शिवपूजा

– गोपाल माहेश्वरी

श्रावण का महीना आरंभ हो चुका था। अच्छी-खासी वर्षा होने से गाँव के रास्ते कठिनाई से ही आने जाने योग्य रह गए थे। ऊपर आसमान में काले-काले बादल धूम मचा रहे होते तो आसपास दूर-दूर तक भीगती इठलाती हरियाली झूम रही होती। बस उसके नीचे का मामला थोड़ा गड़बड़ था, जगह-जगह कीचड़, गड्ढे, डबरे, छोटी मोटी जलधाराएं। यदि आपको इन रास्तों पर चलना है तो आप चलते हुए न बादल निहारिए न हरियाली देखने में खो जाइए। फिर भी किसानों को खेतों का फेरा तो करना ही होता है। कहाँ खेत की मेढ़ फूट गई या कहाँ पानी अधिक भर गया, कहीं हवाओं से फसल आड़ी तो नहीं पड़ गई। लेकिन गाँवों में प्रकृति के सान्निध्य का जो आनंद है वह अनूठा ही है। पल भर में सरकता सांप डराता है तो दूसरे ही पल नाचता मोर प्रसन्न कर देता है।

आनंद को यह वातावरण बहुत भाता है इसलिए वह श्रावण लगने पर शहर से अपने दादाजी के पास कुछ दिन रहने अवश्य आ ही जाता है। तीन मंजिला बड़ा सा मकान, गायें-भैंसें, गाड़ी-घोड़े, नौकर-चाकर, हाली, हम्माल जहाँ तक देखो लंबे-चौड़े हरे-भरे खेत, आनंद के दादाजी गाँव के सम्पन्न किसान थे।

आज आनंद अकेले ही गाँव घूमने जाना चाहता था कि दादाजी बोले “अकेले क्यों जाओगे? रामकिशन ले जाएगा मोटर साइकिल पर जहाँ चाहो हो आओ।” दादाजी ने अपने युवा नौकर को साथ कर दिया। उसने मोटर साइकिल  स्टार्ट करते हुए पूछा “आनंद भैया कहाँ चलें?” वह मुस्करा रहा था। जानता था आनंद भैया के साथ जाना यानी घर के सारे कामों से चार-छह घंटों की छुट्टी। बस गाँव की सीमा पार हुई नहीं कि उनका मालिक नौकर का संबंध समाप्त वे गहरे मित्र बन जाते थे।

“आज श्रावण का सोमवार है न राम भैया!” दो-चार साल बड़े होने से रामकिशन को आनंद भैया कहता था। उनके घर में नौकरों को भी संबोधन छोटे-बड़े की मर्यादा को ध्यान में रखकर करने की ही परंपरा थी।” सुना है सामने उस पहाडी के पीछे कोई प्राचीन शिवलिंग है।” रामकिशन को अंदेशा था कि आनंद भैया किसी ऐसी ही रोमांचक जगह जाने का सोचे बैठे होंगे।

“हाँ। पर चहल-पहल तो गाँव के अंदर वाले मंदिर पर अधिक रहती है।” रामकिशन ने यह जानते हुए भी कि इस तर्क का आनंद पर कोई प्रभाव न होगा यों ही कह दिया।

“आपको न जाना हो तो मैं चला जाऊॅं?” आनंद भी मुस्कुरा दिया जानता था दादाजी का आदेश साथ जाने का है तो रामकिशन उसे अकेले जाने ही नहीं देगा।

निश्चय हुआ सो हुआ। मोटर साइकिल एक चाय की गुमटी के पास टिकाई और वे पहाड़ी चढ़ने लगे। हवा कठंडे झोंके चल रहे थे। सावन की फुहारें उनके मुख पर ऐसे अधिकार जमाए बैठीं थीं कि पसीने की बूंदों को स्थान ही नहीं मिलता। पहाड़ी पगडंडी कहीं कहीं घास में छुप गई थी पर रामकिशन को राह पता थी। वे पहाड़ी की चोंटी पर थोड़ा ठहरे। आनंद ने जीभर कर चारों ओर फैले समुद्र-सी लहराती हरियाली के बीच छोटे से टापू जैसे दिख रहे अपने गाँव को निहारा। अब वे दूसरी ओर उतरने लगे। पगडंडी गीली थी वे संतुलन बनाते हुए आधी से अधिक उतार तय कर चुके तो एक चौड़ासा समतल प्राकृतिक चबूतरा-सा दिखा उसी पर विराजमान था एक अनघड़ स्वयंभू शिवलिंग। दोनों ने पहाड़ी से टपकती पतली जलधारा में हाथ धोए। पास ही लगे बिल्ववृक्ष से कुछ पत्ते तोड़े, झाड़ियों से कुछ अनाम फूल चुने और शिवलिंग पर चढ़ाए।

तभी इस शांत एकांत में किसी बच्चे के रोने की हवा में लहराती आवाज सुनाई दी।आनंद के आँख-कान बड़े तेज थे। उसने रामकिशन से पूछा “कोई रहता है यहाँ?”

“इधर तो कोई बस्ती नहीं है भैया!”

“कोई तो है।” आनंद अनुमान से थोड़ी घुमावदार उतराई करते हुए बढ़ चला।

“देखकर भैया! कोई जंगली जानवर न हो उधर।” रामकिशन ने स्वाभाविक चिंता व्यक्त की।

आनंद ने एक पेड़ की टहनी से बना अनघड़ डंडा उठा लिया। तभी उसे सरकंडों की सड़ी गली छाजन के जैसी दिखी। बच्चा वहीं था। दोनों ने देखा एक वनवासी तरुणी अपने बच्चे को फटे ऑचल से ढके दूध पिला रही है। इन्हें देखकर वह सकुचाई। डरते-डरते पूछा “कांई है? (क्या है?) कौन तुम?” उसने पास पड़ा दरांता उठा लिया।

आनंद ने “राम राम” कहते हुए आश्वस्त किया “डरो मत। यह बच्चा क्यों रो रहा है?”

“ओऽऽऽ”वह जोर से बोली और एक काला कलूटा जीवित अस्थिपंजर जैसा जवान लंगोटी पहने वहाँ आता दिखा। पास आते ही उसने रामकिशन से राम-राम की और आनंद की और संकेत करके पूछा “ई कुण?”

रामकिशन की जान में जान आई। आनंद को बताया “यह रामाजी है भैया! अपने यहाँ शहद, खजूर, करोंदे लेकर आता है साल में दो-चार बार।” फिर रामाजी से बताया यह बड़े घर के बेटे हैं। ऊपर शिवमन्दिर आए थे।” रामाजी ने हाथ जोड़े।

बातचीत में पता लगा रात को ऑंधी में छप्पर उखड़ गया आड़ उड़ गई। बच्चे को ताप(बुखार) है। बूटी ढूंढने गया था। वह डाक्टर की दवा का अभ्यस्त न था।

शाम को आनंद ने दादाजी से कहा “शिवजी खुले में बैठे हैं उधर। धूप हवा पानी आंधी अंधड़ सब सहते।”

दादाजी मुस्कुराए “बोलो क्या सोचा है?” बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए रामकिशन को पुकारा।” रामकिशन जो सामान लगे ले जाओ और उपने किसना करीगर को बोल दो। कल ही काम शुरू कर दो। सावन का महीना है। शुभकाम में देर नहीं।”

दो दिन में रामाजी की कुटिया बन गई पतरों और बल्लियों से। रामाजीने आनंद से हाथ जोड़कर कहा “मैं वनवासी हूँ मालिक मुफ्त में कुछ ना लूँ।”

आनंद ने उसके हाथ पकड़े और कहा “मुफ्त में नहीं आज से तुम इन शिवजी के पुजारी हो। पूजा प्रसाद की व्यवस्था और तुम्हारी दक्षिणा हर महिने बड़े घर से मिलेगी। बस पूजा में नागा न करना।”

रामकिशन इस अनूठी शिवपूजा को देखकर चकित था।

(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक है।)

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