भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात-36 (राष्ट्रगत विकास)

 – वासुदेव प्रजापति

व्यष्टि और समष्टि के सम्बन्धों के अन्तर्गत हमने व्यक्ति और परिवार तथा व्यक्ति और समाज के सम्बन्धों को जाना। आज हम व्यक्ति और राष्ट्र के सम्बन्धों को जानेंगे। इन सम्बन्धों को जानने से पूर्व हम राष्ट्रधर्म से सम्बन्धित एक प्रेरक-प्रसंग से प्रेरणा प्राप्त करेंगे।

शंकराचार्यजी का राष्ट्रप्रेम

यह प्रसंग सन् 1925 ई.का है। उस समय हमारे देश पर अंग्रेजों का राज्य था। उस वर्ष ब्रिटेन के युवराज प्रिंस ऑफ वेल्स भारत आए। ब्रिटिश सरकार चाहती थीं कि भारत की जनता ब्रिटेन के युवराज का भगवान की तरह श्रद्धा-भक्ति के साथ उनका स्वागत व सम्मान करे तथा वे जहाँ -जहाँ जाऍं, वहाँ के लोग उनके स्वागत में अपने पलक-पाँवड़े बिछा दें।

ब्रिटिश सरकार जानती थीं कि भारत की जनता धर्मपरायण है और अपने धर्माचार्य के आदेश का पालन करने में सदा तत्पर रहती है। अतः सरकार ने पुरी के शंकराचार्य स्वामी भारतीकृष्णतीर्थ को एक पत्र लिखा। उस पत्र में उन्होंने लिखा कि आप हिन्दू सिद्धांत में राजा को भगवान विष्णु का प्रतिनिधि मानते हैं। इसलिए अपने सभी अनुयायियों से कहिए कि वे युवराज वेल्स को भगवान का प्रतिनिधि मानकर उनका स्वागत करें। आप इस आशय का एक आदेश जारी करें।

पूज्य शंकराचार्य स्वामी भारतीकृष्णतीर्थ ने वह पत्र पढ़ा और निर्भीकता पूर्वक उसका उत्तर दिया – “अंग्रेज विदेशी हैं, वे हमारे प्रजापालक राजा नहीं हैं। जिन्होंने हमारी भारतमाता को छल-कपट से गुलाम बना रखा है, उन्हें भगवान विष्णु का प्रतिनिधि कैसे घोषित किया जा सकता है?”

ब्रिटिश सरकार शंकराचार्यजी के उत्तर से क्रोधित हो गई, उसने स्वामीजी को जेल में डाल दिया और उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया। स्वामीजी ने जेल की यातनाएँ सहना स्वीकार किया परन्तु ब्रिटिश सरकार की छल-कपट पूर्ण बात को मानना स्वीकार नहीं किया। इसे कहते हैं विशुद्ध राष्ट्रप्रेम।

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हमारी राष्ट्र की संकल्पना

हम देश और राष्ट्र दोनों शब्दों का प्रयोग करते हैं, परन्तु इन दोनों शब्दों के अर्थ में थोड़ा अन्तर है। देश एक शासकीय इकाई है, जबकि राष्ट्र एक सांस्कृतिक इकाई है। देश की अपेक्षा राष्ट्र की संकल्पना अधिक व्यापक है।

एक भूभाग, उसमें निवास करने वाला समाज, उस समाज के व्यवहार को प्रेरित करने वाली संस्कृति और उसकी सभी व्यवस्थाओं को संचालित एवं नियंत्रित करने वाला शासन, उसके पर्वत, नदियाँ, अरण्य, समुद्र तथा उसको वैचारिक आधार देने वाला जीवन दर्शन, इन सब से मिलकर राष्ट्र बनता है। इस अर्थ में राष्ट्र एक बहुआयामी और विविध आयामी इकाई है। व्यक्ति जब सामाजिक स्तर से ऊपर उठकर राष्ट्र के साथ समरस होता है तब हम उसका राष्ट्रगत विकास हुआ मानते हैं।

हमारा भूमि से नाता

राष्ट्र का एक घटक भू-भाग है। भू-भाग अर्थात् भूमि का एक भाग अर्थात् उस राष्ट्र की भौगोलिक सीमाएँ। भारत हमारा राष्ट्र है, इसकी भौगोलिक सीमाएँ उत्तर में हिमालय पर्वत तथा शेष तीनों ओर समुद्र से बनती है। हमारा इस भूमि से माता और पुत्र का सम्बन्ध है। हम भारत राष्ट्र को भारतमाता कहकर पुकारते हैं। इसकी स्तुति करते हैं, इसकी कृपा चाहते हैं और इसकी रक्षा करने के लिए अपने प्राणों को न्यौछावर करने हेतु सदा कटिबद्ध रहते हैं। हिमालय हमारे लिए देवतात्मा है, इसकी पवित्र नदियाँ हमारी माताएँ हैं और हिन्दू महासागर भारतमाता के चरण पखारता है। हमारी मातृभूमि भारतमाता लक्ष्मी, सरस्वती व दुर्गा का समवेत स्वरूप है। भू-भाग को माता मानना देशभक्ति है और यही देशभक्ति राष्ट्रगत विकास का आधारभूत आयाम है।

कृतिशील देशभक्ति

देशभक्ति जब हमारे कार्यों में प्रकट होती है, तब उसे कृतिशील देशभक्ति कहते हैं। कृतिशील देशभक्ति से हम आर्थिक समृद्धि की रक्षा करते हैं और उसमें वृद्धि करते हैं। देश की रक्षार्थ सदा तत्पर रहते हैं। हम ऐसा कोई भी काम नहीं करते जिससे देश की हानि हो। भारतवासी कहलाने में गौरवान्वित होते हैं। ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में हमारा देश अग्रणी हो इसलिए अध्ययन व अनुसंधान करते हैं। कला, साहित्य व उद्योग के क्षेत्र में हमारे देश का विकास हो, इस हेतु से हम उद्यमशील बनते हैं। जब देश का प्रत्येक व्यक्ति कृतिशील देशभक्ति प्रकट करता है, तब विश्व में हमारे देश की प्रतिष्ठा, सम्मान व गौरव बढ़ता है।

शासन का सहयोग करना

राष्ट्र शासन व प्रशासन से चलता है। जब व्यक्ति का राष्ट्रगत विकास होता है, तब वह शासन और प्रशासन की सभी व्यवस्थाओं में सहयोग करता है। उदाहरण के लिए कानूनों का पालन करना, अपने मताधिकार का यथोचित उपयोग करना, सार्वजनिक तथा सरकारी सम्पत्ति की सुरक्षा करना, न्यायतंत्र एवं दंडविधान का सम्मान करना।

इसी प्रकार भारतीय संविधान को पवित्र मानना और उसका उल्लंघन नहीं करना। राष्ट्रध्वज, राष्ट्रभाषा व राष्ट्र चिह्न का न अपमान करना और न करने देना। आज हमारे देश में कुछ लोग इन बातों का पालन नहीं करते। इसका सीधा सा अर्थ है कि उनमें अभी तक राष्ट्रगत विकास का अभाव है।

प्रत्येक राष्ट्र की कुछ परम्पराऍं होतीं हैं, उन परम्पराओं का पालन करना, हमारे पूर्वजों के प्रति श्रद्धा व गौरव का भाव रखना, हमारे श्रद्धा केन्द्रों के प्रति पूज्य भाव रखना भी राष्ट्रगत विकास का परिचायक है।

राष्ट्र जीवन के अंग धर्म व संस्कृति

धर्म व संस्कृति राष्ट्र जीवन के प्रमुख अंग हैं। राष्ट्र जीवन का आधार एक ओर धर्म है तो दूसरी ओर संस्कृति है। धर्म ही राष्ट्र को धारण करता है, अतः धर्ममय जीवन जीना सबके लिए करणीय है। धर्म पूजा-पद्धति नहीं, सम्प्रदाय नहीं, व्रत-त्योहार नहीं, धर्म तो विश्व को धारण करने वाली सर्वव्यापक, सर्वसमावेशक और शाश्वत व्यवस्था है। इसका पालन करना व्यक्ति, समाज व राष्ट्र सबके लिए हितकारक है।

दूसरा आधार है, संस्कृति। भारतीय संस्कृति को ठीक से जानना, उसे अपना मानना और अपने व्यवहार से उसे समृद्ध बनाना हमारा कर्तव्य है। संस्कृति का आधार जीवनदर्शन होता है। यह जीवनदर्शन हमारे विचार, भावना और व्यवहार का आधार है। इस जीवनदर्शन को आत्मसात करना और उसके अनुसार अपना व्यवहार बनाना ही हमारा राष्ट्रीय स्तर का विकास है।

राष्ट्रगत विकास के लिए भारतीय शिक्षा होना आवश्यक है। वास्तव में राष्ट्र भक्ति जीवन के सभी क्रिया-कलापों में इस प्रकार से अनुस्यूत होनी चाहिए जैसे दाल में नमक, शरीर में प्राण और शब्द में अर्थ। जब विद्यालयों में पढ़ाए जाने वाले सभी विषय यथा- इतिहास, भूगोल, नागरिक शास्त्र, कला- साहित्य आदि राष्ट्र जीवन को आत्मसात करने के लिए पढ़ाने जाते हैं, तब ही देश की भावी पीढ़ी में राष्ट्रगत विकास होना संभव होता है।

(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सह सचिव है।)

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