– वासुदेव प्रजापति
इससे पूर्व हमने व्यष्टि, समष्टि, सृष्टि व परमेष्ठी नामक चारों संज्ञाओं का अर्थ समझा। समष्टि के चार चरण – परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व हैं, यह जाना। व्यक्ति जीवन इन चारों के बिना नहीं चल सकता, इसलिए व्यक्ति का इनके साथ सामंजस्यपूर्ण सम्बन्ध स्थापित होना आवश्यक है। गतबार हमने व्यक्ति और परिवार के सम्बन्धों का महत्त्व जाना, आज हम व्यक्ति और समाज के सम्बन्धों को समझेंगे। किन्तु उससे पहले समाज से सम्बन्धित एक छोटी-सी कथा के मर्म को जानेंगें।
वह समाज मुर्दा है
एक गरीब लड़का था, वह पैदल जा रहा था। चलते-चलते उसके पैर में काँटा चुभ गया। काँटा जहरीला था, दर्द से सारा शरीर कराह उठा। अंगुलियाँ उस कांटे को धीमें से खींचने लगी, काँटा तो निकल गया परन्तु उसकी नोंक पैर में ही रह गई। पैर पक गया और असहनीय दर्द होने लगा। वह रोता-रोता वैद्य के पास गया, वैद्य ने रोने का कारण पूछा तो उसने बताया पैर में काँटा चुभ गया है।
वैद्य ने दर्द से ध्यान हटाने के लिए उससे विनोद किया, काँटा तो तुम्हारे पैर में लगा है फिर तेरी ऑंखें क्यों रो रही हैं? लड़का समझदार था, उसने उत्तर दिया – वैद्यजी! पैर का दर्द आँखों के पास तो पहुँचेगा ही। क्यों? पैर अलग है और आँख अलग है। ये भले ही अलग-अलग हैं परन्तु शरीर तो एक है। वैद्यजी बालक के उत्तर से प्रभावित हुए और बोले – तो क्या शरीर के दूसरे अंगों को भी दर्द हो रहा है? हाँ, देखो न! दो दिन से मेरे मुख ने खाना छोड़ रखा है, मेरे कानों ने संगीत सुनना बंद कर दिया है और मन को कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा है।
अब वैद्यजी उसकी समझ को स्पष्टता देने लगे, देखो! हमारा शरीर एक इकाई है, इसके सभी अंग परस्पर जुड़े हुए हैं। एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं और एक-दूसरे से प्रभावित होते हैं। एक जीवित शरीर का यही लक्षण है कि जब किसी भी एक अंग को पीड़ा होती है तो उसकी अनुभूति सभी अंगों को होती है। इसीलिए तुम्हारे सभी अंग दुखी हुए हैं। जब यह वार्तालाप चल रहा था, तब वैद्यजी साथ ही साथ उसके पके हुए पैर में से पीब भी निकालते जा रहे थे। पीब निकलने के साथ वह काँटे की नोंक भी निकल गई और पैर का दर्द कम हो गया। अब वैद्यजी ने उससे पूछा – कैसा लग रहा है? अब तो अच्छा लग रहा है। मुँह कुछ खाने को माँग रहा है, कान कुछ अच्छा सुनना चाहते हैं और मन भी प्रसन्न है।
अब वैद्यजी उसे मूल बात समझाने लगे – जो नियम इस शरीर का है, वही नियम हमारे समाज का है। जैसे शरीर का कोई अंग बीमार होता है तो उसका असर दूसरे अंगों पर पड़ता है। ठीक वैसे ही समाज का एक कारीगर या कुटुम्ब कमजोर होता है तो उसका असर दूसरे कारीगरों व कुटुम्बों पर पड़ता है, और सारा समाज ही कमजोर हो जाता है। उस बालक के मन में प्रश्न उठा, उसने पूछा वैद्यजी! मुझे तो गरीबों का दुख-दर्द अमीरों तक पहुँचता दिखाई नहीं देता? इस पर वैद्यजी ने यह कहकर समाधान किया कि जिस तरह एक मुर्दे शरीर में सुख-दुख की अनुभूति नहीं होती, ठीक वैसे ही किसी समाज के सभी वर्गों में यदि सुख-दुख की समान अनुभूति नहीं होती तो इसका सीधा सा अर्थ है कि वह समाज भी मुर्दा है। अतः आवश्यक है कि समाज बोध की अनुभूति सबको समान होनी चाहिए।
समाज से हमारा तात्पर्य
व्यक्ति से बड़ी इकाई परिवार, परिवार से बड़ी इकाई समाज, इतना कहने मात्र से समाज कहते किसे हैं? यह स्पष्ट नहीं होता। आओ! इस स्पष्टता को समझें। व्यक्ति जैसे ही अपने परिवार से आगे बढ़ता है, वैसे ही उसके पड़ौसी मिलते हैं, उसके मित्र मिलते हैं, विद्यालय में उसके सहपाठी मिलते हैं, उसकी जाति के लोग मिलते हैं, उसके व्यवसाय के सहकर्मी मिलते हैं, और आगे बढ़ते हैं तो गाँव या नगर के ग्रामवासी या नगरवासी मिलते हैं। इन सबसे मिलकर समाज बनता है। एक परिवार में तो एक ही जाति, एक ही गोत्र के तथा एक ही भाषा बोलने वाले लोग होते हैं, परन्तु एक समाज में विभिन्न जाति, सम्प्रदाय, व्यवसाय, रीति-रिवाज तथा भिन्न-भिन्न भाषा बोलने वाले लोग होते हैं। ऐसे समाज में अनेक कुल होते हैं, अनेक गोत्र होते हैं। इन सबसे मिलकर समाज बनता है।
जैसे व्यक्ति का व्यक्तिगत जीवन होता है, पारिवारिक जीवन होता है वैसे ही उसका सामाजिक जीवन होता है। हमारे देश में हजारों वर्षों से समाज व्यवस्था बनी हुई है। हमारी समाज व्यवस्था की एक विशेषता यह है कि समाज की मूल इकाई परिवार है, व्यक्ति नहीं। अन्य देशों में व्यक्ति को अधिक महत्त्व दिया गया है, किन्तु भारत में व्यक्ति से परिवार को अधिक महत्त्व दिया गया है। इसका आशय यह है कि व्यक्तित्व के विस्तार का आरम्भ परिवार से होता है और परिवार भावना का विस्तार ही सामाजिक भाव को जगाता है। तथा आगे के सभी स्तरों के विकास का आधार यही परिवार भाव बनता है।
सामाजिक दायित्व बोध
ऐसे समाज के साथ आत्मीयता से जुड़ना, यह सामाजिक विकास का प्रथम चरण है। मैं समाज का एक अंग हूँ, यह समाज मेरा है इस भाव के साथ समाज से समरस होना तथा समाज को सुदृढ़ करने के लिए कुछ आवश्यक व्यवस्थाओं, यथा- पानी, हवा, जल निकासी, स्वच्छता, चिकित्सा, शिक्षा आदि सर्वजन को सुलभ करवाना, उनको बनाए रखना और इनका अनुशासन पूर्वक उपयोग करना ही सामाजिक दायित्व का बोध होना है।
आज इस धारणा में अन्तर आ गया है। सभी सार्वजनिक व्यवस्थाओं को पूर्ण करने का दायित्व सरकार का है। सरकार ही सभी व्यवस्थाओं को बनाए रखेंगी। ऐसा सब लोग मानते हैं परन्तु हमारे देश के मूल विचार में यह दायित्व सरकार का नहीं, अपितु धनिकों का है। धनिक वर्ग को ये सभी व्यवस्थाऍं सम्पन्न करवानी चाहिए। धनिक वर्ग अपने धन का एक भाग सर्वजन समाज के उपयोग हेतु जलाशय बनवाने में, धर्मशालाएं बनवाने में, सदाव्रत खोलने में, चोपाल बनवाने में, मंदिर और विद्यालय बनवाने में खर्च करता था। समाज के किसी व्यक्ति को भूखा न सोना पड़े इसकी चिंता समाज का प्रत्येक व्यक्ति करता था। अर्थात् धनिक वर्ग का यह दायित्व था कि वह सामाजिक व्यवस्थाओं की कमी न आने दें और शेष समाज धनिकों के लिए आवश्यक उत्पादन करें।
समाज के विभिन्न व्यवसाय
समाज की अनेक भौतिक आवश्यकताऍं होती हैं, उन आवश्यकताओं की पूर्ति होनी चाहिए। इस हेतु विभिन्न व्यवसाय निर्मित किए गए, जैसे – कृषि, गोपालन, कला-कारीगरी, उद्योग-धन्धे, व्यापार आदि। इन विभिन्न व्यवसायों में से अपनी रुचि, क्षमता और संस्कार के अनुसार एक व्यवसाय चुनना, उसे सीखना, उसमें कुशलता अर्जित करना और उसे समाज के लिए करना। उससे जो धन प्राप्ति होती है, उसे समाज देवता का प्रसाद मानकर ग्रहण करना। उस प्रसाद को सबके साथ बाँट उसका उपभोग करना, प्रत्येक व्यक्ति का सामाजिक दायित्व है।
प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन के लिए अन्न, जल, वायु,घर तथा वस्त्रादि की आवश्यकता होती है। अकेला व्यक्ति ये सभी आवश्यकताएँ स्वयं पूरी नहीं कर सकता, समाज उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। समाज के गरीब से गरीब व्यक्ति को भी इन आवश्यकताओं के लिए किसी के आगे हाथ न फैलाने पड़े, ऐसी आदर्श व्यवस्था समाज में होनी चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति अपना-अपना कर्तव्य समझकर इन व्यवसायों को समाज सेवा के भाव से करे तो ऐसी आदर्श व्यवस्था सहज में खड़ी की जा सकती है।
सामाजिक चेतना के केन्द्र
समाज में अनेक संस्कार देने के स्थान होते हैं। जैसै – देवस्थान, मठ, आश्रम, विद्यालय, सार्वजनिक पुस्तकालय व वाचनालय आदि। समाज को इन केन्द्रों से मार्गदर्शन एवं प्रेरणा मिलती है, इनसे समाज में चेतना जाग्रत रहती है। इसलिए इन केन्द्रों को सामाजिक चेतना के केन्द्र कहते हैं। ये शिक्षा व संस्कार के केन्द्र भी हैं, अतः इनका पोषण करना, इनके प्रति श्रद्धा व भक्ति रखना सामाजिक विकास का द्योतक है।
आज इनके प्रति भी धारणा बदल गई है। इनमें से कुछ तो सरकार के नियंत्रण में है और कुछ व्यक्तिगत सम्पत्ति बन गई है। इनका उद्देश्य भी सामाजिक चेतना जगाने के स्थान पर व्यक्तिगत स्वार्थ पूर्ति बन गया है। हमारा कर्तव्य है कि हम इन्हें सामाजिक चेतना के केन्द्र के रूप में पुनः प्रतिष्ठित करें।
समाज की श्रेष्ठ परम्पराऍं
समाज में अनेक सामाजिक परम्पराएं होती हैं, जो समाज में जीवन्तता बनाए रखती है। जैसे – पर्व, त्योहार, उत्सव, मेले आदि। ये सब मिलजुल कर मनाए जाते हैं। इनको मनाने की कुछ सार्वजनिक पद्धतियाँ होती हैं। सभी पर्वों और उत्सवों में अर्थदान, अन्नदान और देव-दर्शन जुड़ा हुआ है। अनेक उत्सवों के साथ सत्संग, कीर्तन, कथा-श्रवण भी जुड़े रहते हैं। जैसे- यज्ञ-हवन, रामकथा, भागवत कथा, स्थानीय मेले और कुम्भ का विराट मेला आदि समाज जीवन में आनन्द, उल्लास, समरसता, संस्कार व पोषण आदि मिले इस हेतु से सम्पन्न होते हैं।
अतः इन श्रेष्ठ परम्पराओं का ज्ञानयुक्त व श्रद्धापूर्वक पालन करना हमारा कर्तव्य है। जब इनका ज्ञानयुक्त पालन होगा तब इनमें युगानुकूल परिवर्तन होता रहेगा, ये समय-समय पर परिष्कृत होती रहेंगीं। यदि इन परम्पराओं का अन्धानुकरण होगा तो ये कर्मकांड बनकर रह जायेंगीं, इनमें विकृतियां आयेंगीं और समाज कमजोर होगा। समाज को कमजोर नहीं होने देना, प्रत्येक व्यक्ति का सामाजिक दायित्व है।
सार रूप में कहा जाय तो समाज के साथ आत्मीयता, समरसता, समाज के प्रति श्रद्धा व सेवा का भाव, समाज के प्रति दायित्व बोध, समाज के लिए व्यवसाय और समाज की श्रेष्ठ परम्पराओं का पालन करना ही समाजगत विकास है। इस समाजगत विकास को ध्यान में रखकर ही विद्यालयों में पाठ्यचर्या की योजना करनी चाहिए।
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सह सचिव है।)