एक अलौकिक व्यक्तित्व छत्रपति शिवाजी

– श्रीराम आरावकर

ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी विक्रमी संवत 1631 (6 जून 1674) का शुभ दिन। रायगढ़ में जनसमुदाय उत्साह की तरंगों पर मानो झूम कर नृत्य कर रहा था क्योंकि प्रसंग ही अत्यन्त आनन्द का था। आज शाहजी के पुत्र शिवाजी का राज्याभिषेक होने जा रहा था। एक लम्बे अंतराल के पश्चात भारत में किसी स्वतंत्र हिन्दू राजा का राज्याभिषेक होने जा रहा था। सैकड़ों वर्षों से हिन्दू समाज इस्लामिक शासकों के अत्याचारों की चक्की में बुरी तरह से पिस रहा था। आत्मविश्वास विहीन हिन्दू समाज हतबल व गलित गात्र हो चुका था। आपसी फूट के कारण मिली पराजयों ने सम्पूर्ण समाज की कमर तोड़ दी थी। हिन्दू समाज सामर्थ्यहीन तो नहीं था, परन्तु छोटे-छोटे स्वार्थों, आपसी ईर्ष्या तथा व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं जैसे दुर्गुणों के कारण संगठित मुसलमानी सत्ता के समक्ष परास्त हो चुका था। यदा-कदा कुछ हिन्दू राजाओं ने संघर्ष तो किया परन्तु विशेष सफलता नहीं मिल सकी। सतत पराजय के कारण स्थिति अत्यन्त ही दयनीय हो चुकी थी। इस विकट परिस्थिति में बीजापुर के आदिलशाह के अधीनस्थ एक जागीरदार शाहजी के पुत्र शिवाजी ने जब किशोरावस्था में ही अपने चंद सहयोगियों के साथ रोहिडेश्वर महादेव पर रक्ताभिषेक कर हिन्दवी साम्राज्य की स्थापना का संकल्प लिया तो लोगों ने इसे बच्चों का खेल ही समझा था। परन्तु मात्र 16-17 वर्ष की आयु में तोरणा किला जीतकर उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि उनकी आँखों में भविष्य के स्वर्णिम स्वप्न कल्पना मात्र नहीं है अपितु वे तो स्वयं उन सपनों को साकार करने वाला जागरूक कर्मयोगी भी है।

एक सामान्य जागीरदार के पुत्र से लेकर ‘क्षत्रीय कुलावतंस सिंहासनाधीश्वर गो ब्राह्मण प्रतिपालक छत्रपति शिवाजी महाराज’ तक की यह यात्रा कोई अनायास घटने वाली घटना या भाग्य का खेल मात्र नहीं थी। इसके पीछे थी शिवाजी की दूरदृष्टि, अचूक योजकता, साहस, कूटनीतिज्ञता, ध्येय के प्रति समर्पण, उज्ज्वल चरित्र, उदारता, पारखी दृष्टि, लोगों को जोड़ने की कला तथा सतत प्रयत्न जैसे अनेक विशिष्ट गुण। छत्रपति शिवाजी एक सामान्य राजा मात्र नहीं थे। समर्थ गुरू श्री रामदास ने उनका गौरव ‘श्रीमंत योगी और जाणता राजा’ इन शब्दों में किया था जिसका अर्थ था ऐसा राजा जिसका आचरण एक योगी जैसा हो। जाणता राजा का अर्थ है अत्यन्त समझदार, चतुर, परिस्थितियों का सम्पूर्ण आकलन करने में सक्षम राजा। अतः शिवाजी के उन विशेष गुणों के बारे में विचार करना इस लेख में प्रासंगिक ही होगा।

सर्वप्रथम तो शिवाजी एक दृष्टा थे। हिन्दवी साम्राज्य का स्वप्न उन्होंने तब देखा जब दक्षिण भारत में पाँच सबल मुसलमान शासक राज्य कर रहे थे तथा दिल्ली के सम्राट शाहजहां का पुत्र औरंगजेब उसके प्रतिनिधि के रूप में दक्षिण के सूबेदार के रूप में कार्य कर रहा था। इन सबके सीने पर मूँग दल कर उन्होंने हिन्दवी साम्राज्य की स्थापना की। शिवाजी ने इन सभी का मानभंग ही नहीं किया तो इन शासकों की सेनाओं को समय-समय पर परास्त कर हिन्दू साम्राज्य की स्थापना की।

शिवाजी अत्यन्त कुशल राजनीतिज्ञ थे। जब बीजापुर के शासक आदिलशाह ने शिवाजी के पिताजी को गिरफ्तार कर लिया था, तब शिवाजी ने अपनी कूटनीति से दक्षिण के तत्कालीन सूबेदार औरंगजेब का दबाव आदिलशाह पर डलवाकर अपने पिता शाहजी को कारागार से मुक्त कराया।

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शिवाजी ने गनिमी कावा (गुरिल्ला युद्ध) की शुरूआत की। अपनी छोटी सी सेना लेकर उन्होंने हजारों की शत्रु सेना को परास्त किया। बीजापुर का एक अत्यन्त पराक्रमी सरदार था अफजल खान। आदिलशाह के दरबार में उसने बीड़ा उठाया था कि मैं शिवाजी को जिन्दा या मुर्दा आपके दरबार में पेश करूँगा। इसके पश्चात एक विशाल सेना लेकर उसने शिवाजी के इलाके में प्रवेश किया। रास्ते में उसने अनेक मंदिर भी तोड़े। यहाँ तक कि उसने तुलजापुर स्थिति शिवाजी की कुलदेवी का मन्दिर भी तोड़ा। उसने बुत शिकन (मूति भंजक) की उपाधि भी धारण की। वह चाहता था कि शिवाजी जंगल व पर्वतों से निकलकर मैदान में आकर संघर्ष करें जिससे उसे आसानी से हराया जा सके। परन्तु शिवाजी ने अत्यन्त कुशलता से अफजल खान को जावली के जंगल में प्रतापगढ़ के पास समझौते के लिए आने को मजबूर कर दिया। फिर न केवल उसका वध ही किया अपितु आदिलशाह की बड़ी सेना को मार भगाया तथा उसका माल-असबाब भी लूट लिया। सिंहगढ़ की लड़ाई हो या सिद्दी जोहर के आक्रमण के समय पावनखिण्ड दर्रे की लड़ाई, ये सब शिवाजी के गनिमी कावा (गुरिल्ला युद्ध) के ये उत्तम उदाहरण हैं।

शिवाजी अप्रतिम साहसी थे। औरंगजेब के शासन काल में उसका मामा शाइस्ता खान विशाल सेना लेकर पूना आ धमका तथा शिवाजी के लाल महल पर कब्जा जमाकर शिवाजी के राज्य में तबाही मचाने लगा। एक रात शिवाजी ने पूना में स्थित शाइस्ता खान की सेना से घिरे हुये लाल महल पर सैनिकों की छोटी टुकड़ी लेकर हमला कर किया। हमले से घबराकर जब शाइस्ता खान लाल महल की खिड़की के मार्ग से भागने लगा तो शिवाजी ने अपनी तलवार उस पर चलाई। उसके प्राण तो बच गए परन्तु उसके हाथ की तीन उंगलियाँ कट गई। इसके पश्चात जब मुगल सेना ने प्रत्याक्रमण करते हुए शिवाजी का पीछा किया तो पूर्व में ही तैयार ऐसे बैलों को जिनके सिर पर मशालें बांधी गई थी, उन मशालों को जलाकर दूसरी दिशा में भगा दिया। मुगल सेना उन जलती मशालों का पीछा करने लगी तथा शिवाजी अपने सैनिकों सहित सुरक्षित वापस अपने किले में पहुँच गए। बाद में घबराकर शाइस्ता खान पूना छोड़कर वापस लौट गया।

औरंगजेब द्वारा शिवाजी पर विजय पाने के लिये जयपुर के मिर्जाराजा जयसिंह को एक विशाल सेना के साथ भेजा गया। शिवाजी ने मिर्जा राजा जयसिंह को एक ऐतिहासिक पत्र लिखा जिसमें उसे स्वराज्य की सेना का नेतृत्व करने का प्रस्ताव दिया। परन्तु दुर्भाग्य से मिर्जा राजा ने सकारात्मक उत्तर न देते हुए विदेशी व हिन्दू धर्म विरोधी शासक औरंगजेब की ओर से युद्ध किया। मिर्जा राजा के साथ संघर्ष में शिवाजी को काफी हानि सहन करनी पड़ी। उन्हें पुरंदर की अपमान जनक संधि करनी पड़ी। उन्हें अपने 23 किले औरंगजेब को समर्पित करने पड़े तथा औरंगजेब से भेंट करने के लिए आगरा भी जाना पड़ा जहाँ औरंगजेब ने धोखा देकर उन्हें बन्दी बना लिया। परन्तु शिवाजी अपनी कुशल योजना से औरंगजेब को धोखा देकर मिठाई के पिटारों में बैठकर आगरा से अपने पुत्र सम्भाजी के साथ भाग निकले तथा अपने राज्य में पहुँच गये।

शिवाजी का चरित्र अत्यन्त उज्ज्वल था। वे अनुशासनहीनता को बिलकुल भी सहन नहीं करते थे। कल्याण की लूट के पश्चात वहाँ के सूबेदार की बहू को जब शिवाजी के सम्मुख लूट के माल के रूप में प्रस्तुत किया गया तो उन्होंने अपने अधिकारी को कड़ी फटकार लगाई और कहा कि फिर ऐसी गलती कभी भी नहीं होनी चाहिये। यदि हम भी ऐसा ही करेंगे तो हमारे शासन और मुसलमानों के शासन में अंतर ही क्या रहेगा? इसके पश्चात उन्होंने उस महिला को सम्पूर्ण आदर के साथ वापस उसके घर पहुँचाया।

शिवाजी सदैव अन्य मतों व मतावलम्बियों का तथा उनके ग्रंथों का भी सम्मान करते थे। उन्होंने कभी भी किसी ग्रन्थ अथवा उपासना स्थल का अपमान नहीं किया। जिसके परिणाम स्वरूप उनकी सेना में अनेक मुसलमान योद्धा व कर्मचारी भी प्रमुख पदों पर कार्यरत थे। आगरा में जब वे औरंगजेब के बंदी थे तो उनकी सेवा में नियुक्त मदारी मेहतर नामक बालक भी मुस्लिम मतावलम्बी ही था तथा वह उनका अत्यन्त विश्वस्त सेवक था।

शिवाजी एक सफल योद्धा या विजयी राजा मात्र नहीं थे, अपितु वे एक समाज सुधारक भी थे। इस्लाम मजहब में जबरन मतान्तरित उनके ही सेना के पूर्व सेनापति नेताजी पालकर (मोहम्मद कुली खान) जिसे जबरन मुसलमान बनाया गया था तथा अपने ही साले बजाजी निम्बालकर के अतिरिक्त अन्य अनेक लोगों को वापस हिन्दू बनाकर उनकी हिन्दू धर्म में घर वापसी की। यहाँ हमें यह ध्यान देना होगा कि यह घटनाएँ आज से लगभग साढ़े तीन सौ वर्ष पुरानी हैं। उन्होंने उन अनेक मस्जिदों को जिन्हें मन्दिर तोड़कर बनाया गया था वापिस मन्दिरों में बदला।

शिवाजी ने जागीरदारी प्रथा के उन्मूलन का क्रान्तिकारी कदम उठाया। सेना राज्य की रहेगी, सरदारों या जागीरदारों की नहीं, ऐसा नियम उन्होंने बनाया। सरदारों को उनके दायित्वानुसार वेतन व पुरस्कार मिलने थे।

शिवाजी अत्यन्त दूरदर्शी शासक थे। अंग्रेजों के खतरे को उन्होंने पहचाना था तथा इसे ध्यान में रखकर उन्होंने नौसेना का गठन भी किया। एक लम्बे अन्तराल के पश्चात किसी भारतीय राजा ने नौदल तथा सैनिक जहाजों का निर्माण प्रारम्भ किया। शिवाजी ने तटवर्ती क्षेत्र की रक्षा के लिये सिन्धुदुर्ग का निर्माण भी किया।

अपने राज्य का काम-काज अपनी भाषा में ही होना चाहिये, इसका आग्रह रखकर उन्होंने ‘राजभाषा कोश’ का निर्माण भी करवाया। शिवाजी के शासनकाल के आदेश-पत्रों का अध्ययन करने पर यह भी ध्यान में आता है कि पर्यावरण सुरक्षा, किसानों के उपज की सुरक्षा, पशुधन की सुरक्षा आदि की ओर भी उनका समुचित ध्यान था। अर्थात वे कुशल योद्धा के साथ-साथ योग्य प्रशासक तथा लोकप्रिय शासक भी थे। वे रैय्यत (जनता) में अत्यन्त लोकप्रिय थे तथा रायगढ़ के स्वर्ण सिंहासन मात्र पर ही नहीं, अपितु जनता के हृदय सिंहासन पर भी विराजमान थे।

शिवाजी की मुद्रा भी इसी बात का संकेत करती हुई दिखाई देती है, जिस पर अंकित था – “प्रतिपच्चंद्रलेखेव वर्धिष्णु विश्ववन्दिता शाहसूनोः शिवस्यैषा मुद्रा भद्राय राजते” अर्थात प्रतिपदा का चन्द्र जिस प्रकार एक-एक कला से विकसित होते हुए विश्व वन्दनीय हो जाता है, उसी प्रकार शाहजी के पुत्र शिवाजी की इस मुद्रा की कीर्ति भी बढ़ती जाएगी तथा यह राजमुद्रा लोक कल्याण के लिये ही प्रकाशित होती रहेगी।

(लेखक विद्या भारती अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान के अ.भा. महामंत्री है।)

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