भारतीय ज्ञान का खजाना-11 (‘सिरी भूवलय’ – एक अदभुत एवं चमत्कारिक ग्रन्थ)

– प्रशांत पोळ

अंकों में लिखा हुआ अद्भुत ग्रंथ, जिसे 18 लिपियों के माध्यम से 718 भाषाओं में पढ़ा जा सकता है।

हमारे भारत के ज्ञान भण्डार में इतनी जबरदस्त एवं चमत्कारिक बातें छिपी हुई हैं, कि उन्हें देख-सुन-पढ़ कर हमारा मन हक्का-बक्का हो जाता है! हम यह सोचने पर विवश हो जाते हैं कि आखिर यह विराट ज्ञान हमारे पास कहां से आया। फिर अगला विचार आता है कि जब उस प्राचीन काल में यह जबरदस्त ज्ञानभंडार हमारे पास था, तो अब क्यों नहीं है? यह ज्ञान कहां चला गया? ऐसे प्रश्न लगातार हमें सताते रहते हैं।

इसी श्रेणी का एक अदभुत ग्रन्थ है – ‘सिरी भूवलय’ अथवा श्री भूवलय। जैन मुनि आचार्य कुमुदेंदू द्वारा रचित। जब कर्नाटक में राष्ट्रकूटों का शासन था, जब मुस्लिम आक्रांता दूर-दूर तक भारत में नहीं थे और सम्राट अमोघ-वर्ष नृपतुंग (प्रथम) का शासनकाल था, उस कालखंड का यह ग्रन्थ है। अर्थात् यह ग्रन्थ सन् 820 से 840 के बीच कभी लिखा गया है।

पिछले एक हजार वर्ष से यह ग्रन्थ गायब था। कहीं-कहीं इस ग्रन्थ का उल्लेख मिलता था, परन्तु यह ग्रन्थ विलुप्त अवस्था में ही था। यह ग्रन्थ कैसे मिला, इसके पीछे भी एक मजेदार किस्सा है –

राष्ट्रकूट राजाओं के कालखंड में किसी मल्लीकब्बेजी नामक स्त्री ने इस ग्रन्थ की एक प्रति की नक़ल बना ली और अपने गुरु माघनंदिनी को शास्त्रदान किया। इस ग्रन्थ की प्रति धीरे-धीरे एक हाथ से दूसरे हाथ होते हुए सुप्रसिद्ध आयुर्वेद चिकित्सक धरणेन्द्र पंडित के घर पहुंची। धरणेन्द्र पंडित, बंगलौर – तुमकुर रेलवे मार्ग पर स्थित डोड्डा बेले नामक छोटे से गांव में रहते थे। इस ग्रन्थ के बारे में भले ही उन्हें अधिक जानकारी नहीं थी, परन्तु इसका महत्त्व उन्हें अच्छे से मालूम था। इसीलिए वे अपने मित्र चंदा पंडित के साथ मिलकर ‘सिरी भूवलय’ नामक ग्रन्थ पर कन्नड़ भाषा में व्याख्यान देने लगे।

इन व्याख्यानों के कारण, बंगलौर के ‘येलप्पा शास्त्री’ नामक युवा आयुर्वेदाचार्य को यह पता चला कि यह ग्रन्थ धरणेन्द्र शास्त्री के पास है। येलप्पा शास्त्री ने इस ग्रन्थ के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था। इसलिए उनका निश्चय पक्का था कि उन्हें यह ग्रन्थ प्राप्त करना ही है। ऐसे में इस ग्रन्थ की हस्तलिखित प्रति को हासिल करने के लिए येलप्पा शास्त्री ने डोड्डाबेले जाकर धरणेन्द्र शास्त्री की भतीजी से विवाह भी किया।

आगे चलकर 1913 में धरणेन्द्र शास्त्री का निधन हो गया। अपने जीवन का अधिकांश समय विद्या अभ्यास को देने के कारण उनके घर की आर्थिक स्थिति बहुत ही खराब हो चुकी थी। इसलिए उनके पुत्र ने, धरणेन्द्र शास्त्री की कुछ वस्तुओं को बेचने का निर्णय लिया। इन्हीं वस्तुओं में ‘सिरी भूवलय’ नामक ग्रन्थ भी था। ज़ाहिर है कि येलप्पा शास्त्री ने खुशी-खुशी यह ग्रन्थ खरीद लिया। इसके लिए उन्हें अपनी पत्नी के गहने भी बेचने पड़े। परन्तु यह ग्रन्थ हाथ लगने के बावजूद शास्त्रीजी को इस ग्रंथ का गूढ़ार्थ समझ में नहीं आ रहा था। 1270 पृष्ठों के इस हस्तलिखित ग्रन्थ में सब कुछ रहस्यमयी था। आगे चलकर 1927 में प्रख्यात स्वतंत्रता सेनानी करमंगलम श्रीकंठाय्याजी बंगलूर पधारे। उनकी सहायता से इस ग्रंथ में झांकने का एक छोटासा झरोखा मिला।

इस हस्तलिखित में दी गई जानकारी के आधार पर प्रयास करते-करते, उसमें दी गई सांकेतिक जानकारी का तोड़ निकालने में उन्हें लगभग चालीस वर्ष लग गए। सन् 1953 में कन्नड़ साहित्य परिषद् ने इस ग्रन्थ का पहली बार प्रकाशन किया। ग्रन्थ के संपादक थे – येलप्पा शास्त्री, करमंगलम श्रीकंठाय्या एवं अनंत सुब्बाराव। इन तीनों में अनंत सुब्बाराव एक तकनीकी व्यक्ति थे। इन्होंने ही पहले कन्नड़ टाईपराइटर का निर्माण किया था।

आखिर इस ग्रन्थ में इतना महत्त्वपूर्ण क्या था कि जिसके लिए कई लोग अपना पूरा जीवन इस पर न्योछावर करने के लिए तैयार थे?

यह ग्रन्थ, अन्य ग्रंथों की तरह एक ही लिपि में नहीं लिखा गया है, अपितु अंकों में लिखा गया है। यह अंक भी 1 से 64 के बीच ही हैं। ये अंक अथवा आंकड़े एक विशिष्ट पद्धति से पढ़ने पर एक विशिष्ट भाषा में, विशिष्ट ग्रन्थ पढ़ सकते हैं। ग्रन्थ के रचयिता अर्थात् जैन मुनी कुमुदेंदू के अनुसार इस ग्रन्थ में 18 लिपियां हैं और इसे 718 भाषाओं में पढ़ा जा सकता है।

यह ग्रन्थ अक्षरशः एक विश्वकोश ही है। इस एक ग्रन्थ में अनेक ग्रन्थ छिपे हुए हैं। रामायण, महाभारत, वेद, उपनिषद, अनेक जैन दर्शन के ग्रंथ।। सभी कुछ इस एक ग्रन्थ में समाहित हैं। गणित, खगोलशास्त्र, रसायनशास्त्र, इतिहास, चिकित्सा, आयुर्वेद, तत्वज्ञान जैसे अनेकानेक विषयों के कई ग्रन्थ इस एक ही ग्रन्थ में पढ़े जा सकते हैं।

इसी ग्रन्थ में कहीं ऐसा उल्लेख है कि इसमें 16000 पृष्ठ थे, लेकिन उसमें से केवल 1270 पृष्ठ ही अब उपलब्ध हैं। कुल मिलाकर इसमें 56 अध्याय थे, परन्तु अभी तक केवल तीन अध्यायों का कुछ कुछ अर्थ निकालना ही संभव हुआ है। 18 लिपियों, एवं 718 भाषाओं में से अभी तक केवल कन्नड़, तमिल, तेलुगु, संस्कृत, मराठी, प्राकृत इत्यादि भाषाओं में ही यह ग्रन्थ पढ़ा जा सकता है। किसी विशाल कंप्यूटर विश्वकोश की तरह ही इस ग्रन्थ का स्वरूप है। जब भी इस ग्रन्थ की सम्पूर्ण संहिता का रहस्य खुलेगा, तभी इस की प्रमुख विशेषताएं और भी स्पष्ट हो सकेंगी।

यह ग्रन्थ लिपि में नहीं, बल्कि अंकों में लिखा गया है यह हम देख चुके हैं। इसमें भी केवल 1 से लेकर 64 तक के अंकों का ही उपयोग किया गया है। प्रश्न उठता है कि कुमुदेंदू मुनि ने केवल 64 तक के अंक ही क्यों लिए? क्योंकि 64 एक ध्वनि संकेत है, जिसमें ह्रस्व, दीर्घ एवं लुप्त मिलाकर 27 स्वर; क, च, न, प जैसे 25 वर्गीय वर्ण; य, र, ल, व, जैसे अवर्गीय व्यंजन इत्यादि मिलाकर 64 संख्या आती है।

ये संख्याएँ 27×27 के चौकोन में जमाई जाती हैं। इस प्रकार ये 729 अंक जिस चौकोन में आते हैं, वे ग्रन्थ में दिए गए निर्देशानुसार नीचे से ऊपर, ऊपर से नीचे, आड़े-सीधे सभी प्रकार से कैसे भी लिखे जाएं तो वह उस भाषा के वर्णक्रमानुसार लिखे जा सकते हैं (उदाहरणार्थ – यदि ४ अंक हुआ तो हिन्दी का वर्ण ‘घ’ आएगा, क, ख, ग, घ के अनुसार), इस प्रकार छंदोबद्ध काव्य अथवा धर्म, दर्शन, कला जैसे अनेक प्रकार के ग्रंथ तैयार हो जाते हैं।

कितना विराट है यह सब…! और कितना अदभुत भी…! हमें केवल एक छोटा सा ‘सुडोकू’ चौकोर तैयार करने के लिए कंप्यूटर की सहायता लेनी पड़ती है और इस ग्रन्थ को लगभग हजार, बारह सौ वर्ष पूर्व एक जैन मुनी ने अपनी कुशाग्र एवं अदभुत बुद्धि का परिचय देकर केवल अंकों ही अंकों के माध्यम से विश्वकोश तैयार कर दिया…!

यह पढ़कर सब कुछ तर्क से परे लगता है…!! इस ग्रन्थ का प्रत्येक पृष्ठ 27 x 27 अर्थात् 729 अंकों का बहुत ही विशाल चौकोर है। इस चौकोर को चक्र कहा जाता है। इस प्रकार के 1270 चक्र फिलहाल उपलब्ध हैं। इन चक्रों में 56 अध्याय हैं और कुल श्लोकों की संख्या छह लाख से अधिक है। इस ग्रन्थ के कुल 9 खंड हैं। वर्तमान में उपलब्ध 1270 चक्र पहले खंड के ही हैं, जिसका नाम है – ‘मंगला प्रभृता’। ऐसा कहा जा सकता है कि यह एकमात्र उपलब्ध खंड ही बाकी के 8 खण्डों की विराटता का दर्शन करवा देता है। अंकों के स्वरूप में इसमें 14 लाख अक्षर हैं। इनमें से ही 6 लाख श्लोक तैयार होते हैं।

इस प्रत्येक चक्र में कुछ ‘बंध’ हैं। ‘बंध’ का अर्थ है – इन अंकों को पढ़ने की विशिष्ट पद्धति अथवा एक चक्र के अंदर अंकों को जमाने की पद्धति। दूसरे शब्दों में कहें तो ‘बंध’ का अर्थ है – वह श्लोक, अथवा ग्रन्थ पढ़ने की चाबी (अथवा पासवर्ड)। इस ‘बंध’ के कारण ही हमें उन चक्रों के भीतर मौजूद 729 अंकों का पैटर्न समझ में आता है और फिर उस सम्बन्धित भाषा के अनुसार वह ग्रन्थ हमें समझ में आने लगता है। इन बंध के प्रकार भी भिन्न-भिन्न हैं। जैसे – चक्रबंध, नवमांक-बंध, विमलांक-बंध, हंस-बंध, सारस-बंध, श्रेणी-बंध, मयूर-बंध, चित्र-बंध इत्यादि।

पिछले अनेक वर्षों से इस भूवलय ग्रन्थ को ‘डी-कोड’ करने का कार्य चल रहा है। अनेक जैन संस्थाओं ने यह ग्रन्थ एक प्रकल्प के रूप में स्वीकार किया है। इंदौर में जैन साहित्य पर शोध करने के लिए ‘कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ’ का निर्माण किया गया है, जहां पर डॉक्टर महेंद्र कुमार जैन ने इस विषय पर बहुत कार्य किया है। आईटी क्षेत्र के कुछ जैन युवाओं ने इस विषय पर वेबसाईट तो शुरू की ही है, परन्तु साथ ही कंप्यूटर की सहायता से इस ग्रन्थ को ‘डी-कोड’ करने का काम चल रहा है। बहुत ही छोटे पैमाने पर उन्हें सफलता भी प्राप्त हुई है।

परन्तु फिर भी…आज जबकि इक्कीसवीं शताब्दी के अठारह वर्ष समाप्त हो चुके हैं, दुनिया भर के जैन विद्वान इस ग्रन्थ पर काम कर रहे हैं…आधुनिकतम कंप्यूटर अल्गोरिथम का उपयोग करने के बावजूद…इस ग्रन्थ का रहस्य अभी तक पता नहीं चल रहा है! अभी तक 56 में से केवल तीन अध्याय ही अंशतः ‘डी-कोड’ हो सके हैं…तो फिर आज से हजार, बारह सौ वर्ष पूर्व, आज के समान उपलब्ध आधुनिक साधनों के अभाव में भी जैन मुनी कुमुदेंदू ने इतना क्लिष्ट ग्रन्थ कैसे तैयार किया होगा? दूसरा प्रश्न है कि मुनिवर्य तो कन्नड़ भाषी थे, फिर उन्होंने अन्य भाषाओं का इतना कठिन अलगोरिदम कैसे तैयार किया होगा? और सबसे बड़ी बात यह है कि मूलतः इतनी कुशाग्र एवं विराट बुद्धिमत्ता उनके पास कहां से आई?

‘इंडोलॉजी’ के क्षेत्र में भारत से एक नाम बड़े ही आदर से लिया जाता है, श्री एस. श्रीकांत शास्त्री (1904-1974) का। इन्होंने ‘भूवलय’ ग्रन्थ के बारे में लिखा है कि – यह ग्रन्थ कन्नड़ भाषा, कन्नड़ साहित्य, साथ ही संस्कृत, प्राकृत, तमिल, तेलुगु साहित्य के अध्ययन की दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। यह ग्रन्थ भारत और कर्नाटक के इतिहास पर प्रकाश डालता है। भारतीय गणित का अभ्यास करने के लिए यह ग्रन्थ महत्वपूर्ण सन्दर्भ ग्रन्थ है। भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र एवं जीव विज्ञान के विकास का शोध करने के लिए यह ग्रन्थ उपयोगी है। साथ ही यह ग्रन्थ शिल्प एवं प्रतिमा, प्रतीकों इत्यादि के अभ्यास के लिए भी उपयुक्त है। यदि इसमें रामायण, महाभारत, भगवद्गीता, ऋग्वेद एवं अन्य कई ग्रंथों की डी-कोडिंग कर सकें तो उनकी एवं वर्तमान में उपलब्ध अन्य ग्रंथों की तुलना, शोध की दृष्टि से काफी लाभदायक सिद्ध होगी। नष्ट हो चुके अनेक जैन ग्रन्थ भी इस सिरी भूवलय में छिपे हो सकते हैं।

जब इस ग्रन्थ की जानकारी भारत के पहले राष्ट्रपति डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद को मिली, तब उनके सबसे पहले उत्स्फूर्त उद्गार यही थे कि – ‘यह ग्रन्थ विश्व का आठवां आश्चर्य है।’

एक दृष्टि से यही सच भी है। क्योंकि इस संसार के किसी भी देश में कहीं भी कूटलिपि में लिखा गया ‘एक ग्रन्थ में अनेक ग्रन्थ’ जैसा अद्भुत विश्वकोश नहीं मिलता। यह हमारा दुर्भाग्य है कि भारतीय ज्ञान का यह अनमोल खजाना कई वर्षों तक हमारी जानकारी में नहीं था!

और पढ़ें : भारतीय ज्ञान का खजाना-10 (भारत का उन्नत धातुशास्त्र)

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