भारतेंदु हरीशचन्द्र का साहित्य दर्शन

 – डॉ. कुलदीप मेहंदीरत्ता

भारतवर्ष के इतिहास में उन्नीसवीं सदी का महत्त्वपूर्ण स्थान है। 1600 ईस्वी के बाद धीरे-धीरे भारत को कब्जाते जा रहे अंग्रेजों के विरुद्ध बड़ी क्रांति का बिगुल 1857 में भारतीयों ने बजाया। तत्पश्चात राजनीतिक जागरण का प्रारम्भ करते हुए भारतीयों ने शांतिपूर्ण ढंग से अंग्रेजों का प्रतिकार किया। भारत के इतिहास में उन्नीसवीं सदी को सामाजिक सुधार आंदोलनों की सदी की कहा जाता है। यही नहीं उन्नीसवीं सदी भारत में राष्ट्रवाद के जागरण और विकास की सदी भी है।

ब्रिटिशों के औपनिवेशिक, साम्राज्यवादी तथा औद्योगिक पूंजीवादी शोषण ने भारत को एक ‘राष्ट्र’ से एक ‘उपनिवेश’ में बदल कर रख दिया। भारतीय संस्कृति और सभ्यता को हीन बनाने के लिए एक आलोचनात्मक और नकारात्मक विचारधारा को गढ़ा और प्रोत्साहित किया गया। मैकाले की विचारधारा से ओतप्रोत ईसाई मिशनरी समूहों ने हमारे धर्म, संस्कृति, आचार-विचार तथा सामाजिक व्यवहार को निकृष्ट बताते हुए ईसाई धर्म की श्रेष्ठता को स्थापित करने के प्रयास किए। ऐसे समय में भारत के बुद्धिजीवी वर्ग द्वारा इसका प्रतिकार किया जाना अपेक्षित और स्वाभाविक था। भारतेंदु ऐसे ही बुद्धिजीवी थे जिन्होंने भारतीयों को अपने धर्म और संस्कृति के श्रेष्ठ होने का आभास करवाया।

अंग्रेजों के प्रतिरोध तथा प्रतिकार की इस कड़ी में बंगाल ‘नवजागरण’ आंदोलन के नेतृत्वकर्ताओं में प्रमुख था। भद्रलोक बंगाल के उच्चशिक्षित वर्ग ने शिक्षा और साहित्य के माध्यम से नवजागरण में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। मैकालेवादी शिक्षा ने जहां एक ओर भारतीयों को भारत से विमुख करने का कार्य किया वहीं दूसरी ओर उसी शिक्षा ने एक ऐसा वर्ग भी तैयार कर दिया जिसने अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध आवाज उठाई। हिंदी प्रदेश में भी इस सांस्कृतिक नवजागरण की तीव्र प्रतिध्वनि सुनाई दी, जिसका नेतृत्व भारतेंद्र हरिशचंद्र जैसे साहित्यकारों ने किया।

भारतेंदु का साहित्य, विशेषकर उनका ‘भारत दुर्दशा’ नाटक तात्कालिक भारतवर्ष का संपूर्ण प्रतिनिधि और परिचायक नाटक है। भारतेंदु का साहित्य रचना क्षेत्र बनारस पुरातन‌काल से ही धार्मिक आस्था व शिक्षा का केंद्र रहा है, जहां पूरे भारत से लोगों का आगमन हुआ है। भारतेंदु ने पूरे भारतवर्ष को अपने साहित्यफलक के रूप में स्थान दिया  इसलिए भारत दुर्दशा जैसे नाटक में न केवल गुजराती, मराठी, बंगाली तथा मद्रासी आदि पात्र हैं बल्कि इन भाषाओं का संधान भी भारतेंद्र ने सफलतापूर्वक किया है। प्रतीकात्मक तथा व्यंग्यात्मक शैली में लिखा गया यह नाटक तत्कालीन भारत की दुर्दशा का और इस दुर्दशा के कारणों की अद्वितीय विवेचना है।

सामाजिक तथा प्रादेशिक भेद‌भाव किसी भी देश की गुलामी के कारक हो सकते हैं। ऊंच-नीच और जातिगत भेदभाव ने भारत की किस प्रकार हानि की है, यह नाटक सफलतापूर्वक इस बात को चित्रित करता है।  उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के शोषण के कारण भारत की दयनीय दशा को भारतेंदु द्वारा प्रदर्शित किया गया है। इसमें भारतेंदु ने भारत की धार्मिक व्यवस्था, सामाजिक व्यवस्था, राजनीतिक व्यवस्था, सरकारी शासन प्रणाली तथा भारतीय नागरिकों की नकारात्मक प्रवृतियों पर गहरी चोट की है।

भारतेंदु प्राचीन भारत के गौरवान्वित अतीत को स्मरण कर दुःखी होते हैं और भारतीयों को यह अनुभव करवाना चाहते हैं कि भारत ऐसा देश है जिसे “सबसे पहिले जेहि ईश्वर धनबल दीनो। सबके पहिले जेहि सभ्य विधाता कीनो।” भारत के स्वर्णिम अतीत का ज्ञान कराते हुए भारतेंदु उल्लेख करते हैं कि सबसे पहले सभ्यता का विकास भारत में हुआ, शौर्य व संपन्नता भी प्रभु ने सबसे पहले भारत और भारतीयों को प्रदान की थी। विश्व में विद्या का स्रोत भी भारत ही है जिसे “सबके पहिले विद्याफल जिन गहि लीनो” लेकिन अब दीन-हीन स्थिति में आ गया है इसका कारण अंग्रेज है, और अब भारत “सबके पीछे सोई परत लखाई” की स्थिति में आ गया है।

धार्मिक और सामाजिक विषम‌ता की समस्या को भारतेंदु ने उजागर किया है- “लरि वैदिक जैन दुबाई पुस्तक सारी” और भारतेंदु ने इस कटु साहित्य का भी उद्घाटन किया की किस प्रकार आपसी लड़ाईयों के कारण भारतीयों ने विदेशियों को भारत में बुलाकर भारत का किस प्रकार अहित किया है “करि कलह बुलाई जवन सैन पुनि माटी”। विदेशियों ने भारत का बुद्धि बल विद्या धन सब हर लिया है। भारतेंदु का मानना था कि अंग्रेजी राज में सुख-सुविधाओं का सामान तो बढ़ता जा रहा है परंतु भारतीय धन का विदेश चले जाना उन्हें बहुत अखर रहा है। महंगाई, रोग, शोषण, टैक्स आदि से भारतीयों का जीवन कठोर होता जा रहा है।

भारत जैसा बड़े आकार तथा बड़ी जनसंख्या वाला देश अपना उत्थान तभी कर सकता है जब देश के नागरिक आपसी भेदभाव को छोड़कर भारतीय के रूप में प्रयास करें, पर ऐसा होता नहीं है। भारत के इसी दृश्य को भारतेंद्र ने प्रकट किया है कि “कोऊ नहिं पकड़त मेरो हाथ।  बीस कोटि सुत होत फिरत, मैं हा हा होय अनाथ” भारतेंदु ने इस प्रकार इस नाटक के माध्यम से भारत की तत्काल परिस्थितियों तथा समस्याओं का चित्रण किया है।

भारतेंदु ने अपने जीवन काल में बहुत सारे धार्मिक-सामाजिक तथा साहित्यिक संगठनों का गठन किया। समाज सेवी भारतेंद्र ने खानदेश अकाल के समय भिक्षा मांगकर हजारों रूपए एकत्र कर भेजे थे। भारतेंदु ने शराब विरोधी आंदोलन का भी नेतृत्व किया। भारतेंदु के प्रभाव में साहित्य जगत में ‘भारतेंदु मण्डल’ का अभ्युदय ‌हुआ जिन्होंने भारतेंदु की साहित्य रचना की परंपरा को आगे बढाया।

भारतेंदु ने हिंदू धर्म में आई विकृतियों का भी विरोध किया। अपने एक निबंध ‘वैष्णवता और भारतवर्ष’ में उन्होंने भारत के हिंदुओं को आहवान किया है कि वे उदार बनें, अपने भाई-बहनों को समान समझें, उनसे समान  व्यवहार करें, सबको समानता से स्वीकार करें, अपने धर्म की विकृतियों को मिलकर दूर करें। उनका मानना था कि हिन्दू नामधारी वेद से लेकर आधुनिक ग्रंथों को मानने वाले सभी लोग अपना परम धर्म यह मानें कि समस्त देश और देशवासियों में एकता की भावना स्थापित हो।

भारतेंदु के काव्य को राजभक्ति से राष्ट्भक्ति की यात्रा माना जाता है।  उनके साहित्य के प्रारंभ में राष्ट्रभक्ति की भावना को राजभक्ति का अवलंबन लेना पड़ा है। परंतु धीरे-धीरे उनके साहित्य का स्वर प्रखर देशभक्ति का होता चला गया। जैसे-जैसे उन्हें अंग्रेजों की वास्तविकता स्पष्ट होती चली गई, उनके स्वर में भारत भक्ति का प्रभाव भी बढ़ता चला गया। भारतेंदु को साहित्य रचना करने के कारण अंग्रेजों का कोपभाजन भी बनना पड़ा। उनकी कविवचन सुधा की सरकारी खरीद बंद कर दी गई और उनको बालाबोधिनी का प्रकाशन ही अंग्रेजों के दबाव में बंद करना पड़ा।

हिन्दी साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान रखने वाले भारतेंद्र ने साहित्य की विविध विषाओं में रचना की। भारतेंदु को हिंदी, अंग्रेजी, बंगला और संस्कृत भाषाओँ का ज्ञान था। भारतेंदु युग में ही हिंदी में नाटक, कहानी, जीवनी तथा निबन्ध लेखन आदि का जन्म हुआ, इसीलिए भारतेंदु को हिंदी गद्य  का जन्मदाता भी कहा जाता है। उन्होंने विभिन्न भाषाओँ के नाटकों आदि का अनुवाद भी किया।

सर्वमान्य तथा स्वीकार्य तथ्य है कि साहित्य ने किसी भी देश के स्वतन्त्रता संग्राम में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। भारतेंदु ने भी अपनी साहित्य रचना से समाज और देश जागरण का कार्य किया। ‘देव-देव आलसी प्रकारा’ हम भारतीयों की सामाजिक और मानसिक प्रवृत्ति बन चुकी थी, ऐसे समय में भारतेंदु ने कर्म का संधान करने की प्रेरणा दी। सामाजिक भेदभाव को दूर कर भारतीयों में अपनी सभ्यता और संस्कृति के प्रति गौरव का भाव भरने का अनथक प्रयास भारतेंदु ने किया। छुआछत, कर्मकाण्ड तथा अंधविश्वासों से निकलने का आह्वान भारतेंदु ने किया। हिन्दी भाषा की व्याप‌क ग्राह्यता, प्रचलन और प्रभाव क्षेत्र को देखते हुए भारतेंदु ने हिंदी के प्रचार-प्रसार पर बल दिया। राष्ट्रवाद और भारतहित उनकी भावभूमि है जिस पर उनके साहित्य संसार की रचना हुई है और भारतेंदु का साहित्य इसलिए चिरस्थायी है।

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