संत कबीर का शिक्षा-दर्शन

 – डॉ. वन्दना शर्मा

 

हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल में संत कबीर प्रेम-प्लावित ज्ञानदीप लेकर एक शक्ति पुंज के रूप में अवतरित हुए। उन्होंने अपनी वाणी को माध्यम बनाकर सदाचरण, विश्व-शान्ति, मानव एवं मानवेतर प्राणी-कल्याण, प्रेम, दया तथा करुणा जैसे आदर्शों व मूल्यों की शिक्षा समस्त मानव-जगत को प्रदान की है। उन्होंने जीवन के यथार्थ एवं तद्जन्य अनुभवों के परिप्रेक्ष्य में मानवानुकूल शिक्षा-दर्शन की प्रतिष्ठा की है।

वर्तमान में अर्थाजन में सहायक ज्ञान को ही शिक्षा का पर्याय मान लिया गया है जो कि खेदजनक स्थिति है। वस्तुतः शिक्षा वह है जो मनुष्य का व्यक्तिगत तथा सामाजिक विकास करे। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है अतः शिक्षा भी एक सामाजिक प्रक्रिया है।

कबीर ने पुस्तकीय ज्ञान की अपेक्षा प्रेम, करुणा और संवेदनशीलता जैसे मानवीय गुणों को सर्वोपरि माना है। उनके मतानुसार कोरा पुस्तकीय ज्ञान व्यक्ति को एकांगी दृष्टिकोण से युक्त करता है जबकि जीवन के लिए सर्वाधिक महत्ता उदात्त मानवीय गुणों की है। जो ज्ञान प्रेम से रहित हो, वह वस्तुतः त्याज्य है। इनके अनुसार प्रेमभाव ही व्यक्ति में माननीय मूल्यों का प्रतिष्ठापक है –

पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुवा, पंडित भया न कोई।

एकै आखर प्रेम का, पढै़ सु पंडित होई।।

पढ़ि-पढ़ि के पत्थर भया, लिखि-लिखि भया जु ईंट।

कहै कबीरा प्रेम की, लगी न एकौ छींट।।

आज की शिक्षा व्यवस्था मनुष्य को एक यंत्रवत जीवन शैली व मानसिकता का दास बना रही है जिसकी वजह से एक स्वस्थ व्यक्ति व समाज के निर्माण की प्रक्रिया बाधित हो रही है। बढ़ती स्वार्थपरता एवं उसकी परिणतिस्वरूप होने वाले अपराधों का बढ़ता हुआ ग्राफ इसी ओर संकेत करते हैं। यहाँ प्रश्न उठता है कि प्रेम का पाठ कौन पढ़ाता है? उत्तर है ‘सद्गुरु’। सद्गुरु ही अज्ञान के अंधकार को विनष्ट कर ज्ञान के प्रकाश से हमारा साक्षात्कार करवाता है, किन्तु यह ध्यातव्य है कि यदि गुरु व शिष्य दोनों ही अयोग्य तथा मूढ़ हों तब वे लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकते। जैसे एक नेत्रहीन व्यक्ति दूसरे नेत्रहीन व्यक्ति का पथ-प्रदर्शन नहीं कर सकता ठीक इसी प्रकार अज्ञानी गुरु भी शिष्य का मार्गदर्शन नहीं कर सकता है। ऐसे गुरु एवं शिष्य संसाररूपी कूप में गिरकर नष्ट हो जाते हैं –

जाका गुरु भी अंधला, चेला खरा निरंध।

अंधै अंधा ठेलिया, दोन्यूँ कूप परंत।।

वर्तमान में भी हम देखते हैं कि अध्यापक अथवा विद्यार्थी दोनों अथवा दोनों में से कोई एक भी यदि सुयोग्य न हो तो विकास क्रम रुक जाता है। वास्तव में नैतिक मूल्य ही जीवन को उद्देश्यपूर्ण बनाते हैं। ‘शिक्षा’ शब्द अर्थव्याप्ति से युक्त शब्द है अतः इसे केवल औपचारिक शिक्षा से जोड़कर नहीं देखा जा सकता है। शिक्षा से अभिप्राय जीवन के सर्वांगीण विकास से है। जीवन के समस्त पक्षों का सामंजस्यपूर्ण विकास ही शिक्षा का उद्देश्य है। ‘प्रत्यक्ष अनुभव’ को कबीर ने अत्यन्त महत्त्व दिया है। ‘सुनी-सुनाई’ अथवा ‘लिखी-लिखाई’ बात की जगह ‘प्रत्यक्ष अनुभव’ व्यक्ति के विकास हेतु आवश्यक है। इस संदर्भ में वे कहते हैं

मैं कहता आँखिन की देखी, तू कहता कागद की लेखी।

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शिक्षा प्रणाली में जिस ‘कौशल-विकास को अब अपनाने पर बल दिया जा रहा है वह कहीं न कहीं इसी तथ्य से जुड़ा हुआ है जो रटे-रटाए ज्ञान के स्थान पर स्वयं की उद्यमिता एवं अनुभव को महत्त्व देता है। केवल पुस्तकीय ज्ञान से प्राप्त डिग्रियाँ बेरोजगारी की दर बढ़ाती हैं। कौशल विकास निश्चित रूप से शैक्षिक गुणवत्ता में सुधार जाएगा।

शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य का संपूर्ण विकास है। वर्तमान शिक्षा प्रणाली जीवन के एक पक्ष पर बल देती है। हमारा पाठ्यक्रम एक संकुचित ढाँचे में बँधा रहता है। जीवन की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति मात्र उसका उद्देश्य है। एक स्वस्थ मन तथा समाज हेतु हमें ऐसी शिक्षा-प्रणाली की आवश्यकता है जो सही अर्थों में व्यक्तित्व का उन्नयन कर सके। हमें सादा जीवन, उच्च विचार वाली सूक्ति पर अमल करना चाहिए।

थोड़े में ही संतोष करने की वृत्ति वस्तुतः हमें अनैतिक कर्मों से भी विमुख करती है। यही वृत्ति हमें भगवद्-भजन की ओर भी प्रेरित करती है क्योंकि हम विषय-वासनाओं से अछूते बने रहते हैं। सादा जीवन का अर्थ किन्तु आलस्य नहीं है वरन् अधिक परिश्रम करने पर भी थोड़े में ही सन्तुष्ट होने का मूल मन्त्र है। वर्तमान परिस्थितियों में तो सादा जीवन बहुत बड़ी आवश्यकता है क्योंकि नैतिकता की अन्धी दौड़ में लक्ष्यहीन दौड़ रहा वर्तमान समाज अनैतिक कृत्यों में लिप्त हो गया है। विषय-वासनाओं के आकर्षण में फँसा मनुष्य अन्ततः अनैतिक कार्य-कलापों से अपने सर्वनाश को ही आमन्त्रण देता है। कबीर के शब्दों में –

खूब खाँड है खीचड़ी, माँहि पड़ै टुक लूंण।

पेड़ा रोटी खाई करि, गला कटावै कौंण।।

मृगतृष्णा के पीछे भागने वाला मनुष्य कभी भी मानसिक सुख-शांति प्राप्त नहीं कर पाता। वर्तमान शिक्षा-प्रणाली मानसिक शांति देने में समर्थ नहीं है। ‘निन्यानवे’ के फेर में पड़ा व्यक्ति जीवन के आधारभूत सिद्धान्तों की उपेक्षा कर अन्ततः पछताता है। भौतिकता के चंगुल में फँसा आज का समाज अपने शैक्षिक मूल्यों को विस्मृत कर निरन्तर विनाश की ओर बढ़ता चला जा रहा है।

संत कबीर का शिक्षा-दर्शन

वस्तुतः कबीर का संपूर्ण साहित्य भारतीय मानवीय मूल्यों की रक्षा करने वाला तथा भारतीय शिक्षा दर्शन को नवीन आयाम देने वाला है। कबीर के मानव कल्याणकारी विचार व नैतिक आदर्शां को भारतीय शिक्षा व्यवस्था में सम्मिलित करके समाज में एक नवीन चेतना उत्पन्न की जा सकती है जो वर्तमान की महती आवश्यकता है। कबीर साहित्य शैक्षिक मूल्यों का वह सागर है जिसमें अनन्त मूल्य-मणियाँ निवास करती हैं। जीवन एवं जगत के सार्थक विकास हेतु इन मूल्यों का उचित निर्वहन अत्यावश्यक है। ये मूल्य काल-निरपेक्ष हैं जो युगों-युगों तक विश्व का मार्गदर्शन करते रहेंगे। आवश्यकता इस बात की है कि इन मूल्यों को जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं के समान ही महत्त्व प्रदान किया जाए।

(लेखिका सामाजिक तथा सांस्कृतिक विषयों की अध्येता है और भारतीय विद्या भवन विद्याश्रम, जयपुर में हिन्दी अध्यापिका के पद पर कार्यरत है।)

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