गुरु आश्रम की ओर

✍ गोपाल माहेश्वरी

प्रातःकाल पाँच बजने को थे कि घर में खटर-पटर की आवाजों से गौरव की नींद टूट गई। उसे पता था दादा जी- दादी जी जल्दी जागते हैं लेकिन आज तो सारा घर ही उनके साथ जागा-सा लग रहा था। उसने चादर से मुँह निकाला तो देखा न दादी बिस्तर पर थी न दादाजी, फिर भी उसका मन उठने का न हुआ। “गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती ….” श्लोक की ध्वनि स्नानघर से आ रही थी, मतलब दादाजी नहा रहे हैं। और “जाग जाग जमुना महारानी दुनिया दर्शन आई जी, जाग जाग हरि की पटरानी दुनिया दर्शन आई जी।।” मधुर प्रभाती के स्वर दादी के कंठ से फूटकर पूजा घर से आ रहे थे।

“दादी जी! देखो पिता जी बगीचे से कितने सारे फूल लाए हैं, मैं नहा ली हूँ इनकी माला बना दूँ?” गरिमा का स्वर सुनकर गौरव सोचने लगा “अरे चिड़िया से पहले ये मुनिया जाग गई और नहा भी ली!!” फिर जैसे अपने आप को टोका “अरे! जाग जा गौरव! आज अवश्य कोई विशेष बात है जो सारा घर अभी से तैयार हो गया है। उठ नहीं तो तू ही  रह जाएगा फसड्डी।” तभी माँ उधर आई और उसे चादर ओढ़े पर हाथ पैर हिलाते देख बोली “जागो मोहन प्यारे!” गौरव को माँ लाड़ से मोहन प्यारे कह कर ही उठाती थी। वह चटपट उठ बैठा। पहले धरती माता को फिर सामने लगे गोवर्द्धनधारी श्रीकृष्ण जी के चित्र को प्रणाम किया। दादा जी नहा कर आ गए थे, धोती बाँध रहे थे, उन्हें, फिर दादी जी और माता पिता को प्रणाम किया। छोटी बहिन गरिमा ने उसे हाथ जोड़कर “जय श्रीकृष्ण” कहा, उसे जय श्रीकृष्ण कह कर उत्तर दिया और फटाफट नहा-धोकर तैयार होने निकल पड़ा।

थोड़ी देर बाद घर के सामने एक ताँगा रुका। हर में अब ताँगे नाममात्र को ही बचे थे पर घर में कार होने पर भी इस परिवार के लोग कभी कभी ताँगे की सवारी ही मँगवा लेते थे। द्वार पर ताँगा तो विशेष हर्षमय आश्चर्य का कारण बन गया था गौरव के लिए। माँ ने फल-फूल मिठाई से भरी डलियाएँ रखीं। गौरव ताँगेवाले के पास आगे बैठा शेष परिवार पीछे।

‘सद्गुरुदेव भगवान की जय’ के घोष के साथ ताँगा चल पड़ा। घोड़े की लयबद्ध टापों और घुँघरुओं की आवाज से सूर्योदय के कुछ पूर्व का वातावरण अद्भुत अनुभव करा रहा था। शीतल पवन, फूलों की सुगंध चिड़ियों की चहचहाहट और पूरब में देखते ही देखते गहराता केसरिया प्रकाश। कुछ ही देर में वे नगर के बाहर आ पहुँचे थे।

अब उचित समय था कि गौरव अपना आज के आयोजन प्रयोजन संबंधित अज्ञान दूर करे। हमारे देश में उपनिषदों  की परंपरा ऐसे ही बनी होगी। किसी ने जिज्ञासावश किसी योग्य व्यक्ति से कुछ पूछा और उस व्यक्ति ने उसका वास्तविक समाधान किया तो किसी उपनिषद् का जन्म हुआ। मुझे लगता है जिज्ञासाभरे बचपन और समाधानकर्ता दादा-दादी का संवाद भी एक अलिखित अनाम उपनिषद् ही है जो सदियों से रचा जा रहा है निरंतर आज भी। क्या नाम दें इसे? बालोपनिषद्?

आज भी एक ऐसा ही संवाद होने वाला था।

“दादा जी! आज कहाँ जा रहे हैं हम सब?” पीछे मुँह घुमाकर प्रथम प्रश्न पूछा गया।

“गुरु आश्रम।” उत्तर संक्षिप्त पर पूरा था।

“क्यों? आज क्या है?”

“आज है गुरुपूर्णिमा। हम गुरुदेव के दर्शन करने जा रहे हैं।”

“गुरुपूर्णिमा यानि?”

“भगवान वेदव्यास की जयंती। आषाढ़ी पूर्णिमा।”

“भैया! आप पीछे आ जाओ न? आपकी और दादा जी की गर्दन दुखने लगेगी ऐसे बातें करोगे तो।” गरिमा के स्वर में भोले-सा अपनापन सुझाव बन फूट पड़ा था।

“हाँ, दोनों भाई-बहन यहाँ बैठो मैं आगे बैठ जाता हूँ।” पिता जी ने कहा तो जैसे घोडा़ भी समझ गया हो, वह रुका, बच्चों को ऐसा ही लगा जबकि कमाल ताँगे वाले के हाथों की लगाम का था। गौरव पीछे आ गया।

“गुरु यानि क्या?” प्रश्नोत्तरी आगे बढ़ी।

“गुरु यानि मार्गदर्शक।”

“ …” गौरव मौन होकर सोचने लगा। दादा जी जान गए कि उसे ठीक से समझ में नहीं आया है।

“क्या करना क्या नहीं, कोई काम करने की सही विधि क्या है? उसके परिणाम अपने लिए और दूसरों के लिए कैसे हैं? यह सब कई बार हमें नहीं मालूम होता। हमारा स्वार्थ, मोह, घमंड कई बातें हैं जो हमें सच्चाई से भटका देती है तब जो हमें सच बताए, समझाए और कोई गलती हो रही हो तो सुधारे वह गुरु कहलाता है।”

“हमें सड़क पर संकेतक लगे दिखते हैं कौनसा रास्ता कहाँ जाता है बताते हैं, तो वे गुरु हैं क्या?” गौरव की तर्कग्रंथि जाग्रत हो रही थी।

“क्या वे हमें यह बता सकते हैं कि हमारा उस रास्ते पर जाना ठीक है या नहीं?”

“कभी कभी यह संकेत भी मिल जाते हैं। आगे खतरनाक मोड़ है, रास्ता बंद है, परिवर्तित मार्ग आदि।”

“और फिर भी कोई उन्हें देखकर अनदेखा कर जाए तो?”

“तब गलती ऐसा करने वाले की होगी।”

“ये संकेतक सूचनाएँ है। शास्त्रों में भी ऐसी कई अच्छाई बुराई संबंधित बातें लिखी हैं, पर कोई जाने, न जाने, जानकर भी माने, न माने, यहीं गुरु की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है बेटे! “दादा जी समझा रहे थे। सामने कोई सूचनापट लिखा दिखा पर उसे किसी ने नहीं पढा। तभी सुनसान रास्ते पर बढ़ते ताँगे वाले को एक गाँव वाले ने टोका।” इधर नहीं आगे बड़ा गड्ढा है उधर से निकल जाओ।”

ताँगे वाला हँसा “अरे! रहने दे भाई! नया ज्ञान। बहुत बार गया हूँ इधर से।”

“जमीन घँस गई है सड़क की। नहीं जाने दूँगा देखते नहीं घर-गृहस्थी के लोग बैठे हैं ताँगे में।” वह दोनों हाथ फैलाए ताँगे के आगे ही खड़ा हो गया। ताँगे का रास्ता बदलना ही पड़ा।

“इस समय यह गाँव वाला गुरु की भूमिका में है ऐसा ही जीवन में भी होता रहता है।”

“इस गाँव वाले का काम तो मेरा गूगल-गुरु भी कर सकता है।” गौरव ने मोबाइल पर गूगल मेप खोला। सचमुच पहले वाला रास्ता बंद था।”

“गूगल दिखा रहा है पर रोक सकता है क्या? गाँव वाले ने रोक दिया। देखो बेटे! गूगल, गुरु नहीं हो सकता।”

“ज्ञान का भंडार है यह दादाजी! इतना ज्ञान किसी भी मनुष्य के पास नहीं हो सकता।” गौरव ने समझा यह तर्क दादा जी को निरुत्तर कर देगा, पर यह भ्रम भी टूट गया जब वे बोले “ज्ञान और सूचना में अंतर है। सूचना सचेत कर सकती है पर ज्ञान बोध कराता है। गूगल सबको समान रूप से अच्छी-बुरी, उपयोगी-अनुपयोगी जानकारियाँ बता देता है लेकिन उन जानकारियों, सूचनाओं को हितकारी अहितकारी, अभली बुरी इस, उपयोगकर्ता को  क्या बताना, कितनी बताना, कैसे बताना या उसे छुपा लेना, बताने न बताने का जानने वाले पर प्रभाव-दुष्प्रभाव यह सब विवेक, उस यंत्र के पास नहीं है इससे हमारा मस्तिष्क अनावश्यक जानकारियों से भी भरा रहता है। गुरु यह सब विचार करता है। ज्ञान देने के पहले पात्रता निर्माण करता है बढ़ाता है। इसलिए गूगल को गुरु मानने की भूल मत करना।”

“इसलिए जीवन में गुरु बनाना बहुत जरूरी है नहीं तो मुक्ति नहीं होती, समझा कुछ? “अब दादी का मौन टूटा था वह पोते के सिर पर हाथ घुमाते हुए स्नेह से बोलीं।

“मुक्ति क्या दादी?” गरिमा ने पूछ लिया जानना तो गौरव को भी था।

अब बच्चों को क्या उत्तर देना इस प्रश्न का यह दादा जी जानते थे इसलिए दादी की ओर से वे बोल पड़े “मुक्ति यानि हम किसी बात को न जाने की उलझन से छूट जाएँ और उसे जान लें यही समझ लो तुम अभी। “दादी-दादा जी की ओर कृतज्ञता से देख रही थी।

“तो गौरव! गुरु बनाओगे या गूगल से ही काम चलाओगे?” पिता जी ने पूछा।

“मुझे गुरु बनाने की क्या आवश्यकता? मैं नहीं बनाऊँगा।” गौरव ने गंभीर मुद्रा बनाकर कहा तो सब अवाक् रह गए। माँ का मुख क्रोध से तमतमा उठा “क्या उद्दंडता है यह गौरव! थप्पड़ खाओगे?”

गौरव मुस्कुरा उठा “मैं गुरु नहीं बनाऊँगा क्योंकि मेरे गुरुदेव तो मेरे सामने बैठे हैं, मेरे दादा जी।”

सब लोग खिलखिला उठे। ताँगा रुक गया। सामने  गुरु आश्रम सामने था।

“आप मेरे गुरु हैं ही पर आपको भी किसी गुरु की आवश्यकता है दादा जी?” गौरव ने उतरते उतरते पूछ लिया।

“यह सच है बेटा कि बचपन में हमारे माता-पिता, घर-परिवार के बड़े, अनुभवी लोग भी गुरु की भूमिका में होते हैं। माँ तो जीवन की प्रथम गुरु होती ही है फिर बड़े होने के साथ साथ विद्यालय के शिक्षक भी यह भूमिका निर्वाह करने लगते हैं। और बड़े होने पर हमारे कामकाज के क्षेत्र में कई लोग कुछ न कुछ सिखाते हैं और कामकाज के क्षेत्र के बाहर भी कई लोग मार्गदर्शक सिद्ध होते हैं। एक प्रकार से इन सबमें गुरुतत्व है। जिससे भी जीवन में कुछ भी आगे बढ़ने की दृष्टि मिले वे सब गुरुरूप हैं भगवान दत्तात्रेय ने ऐसे ही चौबीस गुरु बनाए थे उनमें तो कीट पतंगे पशु-पक्षी तक भी हैं फिर मनुष्यों की तो बात ही क्या? “दादा जी ने समझाया।

“पर आपके गुरु के बारे में नहीं बताया आपने।” गौरव ने जिज्ञासा की।

“अभी मैंने जो बताए वे संसार का ज्ञान देने वाले लोग हैं। अभिभावक, शिक्षक, मार्गदर्शक, आचार्य आदि नामों से पुकारकर हम इनसे श्रद्धापूर्वक बहुत कुछ जानते समझते सीखते है लेकिन जिसे सही अर्थों में गुरु कहते हैं वह इन सबसे श्रेष्ठ होता है वह हमें अध्यात्म का ज्ञान कराता है। हमारे और सारे संसार में एक ही परमात्मा है इसलिए सब हमारे जैसे ही हैं कोई दूसरा नहीं ऐसा अनुभव करवाने वाला ही गुरु है। हम आश्रम में ऐसे ही महात्मा के दर्शन सत्संग को आए हैं। जलता हुआ दीपक ही दूसरे दीपक को जला सकता है ऐसे ही वही सच्चा गुरु हो सकता है जो स्वयं अध्यात्म ज्ञान से पूर्ण हो। बड़े भाग्य से ही ऐसे पहुँचे हुए महापुरुष मिल पाते हैं। ऐसे गुरु भगवान से भी बड़े होते हैं क्योंकि वे ही हमें भगवान का दर्शन भी करा सकते हैं।”

आश्रम में एक आम के वृक्ष के नीचे भगवा लंगोटी लगाए अत्यंत तेजस्वी महात्मा बैठे थे। दादा जी ने सपरिवार साष्टांग दण्डवत प्रणाम किया। गौरव का मन उठने का हो ही नहीं रहा था। महात्मा जी ने उसके मस्तक पर हाथ स्पर्श कर उसे उठा लिया।

आश्रम में बने पंडाल में कोई प्रवचनकर्ता कह रहे थे –

तीन लोक नौ खंड में गुरुसे बड़ा न कोय।

कर्ता करे न करि सकै, गुरू करे सो होय।।

(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक है।)

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