✍ वासुदेव प्रजापति
पश्चिम की व्यक्तिकेन्द्री व्यवस्था का दुष्परिणाम भारतीय स्त्रियों पर सर्वाधिक हुआ। स्त्रियों पर हुए दुष्परिणामों का असर परिवार इकाई पर होना स्वाभाविक था। क्योंकि भारतीय परिवार पूरी तरह स्त्रियों पर केन्द्रित है, स्त्री ही परिवार चलाती है। पुरुष तो केवल अर्थार्जन करके लाता है, उस अर्थ का नियोजन स्त्रियाँ ही करती है। इसलिए इस व्यक्तिकेन्द्री व्यवस्था ने भारतीय परिवार परम्परा पर भी भीषण प्रहार किया है।
परिवार के सम्बन्धों में अलगाव
परिवार का केन्द्रवर्ती सम्बन्ध पति-पत्नी का है। इस व्यक्तिकेन्द्री सोच ने पति-पत्नी को स्वतंत्र व अलग-अलग कर दिया है। इन दोनों के अलग होने से परिवार परम्परा पर जो आघात हुआ उसने सृष्टि के समस्त सम्बन्धों को बिखेरकर रख दिया है। हमारे देश में जब भी दो व्यक्ति, दो वर्ग या दो समूह साथ मिलकर काम करते थे तो उनमें एकात्मता का भाव रहता था। परन्तु अब व्यक्तिकेन्द्री सोच के कारण एकात्मता के स्थान पर अलगाव का भाव पैदा होता है। इस अलगाव भाव के कारण उनमें सदैव अपनी स्वतंत्रता और सुरक्षा की चिन्ता लगी रहती है और दोनों एक-दूसरे से सावधान रहते हैं।
परिवार में पति-पत्नी के बाद दूसरा प्रमुख सम्बन्ध माता-पिता और सन्तानों का है। हमारे यहाँ पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाली परिवार परम्परा में आपसी सम्बन्ध बहुत गहरे थे, जो अब गौण हो गए हैं। क्योंकि अब व्यक्ति परिवार का घटक कम और स्वतंत्र व्यक्तित्व रखने वाला अधिक हो गया है। भारत परम्परा का देश है, परम्परा से समाज विकसित और समृद्ध होता है। परम्परा संस्कृति को सुरक्षित रखने का प्रमुख साधन है। इसलिए भारतीय समाज रचना में परम्परा का बड़ा महत्व है। परम्परा पर आधारित पितृऋण, कुल, गोत्र, कुलरीति, कुल की विरासत आदि की परिवार में व्यवस्था बनी हैं। व्यक्ति अपने पूर्वज, पूर्वजों से प्राप्त विरासत और कुल परम्पराओं को भूलें नहीं, छोड़े नहीं यह आग्रहपूर्वक सिखाया जाता रहा है। अपने कुल का गौरव बढ़ाना, कुल पर कलंक न लगने देना, कुल दीपक बने रहना, वंश परम्परा खंड़ित न होने देना आदि कार्यों को करना व्यक्ति का महत्वपूर्ण कर्तव्य माना गया है। इसलिए विवाह, सन्तानोत्पत्ति और शिशु संस्कार अत्यन्त आवश्यक कार्य माने गए हैं। इन्हीं में से श्राद्ध, पितृतर्पण आदि परम्पराएँ बनीं हैं।
अब व्यक्ति स्वतंत्र है, इसलिए पितरों का ऋण मानना आवश्यक नहीं। अपने पूर्वजों के नाम से पहचाना जाना महत्वपूर्ण नहीं, अपितु अपने कर्तृत्व से ही प्रतिष्ठा प्राप्त करना महत्वपूर्ण हो गया है। उच्च कुल में उत्पन्न होने के कारण कुल की मर्यादा का पालन करना आवश्यक नहीं, यदि पद के अधिकार का लाभ मिल जाए तो लेने में कोई आपत्ति नहीं। इस रूप में परिवार परम्परा पर बड़ा आघात हुआ है।
परिवार और व्यवसाय का सम्बन्ध टूटा
परिवार परम्परा को बनाए रखने का प्रभाव व्यवसाय पर हुआ है। पहले हमारे यहाँ व्यवसाय परिवार का होता था। अब व्यवसाय परिवार का नहीं होता, व्यक्ति का होता है। अब पिता का व्यवसाय अपनाने की बाध्यता और आवश्यकता भी नहीं रही। अपनी स्वतंत्र रुचि से व्यवसाय का चयन करना अथवा नौकरी करना स्वाभाविक माना जाने लगा है। परिणामस्वरूप पारिवारिक व्यवसाय के समक्ष अनेक प्रकार की व्यावहारिक कठिनाइयाँ आ रही हैं, किन्तु व्यक्ति की स्वतंत्रता के सामने उनका महत्व गौण हो गया है। इसीलिए अब परिवार और व्यवसाय का सम्बन्ध टूट गया है और इसका सीधा प्रभाव सामाजिक ताने-बाने पर हुआ है। हमारे देश की परम्परा में राजा का पुत्र राजा, पुरोहित का पुत्र पुरोहित, किसान का बेटा किसान, लुहार का बेटा लुहार, कुम्हार का बेटा कुम्हार और सुनार का बेटा सुनार होता ही था। परन्तु अब शिक्षक का पुत्र शिक्षक ही बनेगा यह आवश्यक नहीं रहा। अब यदि मंत्री का पुत्र मंत्री बन गया तो उस पर परिवारवाद को बढ़ावा देने का आरोप लगाया जाता है। अनेक बार ऐसा भी दिखाई देता है कि लाभ के स्थानों पर तो परिवारवाद का आश्रय लिया जाता है परन्तु जहाँ कर्तव्य पालन की बात आती हैं, वहाँ व्यक्तिवाद को आगे कर दिया जाता है। मैं बाप के नाम से नहीं जाना जाउँगा, अपना नाम स्वयं बनाऊँगा ऐसा कहा जाता है। भारतीय परम्परा में तो बेटा बाप से सवाया निकले ऐसी अपेक्षा रहती है परन्तु व्यक्तिकेन्द्री सोच में बाप से अलग होने में ‘स्व’ अभिमान है और यही वर्तमान पीढ़ी की विडम्बना है।
नौकरी का सम्बन्ध परिवार से नहीं
अंग्रेजी शिक्षा के परिणामस्वरूप ही नौकरी करने का प्रचलन बढ़ा है। नौकरी का प्रचलन बढ़ना भी स्वाभाविक था क्योंकि यह शिक्षा नौकर तैयार करने के उद्देश्य से ही दी गई थी। इसलिए स्वामित्व वाले व्यवसायों की संख्या बहुत कम हो गई हैं, और नौकरी करने वालों की संख्या में भारी वृद्धि हुई है। आज सब कुछ और सब कोई खरीदा जा सकता है, आज की भाषा में हायर किया जा सकता है। नौकरी व्यक्तिगत होती है, उसका नौकरी करने वाले के परिवार से कोई सम्बन्ध नहीं होता। वेतन उसे काम का मिलता है, परिवार के भरण-पोषण का नहीं। नौकरी करने वाला अकेला है तब भी वही वेतन है और उसके परिवार में आठ-दस सदस्य है तब भी उतना ही वेतन मिलता है। जिसे वेतन मिलता है उस अकेले का उस पर अधिकार होता है, घर के अन्य सदस्य उसके आश्रित माने जाते हैं। आज हर किसी को दूसरे पर आश्रित रहना अच्छा नहीं लगता इसलिए प्रत्येक व्यक्ति नौकरी करके अपनी स्वतंत्रता सुरक्षित कर लेना चाहता है। सरकार भी नौकरी करने वाले को सेवानिवृत्ति के बाद निवृत्ति वेतन (पेंशन) देती है, जिससे उसे अपनी संतानों पर आश्रित न रहना पड़े। यह भारतीय परिवार परम्परा के सर्वथा विपरीत व्यवस्था है। इस व्यवस्था के कारण ही वृद्धाश्रमों की संख्या में वृद्धि हो रही है।
अधिकार कानून से मिलते हैं
हमारे यहाँ परिवार में एकात्मता का भाव होने से सबको यथायोग्य अधिकार मिलते थे, परन्तु अब अधिकार कानून से मिलते हैं। वृद्ध माता-पिता का सन्तानों पर कोई कानूनी अधिकार नहीं है। पत्नी का अधिकार भी विवाह के कारण से है। सन्तानें जब तक नाबालिग है तब तक उनका अधिकार है, जब वे बालिग हो जाते हैं तब उनका माता-पिता पर कोई अधिकार नहीं होता। वे स्वतंत्र हो जाते हैं, अर्थात् उन्हें अब अपनी व्यवस्था से अपना जीवन चलाना है। माता-पिता द्वारा अर्जित सम्पत्ति पर उनका कोई अधिकार नहीं होता, परन्तु माता-पिता को उनके माता-पिता से जो मिला है, उस पर तो वे अपना अधिकार मानते हैं।
अनेक विकसित देशों में माता-पिता का काम केवल बच्चों को जन्म देना है, उनका निर्वाह, उनकी सेवा-चिकित्सा और शिक्षा आदि का दायित्व सरकार का होता है। बेरोजगारों के निर्वाह का दायित्व, वृद्धों, अपाहिजों व रोगियों के निर्वाह का दायित्व भी सरकार ही उठाती है। उन देशों में परिवार केवल कानूनी और टेक्निकल व्यवस्था मात्र है। हमारे देश में भी अनेक उच्च शिक्षित लोग इस व्यवस्था को अच्छी मानते हैं और ऐसी व्यवस्था न होने के कारण ही भारत पिछड़ा है, ऐसी उनकी मान्यता भी है। भारतीय परिवार व्यवस्था इसकी तुलना में अत्यधिक श्रेष्ठ है। परिवार की एकात्मता और आत्मीयता के परिणामस्वरूप सभी परिजन मेरे अपने हैं, उनकी चिन्ता करना, उनकी सेवा-सुश्रुषा करना मेरा कर्तव्य है। इस भाव के कारण भारतीय परिवारों में बेरोजगार, वृद्ध, अपाहिज सबका भरण-पोषण आत्मीय भाव से होता है। सरकार को इन पर एक भी पैसा और श्रम खर्च नहीं करना पड़ता। ऐसी उत्तम स्वनिर्भर व्यवस्था अन्य देशों में असम्भव है, क्योंकि वहाँ ऐसी सुदृढ़ परिवार व्यवस्था ही नहीं है।
आश्रम व्यवस्था पर दुष्प्रभाव
इस व्यक्तिकेन्द्री सोच का दुष्प्रभाव जैसा परिवार व्यवस्था पर हुआ, वैसा ही भारतीय आश्रम व्यवस्था पर भी हुआ है। व्यक्ति के सम्पूर्ण जीवन को श्रेष्ठत्व की दिशा में आगे बढ़ाने वाली आश्रम व्यवस्था आज चरमरा गई है। व्यक्तिगत जीवन की दृष्टि से चार आश्रमों – ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम व संन्यासाश्रम की व्यवस्था की गई थी। ये आश्रम जहाँ व्यक्ति जीवन के लिए महत्त्वपूर्ण हैं, वहीं इनका महत्व समाज जीवन में भी बहुत अधिक है। भारत में सामाजिकता से निरपेक्ष रहकर व्यक्ति जीवन की कल्पना भी नहीं की गई है। व्यक्ति को अपना जीवन समाज की सेवा के लिए ही मिला है, यही बचपन से सिखाया जाता है। कोई समाज को उपदेश द्वारा सन्मार्गी बनाकर, कोई ज्ञान देकर, कोई आवश्यक वस्तुओं का उत्पादन कर, कोई रक्षा कर, कोई अन्न उपजा कर समाज की सेवा करता है। इसके मूल में सबकी यही भावना रहती है कि “समाज परमात्मा का विश्वरूप है।” इसलिए समाज की सेवा भी परमात्मा की ही सेवा है।
जब से व्यक्तिकेन्द्री विचार सिर पर चढ़कर बोल रहा है, तब से समाज की सेवा करना, समाज धर्म का पालन करना, समाज के प्रति अपने कर्तव्य का स्मरण करना और वैसा ही व्यवहार करना आदि बातें अव्यावहारिक हो गईं हैं। जब पति-पत्नी का सम्बन्ध भी कानूनी हो गया है तो सामाजिक सम्बन्धों का कानूनी होना स्वाभाविक ही है। परन्तु जितना अन्तर एक जीवित मानव और यंत्र मानव में होता है, उतना ही अन्तर भावात्मक कर्तव्य और कानूनी कर्तव्य में होता है। कानूनी कर्तव्यों का पालन इसलिए किया जाता है कि समाज बिना लेन-देन के नहीं चलता। जब लेना है तो कुछ देना भी पड़ेगा, किन्तु देना पड़े कम से कम और मिले अधिक से अधिक। यही भाव कानूनी कर्तव्य का पालन करते समय सबके मन में रहता है।
अब दो पीढ़ियाँ साथ नहीं रहती
इस व्यक्तिकेन्द्री समाज रचना का एक और दुष्परिणाम यह है कि अब दो पीढ़ियाँ एक-साथ नहीं रहती। पुत्र-पुत्री अपना केरियर बनाने के लिए किसी महानगर में अथवा विदेश में चले जाते हैं और विवाह करके वहीं बस जाते हैं। माता-पिता भी अपना घर छोड़कर उनके साथ रहना नहीं चाहते, क्योंकि उन्हें सरकार पेंशन देती है। इसलिए वे भी अपने घर में अकेले स्वतंत्र रहते हैं। इसका दुष्प्रभाव पड़ता है छोटे बच्चों पर, घर में उन्हें सम्भालने वाला कोई नहीं होता। वे नौकरों के भरोसे पलकर बड़े होते हैं। वे दादा-दादी के लाड़-दुलार व उनकी सीख से वंचित रहते हैं। फलतः उनके व्यक्तित्व का सम्यक विकास नहीं हो पाता। बहुत छोटी आयु में उन्हें स्कूल भेजने या छात्रावास में भेजने का कारण यही है कि घर में उनकी देखभाल कौन करेगा? क्योंकि दो पीढ़ियाँ एक-साथ नहीं रहती।
आधुनिक रहन-सहन के नाम पर एक और विकृति पनपी है कि सबको प्राइवेसी चाहिए, सबको अपना-अपना स्पेस चाहिए। उसी में से सबके अलग-अलग कमरे होना प्रगति का सूचक बन गया है। सबको अपने लिए स्वतंत्र समय चाहिए। पति व पत्नी को भी स्वतंत्र समय चाहिए, क्योंकि दोनों एक नहीं है, अलग-अलग स्वतंत्र इकाई है। सबको अपना-अपना निर्णय लेने का अधिकार है, कोई किसी के लिए निर्णय नहीं कर सकता, करता भी है तो उसे मान्य नहीं है। सबके अपने अधिकार हैं और उन अधिकारों की रक्षा के लिए कानून हैं। इस व्यवस्था में किसी का किसी पर विश्वास नहीं है। सबको अपनी चिन्ता स्वयं करनी पड़ती है, कोई दूसरे की चिन्ता नहीं करता। इतने बड़े संसार में सब अकेले हैं और एकाकी जीवन में सुख व शान्ति कैसे मिलेगी? नहीं मिल सकती। इसीलिए इस आधुनिक स्वार्थपरक समाज रचना में मानसिक रोगियों की संख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही है।
भारतीय समाज रचना ध्वस्त हो गई है
इस व्यक्तिकेन्द्री रचना के कारण भारतीय समाज की आधारभूत व्यवस्थाएँ ध्वस्त हो गईं हैं। आज कुल, गोत्र, वर्ण, जाति, सम्प्रदाय में से किसी की भी मान्यता आवश्यक नहीं है। व्यक्ति केवल व्यक्ति है अर्थात् व्यक्ति अकेला ही रहना चाहता है, इसलिए अन्य लोगों के साथ केवल मतलब के सम्बन्ध रखता है। मेरी रुचि, मेरी स्वतंत्रता, मेरा अधिकार यही उसकी भाषा बन गई है। हमारे देश ने तो दूसरों का विचार पहले करना सिखाया है। और इस ‘मैं’ को केन्द्र में रखने वाली सोच को आसुरी सोच बताया है। पश्चिमी शिक्षा ने इस आसुरी सोच को ही सर्वत्र फैला दिया है।
आज भी भारत में अनेक ऐसे लोग हैं जो इस आसुरी विचार और व्यवस्था को समझते हैं, परन्तु पश्चिमी शिक्षा ने व्यक्तिकेन्द्री सोच को इतना व्यापक कर दिया है कि आज की पीढ़ी को वही सही लगता है। हम सबके लिए विशेष ध्यान देने की बात यह है कि भारत जिस एकात्मता के विचार एवं व्यवस्था के कारण आदिकाल से वर्तमान तक जीवित रहा है, उसी व्यवस्था की आधारभूत बातों की जड़ पर ही आघात हुआ है। इतना भीषण आघात होने के उपरांत भी भारत का जीवनरस इतना प्राणवान है कि भारतीय विचार अभी भी पूर्णतया मरा नहीं है, यही भारतीय विचार की चिरंजीविता है। हम इसको अभी भी पुनर्जीवित कर सकते हैं, ऐसा अटूट विश्वास रखकर चलने की आवश्यकता है।
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सचिव है।)
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