चिंतन और चेतना

✍ गोपाल माहेश्वरी

चिंतन और चेतना सगे भाई-बहिन हैं। नाम का प्रभाव उनके विचारों पर भी स्पष्ट दिखाई देता है। पिताजी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के जिला संघचालक हैं इसलिए उनके घर प्रायः अनेक प्रचारक और बाकी कार्यकर्ता भी आते रहते हैं। भोजन या विश्राम के समय अनौपचारिक चर्चाओं में परिवार के सभी लोग सहज ही साथ होते। चिंतन और चेतना की जिज्ञासाओं के समाधान का यह अवसर सबसे अच्छा होता। वे केवल जानकारियां ही नहीं एकत्र करते तो उन विषयों पर चिंतन मनन भी करते। बड़ों से पूछना, सहपाठियों से चर्चा करना और अच्छी पुस्तकों का स्वाध्याय करना उनका स्वभाव बन गया था। कोई काम कृते हैं तो क्यों करना? यह जाने बिना करते रहना उन्हें भाता न था।

आज विद्यालय में स्वतंत्रता दिवस की तैयारियां चल रहीं थीं। शाला से लौटते हुए उनमें चर्चा चल पड़ी।

चिंतन – चेतना! तुमने एक बात पर ध्यान दिया कि हम राष्ट्रगान क्यों गाते हैं?

चेतना – राष्ट्र गान में अपने राष्ट्र के प्रति हम सब भारतवासियों की भावनाएं हैं।

चिंतन – क्या भारत राष्ट्र और भारत देश दोनों अलग अलग हैं?

चेतना – नहीं, पर भारत देश का मतलब है हिमालय से कन्याकुमारी और अटक से कटक तक चारों दिशाओं में फैली विशाल धरती और उस पर रहने वाले हम लोग।

चिंतन – हाँ और किसी भी देश के लिए उसकी भूमि और उसके लोग यही उसका दिखने वाला रूप है?वे लोग उस भूमि की सुरक्षा की चिंता करते हैं, प्रशासन की व्यवस्था बनाते हैं और उसी पर अपने जीवन की भोजन, वस्त्र, रहने आदि की व्यवस्था के उपाय करते हैं।

चेतना – भैया! आपने कहा दिखने वाला रूप, तो क्या कोई न दिखने वाला रूप भी होता है?

चिंतन – एक अर्थ में उस रूप को न दिखने वाला इसलिये कह सकते हैं कि वह जमीन व लोगों की तरह नहीं दिखता पर उनके व्यवहार, रीति-रिवाज, पर्व-त्योहार, सोच, रहन-सहन में प्रकट होता है।

चेतना – आपका मतलब है संस्कृति। है न?

चिंतन – बिल्कुल। यह संस्कृति देश को राष्ट्र बनाती है यह देश के वर्तमान रूप से पुरानी भी होती है और बाद तक भी रहने वाली।

चेतना – वह कैसे भैया?

चिंतन – देखो चेतना! हमारे ही भारत में पहले राजाओं का शासन था अब लोकतंत्र है। पहले के हमारे रहने, आने-जाने, पहनने के कपड़े अलग ढंग के थे, अब अलग हैं।

चेतना – हाँ, मैंने महाभारत व रामायण धारावाहिकों में देखा है।

चिंतन – इससे भी बड़ी समझने लायक बात है कि पंद्रह अगस्त 1947 के पहले पाकिस्तान भी भारत ही था न? अब वह अलग देश है। लेकिन राष्ट्र ऐसे नहीं बँटता है। देश के साथ सदियों पुरानी संस्कृति जुड़ती है तो वह राष्ट्र कहलाता है। जैसे कोई होटल के कमरे में रह रहे लोगों का वह घर नहीं होता क्योंकि घर के साथ एक अलग अपनापन होता है पूर्वजों की परंपरा है। इसी कारण वह हमारा घर है।

चेतना – समझी मतलब जो भारत में रहते हैं उनके पास यहाँ की नागरिकता भी है पर इसकी संस्कृति को नहीं मानते, भारत उनके लिए एक देश है, पर जो यहाँ रहते भर नहीं है, इसकी संस्कृति, इसके मूल्य, इसकी परंपरा से अपना अटूट जुड़ाव मानते हैं उनके और जो इस पर चाहे किसी कारण रह न भी रहे हों, पर इसे माँ मानते हैं, इसकी संस्कृति को मानते हैं उसके अनुसार आचरण करते हैं। उनके लिए यह भारत राष्ट्र है।

चिंतन – हाँ बहिन! इसीलिये हम राष्ट्रगान के अंत में कहते हैं ‘भारतमाता की जय’ और राष्ट्र गीत का तो आरंभ ही करते हैं ‘वन्दे मातरम्’ से। इसमें कोई देशभर का उल्लेख नहीं है। वन्देमातरम् तो राष्ट्र की अवधारणा का प्रमुख स्तोत्र ही है।

चेतना – स्तोत्र यानि स्वरूप का भावपूर्ण वर्णन, भक्तिपूर्ण स्मरण। जैसे गोस्वामी तुलसीदास जी का रचा ‘श्रीरामचंद्रकृपालु भज मन’ गाते -गाते भगवान श्रीराम का स्वरूप आँखें बंद करके भी मानस पर उभरने लगता है, वैसे ही राष्ट्र गान और राष्ट्रगीत गाते समय हमारा राष्ट्र मन की आँखों के सामने साकार होने लगता है।

घर आ गया था। पिताजी छत पर तिरंगा फहराने की पूर्व तैयारी में लगे थे। बच्चे दौड़ कर सीधे उनके पास जा पहुँचे। और पिता से लिपट कर बोले “वंदेमातरम् पिताजी!” पिताजी मुस्कराकर बोले “वंदेमातरम् , भारतमाता की जय” फिर रुक कर बोले “बच्चों राष्ट्रध्वज तो सुबह चढ़ा शाम को उतर जाएगा पर राष्ट्र रंग? वह तो हर पल मन पर चढ़ा रहना चाहिए न।”

चिंतन – और वही रंग पक्का करने मैं चला अपनी शाखा पर।

(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक है।)

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