं देती। फिर शक्कर कहाँ गई? शक्कर है तो पानी में ही, शिष्य बोला। तब गुरुजी ने उसे समझाया, देखो! जैसे पानी में शक्कर होते हुए भी वह दिखाई नहीं देती, वैसे ही ईश्वर हमें दिखाई नहीं देते, परन्तु हैं अवश्य।

फिर गुरुजी ने उसी शिष्य से कहा, ऐसा करो! गिलास में ऊपर का पानी लेकर उसे चखो। उसने चखा और बताया कि पानी मीठा है। फिर कहा, बीच का पानी चखो। गुरुजी यह भी मीठा है। अच्छा, अब सबसे नीचे का पानी चखो। शिष्य ने फिर बताया कि नीचे वाला पानी भी मीठा ही है। अब गुरुजी ने उसे समझाया कि कहीं से भी चखो, सब जगह का पानी मीठा है। अर्थात् शक्कर पानी में सब जगह घुली हुई है, ठीक इसी प्रकार ईश्वर भी इस संसार में सब जगह विद्यमान हैं।

गुरुजी ने अपनी बात समझाने के लिए एक प्रयोग करवाया। प्रयोग करवाया अर्थात् क्रिया करवाई। क्रिया करने से अनुभव प्राप्त होता है। क्रिया और अनुभव से सिद्धांत शीघ्र व सही समझ में आता है। यदि क्रिया नहीं की तो सिद्धांत या शास्त्र समझ में नहीं आता। इसीलिए कहा गया है – “ज्ञानं भार: क्रियां विना”। अर्थात् बिना क्रिया के जाना हुआ ज्ञान भार स्वरूप है। इसलिए भी शास्त्र शिक्षा से पहले कर्म शिक्षा दी जाती है।

शास्त्र शिक्षा से सिद्धांत समझ में आता है, परन्तु जीवन में व्यवहार मन की शिक्षा और कर्म की शिक्षा के बिना नहीं चलता। जैसे किसी व्यक्ति को भूख लगी है तो रोटी बनाने का शास्त्र जानने से भूख नहीं मिटती। भूख तो रोटी बनाकर खाने से ही मिटती है। इसी प्रकार आरोग्य शास्त्र जानने से निरोगी नहीं बना जाता, ‘तैरने की कला’ पुस्तक पढ़ने से तैरना नहीं आता। तैरने के लिए पानी में उतरना ही पड़ता है, हाथ-पैर मारने ही पड़ते हैं। अतः व्यवहार की दुनिया में मन की शिक्षा और कर्म की शिक्षा के बिना काम नहीं चलता।

शास्त्र शिक्षा का महत्त्व

हमने यह समझा कि जीवन व्यवहार के लिए कर्म शिक्षा अनिवार्य है। फिर शास्त्र शिक्षा की क्या आवश्यकता है? इसका उत्तर यह है कि शास्त्र को जाने बिना क्रिया सही ढंग से नहीं होती। शास्त्र से ही किसी भी क्रिया को, रचना को अथवा प्रक्रिया को वैज्ञानिकता प्राप्त होती है। शास्त्र ज्ञान का महत्त्व बताते हुए श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं –

य: शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारत:।

न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्।।

अर्थात् शास्त्र विधि को छोड़कर जो व्यक्ति मन में उठे तुक्कों व तरंगों के अनुसार व्यवहार करता है, उसे न सुख मिलता है न सिद्धि मिलती है और न मोक्ष ही मिलता है। इसलिए शास्त्र शिक्षा भी अनिवार्य है।

शास्त्र शिक्षा की आवश्यकता

शास्त्र शिक्षा के सम्बन्ध में दो बातें ठीक से समझना आवश्यक है।

१. शास्त्र शिक्षा सबके लिए आवश्यक नहीं है। समाज में यदि दस प्रतिशत शिक्षित व्यक्ति शास्त्रों के ज्ञाता हों तो पर्याप्त है। इस बात को व्यवहारिक दृष्टि से समझने की आवश्यकता है। यदि किसान शास्त्र का अध्ययन करेगा तो खेती कौन करेगा? किसान तो खेती ही करेगा। गृहणी शास्त्रों का अध्ययन करेगी तो घर के लोगों को भूखा रहना पड़ेगा। यदि समाज में सभी लोग शास्त्रों के अध्ययन में लग जायेंगे तो आवश्यक काम धरे रह जायेंगे। और काम नहीं होगा तो व्यवहार कैसे चलेगा? व्यवहार नहीं चलेगा तो जीवन ही रुक जायेगा। समाज व्यवस्थित चले, इसके लिए आवश्यक है कि नब्बे प्रतिशत लोगों को काम करना चाहिए। और दस प्रतिशत को शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। और इन नब्बे प्रतिशत लोगों को विद्वानों के द्वारा बताए हुए मार्ग पर चलना चाहिए। ऐसा हमारे शास्त्र निर्देश भी देते हैं कि  –  “येन महाजनो गत: स पन्था:।”

२. दूसरी बात समझने की यह है कि काल के प्रवाह में जब एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तांतरित होते-होते क्रियाओं-प्रक्रियाओं में, पद्धतियों में विकृतियाँ आ जाती हैं और अन्ध श्रद्धायें निर्माण हो जाती हैं। फलस्वरूप निर्थकता घर कर जातीं हैं। अनेक बार कूछ बातें कालबाह्य हो जाती हैं, उनमें दोष आ जाते हैं। इन दोषों को नित्य परिष्कृत करने की आवश्यकता पड़ती हैं। यह परिष्कृति का कार्य शास्त्रों के ज्ञाता ही कर सकते हैं। वास्तव में इस कार्य को ही शास्त्रीय अध्ययन और अनुसंधान कहते हैं।

इस प्रकार के अध्ययन व अनुसंधान करने को भारत में ज्ञान साधना कहा गया है। शिक्षित समाज के दस प्रतिशत लोगों को ऐसी ज्ञान साधना करने हेतु स्वयं को प्रस्तुत करना चाहिए। यह भी सच है कि इस प्रकार की ज्ञान साधना करने के लिए भी मन की शिक्षा व कर्म शिक्षा आवश्यक होती है। ठीक ऐसे ही जिसे अध्ययन करना है, उसे भी शास्त्र शिक्षा की आवश्यकता होती है, क्योंकि क्रिया आधारित व अनुभव आधारित शिक्षा प्राप्त करने हेतु उसे प्रेरित करना व उसका मार्गदर्शन करना शास्त्रीय ज्ञान के बिना सम्भव नहीं होता है।

सार रूप में यह कहा जा सकता है कि मन की शिक्षा, कर्म की शिक्षा व शास्त्र की शिक्षा का मेल बिठाने की नितान्त आवश्यकता है। समाज के शत प्रतिशत लोगों को मन की शिक्षा मिले, उनमें से नब्बे प्रतिशत को कर्म की शिक्षा दी जाय और दस प्रतिशत शिक्षित व्यक्ति शास्त्र की शिक्षा प्राप्त करें। इस हेतु घरों में, विद्यालयों में, महाविद्यालयों में, अनुसंधान केन्द्रों में और धर्म केन्द्रों में शिक्षा की पुनर्रचना करने की महती आवश्यकता है। यह मेल बिठाने से सबका विकास होगा और समाज व देशभी सुखी व समृद्ध होंगे।

(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सचिव है।)

और पढ़े  :भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात 64 (कर्म की शिक्षा)

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