– गोपाल माहेश्वरी

रोशन ने शाला से लोटते हुए रास्ते में सुना कि पहलगाम में आतंकी हमला हुआ है। निर्दोष पर्यटकों की हत्या से सारा देश दहला हुआ है। उसका भी खून खौल उठा। वह अपने मित्र से बोला “कई बरसों बाद लोग घूमने आने लगे थे। हमारा तो घर ही इन पर्यटकों के कारण चलता है।” मित्र ने कहा “मेरे अब्बा तो पहलगाम में आने वालों को घुड़सवारी ही करवाते हैं।” उसके स्वर में भी चिंता थी।
घर आते ही माँ ने गोदी में खींच लिया फिर लाड़ करते हुए रोने लगी। रोशन घबरा गया “क्या हुआ माँ? रो क्यों रही हो? बीमार हो? बाजार से दवाई ला दूँ?” वह बस्ता रखकर बाहर जाने लगा।
माँ ने रोक लिया “बिना बहुत जरूरी काम के बिल्कुल बाहर नही निकलना।” माँ का स्वर कठोर था।
वह कुछ पूछता समझता तब तक पिताजी आ गए बोले “चारों ओर विरोध के गुस्से और बदले के स्वर गूंज रहे हैं। अभी सुनकर आ रहा हूँ।” संदर्भ पहलगाम की घटना का ही था। पिताजी कह रहे थे “प्रधानमंत्री मोदी छोड़ेंगे नहीं आतंकियों को, कुछ बहुत बड़ा एक्शन होने वाला है।” फिर माता-पिता कुछ जरूरी सामान समेटने लगे मानो कहीं जाने की तैयारी हो।
छःसात मई की वह रात, भारतीय सेना ने अचूक निशाने साधकर पाकिस्तान की धरती पर नौ आतंकी अड्डों को नष्ट कर दिया।
सुरक्षा कारणों से सीमावर्ती क्षेत्रों में इंटरनेट संचार व्यवस्था ठप्प कर दी गई थी। सीमा से सटे गाँव खाली करवा लिए थे। देश-विदेश में टीवी पर देखकर बाकी लोग जो भयानकता और क्रोध घर बैठे अनुभव कर रहे थे उसे इन सीमाओं के रहवासी कई गुना अनुभव कर रहे थे। शालाएं बंद, बाजार बंद, न खेत पर जाना, न बकरियां लेकर, खिड़की दरवाजे बंद कर बैठे रहो, घर से दूर, पर अधिक सुरक्षित स्थान पर। वहाँ भी सायरन बजते ही बत्तियां भी बंद, हलचल बंद, ब्लेक आउट।
रोशन सोच रहा था ‘सामान्य परिस्थितियों में सारा परिवार सारे काम धंधों से छुट्टी पाकर घर में पूरे-पूरे दिन-रात एक साथ बैठे तो हम बच्चों को मानो वरदान मिला हो ऐसा आनंद ही होता। माँ बच्चों का मनभावन भोजन बनाती, पिता बच्चों को अपने-अपने आजीविका के गुर सिखाते और यदि बच्चे उसमें रस नहीं लेते दिखाई देते तो अपने क्षेत्र के रोचक कहानी-किस्से चलते। दादी कोई लोक गीत छेड़ देती तो घर का कोई न कोई सदस्य किसी लोक वाद्य को छेड़ने से अपने आप को रोक न पाता। थोड़ी देर बाद बाहर प्रकृति के बनाए हरे-भरे मैदान पर खेल की मंडली जम ही जाती।’ लेकिन अभी सबका साथ रहना सामान्य न था, प्रतिपल कुछ भी आकस्मिक, भयानक से भयानक और अनचाहा, अनसोचा घटित हो सकता था।
रोशन का परिवार एक अस्थायी आवास में आ चुका था। लगभग दस बरस के रोशन ने अपनी माँ की गोद में सिर रखकर लेटे-लेटे पूछा “माँ!आखिर यह पाकिस्तान शान्ति से क्यों नहीं रहता?” वह इस बंधन भरे वातावरण से ऊब रहा था।
एक ग्रामीण माता भला ऐसे गंभीर प्रश्न का क्या उत्तर दे सकती थी, बोली “होते हैं कुछ लोग जिन्हें न खुद सुख से रहना है न दूसरे को रहना है।” हर परिस्थिति का ताला मनुष्य पहले अपने अनुभव की चाबी से ही खोलने का प्रयास करता है। माँ ने भी यही किया। बताने लगी “तेरी चाची को ही देख, हँसते-खेलते, साथ रहते सारे परिवार का बंटवारा करवा कर अलग हो गई पर रहना तो पड़ौस में ही था, तो भी रोज की किच-किच। बड़े-बड़े खूंखार कुत्ते पाल लिए। खुद से सम्हलते नहीं और कभी भी हमारे बाड़े में घुस आते, कभी किसी बच्चे को काट लेते कभी, कोई निर्दोष को उठा ले जाते।”
“हाँ, यह तो बिलकुल सही है। मैंऔर मेरे दोस्तों को भी खेलते समय हमेशा डर बना रहता है। न जाने कब बाड़ फलांग कर वे भयंकर कुत्ते झपट पड़ें।” रोशन ने आँखें फैलाकर कहा।
“बस वही रिश्ता, वहीं स्थिति है हमारी और पड़ोसी देश की। पहलगाम में भी तो ऐसे ही कुछ भयंकर कुत्तों जैसे आतंकी मार गए बेचारे निर्दोष पर्यटकों को।” माँ ने सिहरते हुए कहा।
“तो हम भी पाल लें कुछ…” रोशन की बात पूरी होने से पहले ही समझकर माँ ने उसके मुंह पर हाथ रखकर चुप करा दिया।
“फिर हममें और उनमें क्या अंतर रह जाएगा। जैसे चाची के कुत्तों के लिए हमारी लाठी तैयार रहती है वैसे ही आतंकियों के इलाज भी हैं हमारे पास।” उसने समझाया।
तभी सायरन गूंज उठे पलभर में सारी बत्तियां गुल कर दीं गईं। माँ ने तो चूल्हा भी बुझा दिया और दादी भगवान जी का दिया तक जलाते-जलाते हाथ जोड़कर रुक गईं। पता नहीं चूल्हे पर चढ़ी सब्जी पकी भी या अधपकी ही रह गई।
काले आसमान पर तेजी से चमकती रोशनी के गोले जैसे उभरते और लाल रोशनी के साथ बुझ जाते। रोशन का मन हुआ एक बार यह विचित्र आतिशबाजी बाहर निकलकर देखे लेकिन उसे दरवाजे की और बढ़ते देख पिता ने हाथ पकड़कर रोक लिया और होठों पर अंगुली रखें उसे चुपचाप रहने का संकेत किया। सभी अंदर एक कोने में पास-पास सटकर बैठ गए। उफ्फ कैसा डरावना सन्नाटा था थोड़ी दूर गोलियों, धमाकों और आसमान में दुश्मन के ड्रोन मार गिराने की आवाजें बस, जैसे संसार में इनके अलावा कोई आवाज ही न बची थी उन पलों में।
इस भयानक रात को गुजरे तीन दिन बीत गए। इस बीच गाँव वालों के साथ रोशन के पिता भी गए थे दिन में, दुश्मन के ड्रोनों के परखच्चे ढूँढ कर सेना को बताने। इसी बीच खबर आई की दुश्मन पड़ोसी ने अपनी बरबादी से डरकर लड़ाई रोकने की प्रार्थना की जिसे हमारी सेना के जिम्मेदार अधिकारियों ने मान लिया है।
सतर्क सेनाएँ जानती थीं घायल कुत्तों के अधिक पागल हो जाने का खतरा है लेकिन वे चोंट खाकर डरे हुए भी हैं। आए तो बचेंगे नहीं, जहन्नुम में जाएँगे अपने कल ही मारेंगे सौ से ज्यादा साथियों, रिश्तेदारों के पास। सीमाएं सेना की प्रतिपल निगरानी में अधिकतम सतर्कता से सुरक्षित थीं।
रोशन आज सप्ताह भर बाद अपने घर लौटा। घर की दीवारें भारी गोलाबारी से छलनी थी। अगले ही दिन कुछ और मित्र मिल गए तो चुपचाप निकल पड़े अपनी शाला को देखने। घर की तरह ही शाला की दीवारों के अंदर बने छेद जैसे इन बच्चों के भविष्य को छलने का ही षड्यंत्र था। लेकिन शाला की छत में बन चुके छेद से भी बच्चे अपना आकाश ताक रहे थे।
बच्चों की चर्चा का मुख्य विषय था कि आखिर आतंकी हमारी सीमा में घुस कैसे आते हैं? कहीं न कहीं कोई हमारे ही लोग उनकी सहायता कर देते होंगे? आशंका आधारहीन न थी। लेकिन ये बच्चे कतिपय भटके हुए विरोधी नेताओं की तरह तो थे नहीं कि यह प्रश्न उछालकर बस सरकार को घेरने में जुट जाते।
इस बाल मंडली ने एक ही निर्णय लिया हमारी नन्हीं आँखें अब अधिक खोजी रहेंगी, कान अधिक चौकन्ने और पैर पल भर भी देर न करेंगे कुछ भी गड़बड़ दिखते ही थाने या सुरक्षा चौकी तक सूचना पहुँचाने में। हम पहचानते हैं कौन हमारा है कौन बाहरी? हर बाहरी दुश्मन नहीं होता पर कोई भी बाहरी दुश्मन हो सकता है। बच्चे बातें करते पास ही पेड़ के नीचे सिंदूर पुते पत्थर से बने हनुमान जी के पास तक आ गए थे। बच्चों ने अपने माथे पर सिंदूर का टीका लगाया। उन्हें जरा भी डर नहीं था कि कोई उन्हें मार देगा उनका धर्म पहचान कर। रोशन ने कहा “हमारे प्रधानमंत्री जी ने कहा है ऑपरेशन सिंदूर अभी जारी है इसका तो हर पत्थर को अपनी जगह बनना होगा एक सिंदूरी हनुमान।”
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(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक है।)