पाती बिटिया के नाम-1 (जय शिवाजी!)

 – डॉ विकास दवे

प्रिय बिटिया!

शिवाजी महाराज केवल महाराष्ट्र ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण राष्ट्र के नायक हैं। उनका नाम स्मरण करने मात्र से पूरे शरीर में एक अनूठा रोमांच अनुभव होने लगता है। कई बार तो ऐसा लगने लगता है मानों शिवाजी वास्तविक पात्र न होकर कहीं हमारी कल्पना के महानायक तो नहीं। उनके जीवन की कई घटनाएँ तो इतनी बुद्धिमानी, साहस, वीरता और नीतिपरक हैं कि तुम यदि केवल उन्हीं की जीवन गाथा, उन्हीं का साहित्य अध्ययन प्रारंभ कर दो तो तुम्हारी नन्हीं काल्पनिक दुनियाँ के सारे काल्पनिक पात्र तुमको व्यर्थ लगने लगेंगे। तुम स्वयं महसूस करोगी कि हमारे शिवाजी चाचा चौधरी से बहुत अधिक बुद्धिमान, साबू से बहुत अधिक बलवान और फैण्टम तथा बेताल से बहुत अधिक दुस्साहसी और टार्जन से बहुत अधिक फुर्तिले थे। शिवाजी के व्यक्तित्व निर्माण में कई लोगों की भूमिका रही जिनमें मुख्य भूमिका माता जीजाबाई की रही। एक कवि ने इस सन्दर्भ में ठीक ही कहा है-

हिमालय से

हिन्द महासागर तक का असहृय दर्द

शिवा में साकार हुआ

जीजाबाई ने

रावण से टक्कर हेतु

राम का साहस जगाया।

गुरु कोण्डदेव ने संघर्ष शुभारम्भ को राणमंत्र दीक्षा दी

युगाचार्य समर्थ ने हिन्दीवी स्वराज्य का

शिव को संकल्प दिया

महाकवि भूषण ने

असूर संहार हेतु

वाणी के तप में

कुटिल कृपाण पर

तीखी धार धरवाई।

यही कारण है कि शिवाजी जैसा लोहपुरुष निर्मित हो पाया। उनके अजेय व्यक्तित्व का अन्दाजा हम उनके सबसे बड़े और ताकतवर शत्रु औरंगजेब के इस वाक्य से लगा सकते हैं –

“जैसे सागर के जल की तोल नहीं हो सकती, मध्यान्ह सूर्य की ओर कोई टकटकी लगाकर नहीं देख सकता, अपनी मुटठी में कोई दहकता हुआ कोयला नहीं दबा सकता, वैसे ही मैं इस शिवाजी पर विजय नहीं प्राप्त कर सकता।”

सचमुच उनका युद्धकौशल अनूठा ही था। डच एवं ब्रितानियों के हमलों से सुरक्षा हेतु प्रथम बार नौसेना के गठन का कार्य उन्हीं के तेजतर्रार दिमाग से संभव हुआ था। उनकी शक्ति का अंदाजा इसी बात से लगा सकती हो कि शिवाजी ने 240 दुर्गों पर अधिकार किया था। 111 दुर्गों का निर्माण स्वयं उन्होंने अपनी देखरेख में करवाया था, इनमें 71 दुर्ग मद्रास में थे और 50 पुराने थे। इन दुर्गों को निर्माण के बाद या विजय के बाद जो नाम दिए गए वे अपनी भारतीय हिन्दु संस्कृति के परिचायक थे। दुर्गों के मुगल कालीन नामों को गुलामी का प्रतीक मानकर उनके नवीन नामकरण का कार्य शिवाजी ने गौरव की बात मानकर किया। स्वाभाविक बात है उस समय आज जैसे ओछी मानसिकता के नेता नहीं थे अन्यथा उनके इन नामों को भी साम्प्रदायिक दृष्टिकोण का घोषित कर देते।

क्या तुम एक बानगी देखना चाहोगी दुर्गों के आकर्षक नामों की? तुम भी देखो –  प्रचण्डगढ़, प्रकाशगढ़, प्रचितगढ़, प्रतापगढ़, प्रबलगढ़, प्रवालगढ़, प्रसन्नगढ़, प्रसिद्धगढ़, भूधरगढ़, भूपालगढ़, भूमण्डगढ़, भूषणगढ़, महिमतागढ़, महिमण्डनगढ़, वल्लभगढ़ वर्धनगढ़, वज्रगढ़, वसंतगढ़, वन्दनगढ़, विशालगढ़, विश्रामगढ़, अंकोला, करवार,तोरण,पाण्डवगढ़, पुरन्दर, रामगढ़, रायगढ़, लौहगढ़, पन्हाला, शिवनेर, शिवेस्वर, सिन्धुदुर्ग और सिंहगढ़।

सिंहगढ़ को जितने के लिए तो शिवाजी ने अपना एक वीर विश्वस्त साथी खो दिया था तभी तो उनके हृदय से उद्गार निकले थे- ‘गढ़ आला पण सिंह गेला’ अर्थात् गढ़ तो आ गया किन्तु सिंह चला गाया। इस बार तो पत्र में केवल भूमिका है। आगे तुम चर्चा सुनोगी उन सिपहसलारों की जो आज भी हमें प्रेरणा देते हैं। साथ ही चर्चा होगी हमारे शिवाजी के सैन्य सिद्धांतों की, सैन्य बनावट की और सैन्य शक्ति की तो प्रतीक्षा करना अगले पत्रों की और तब तक हम अपने प्रिय नायक शिवा की जय-जयकार करते हुए उनके आदर्शों को अपनाने का प्रयास करते रहें।

जय शिवाजी जय भवानी।

 – तुम्हारे पापा

(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ सर्वाधिक प्रसारित बाल मासिक पत्रिका के संपादक है।)

और पढ़ें : छत्रपति शिवाजी : आदर्श जीवन-मूल्यों के शाश्वत प्रेरणास्रोत – जयंती विशेष

 

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