भारत का गणतंत्र

 – डॉ. मोहन भागवत

सरस्वती शिशु मंदिर गोरखपुर में 26 जनवरी 2020 को गणतंत्र दिवस पर उद्बोधन

हमारा इकहत्तरवाँ गणतंत्र दिवस हम आज मना रहे हैं। पन्द्रह अगस्त उन्नीस सौ सैंतालीस को हम स्वतन्त्र हुए थे। इस दिन से पहले हम पर विदेशी अंग्रेज राज्य कर रहे थे। हम स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए उनसे संघर्ष कर रहे थे, किन्तु हमारे स्वतन्त्र होने तक तो उनका ही तंत्र चल रहा था।

स्वतन्त्र देश में ‘स्व’ का तंत्र चाहिए

देश के स्वतन्त्र होने के पश्चात हमारे द्वारा चयन किए गये हमारे उस समय के तपस्वी और विद्वान नेताओं ने मिलकर विचार किया कि स्वतन्त्र भारत को उसके ‘स्व’ के अनुसार तंत्र देना चाहिए। भारत तो अपने ‘स्व’ के अनुसार चलेगा, अपना एक व्यक्तित्व दुनियाँ में खड़ा करेगा। भारत को चलने के लिए भारत का अपना तंत्र चाहिए।

ऐसा विचार करके हमारे नेताओं ने हमें एक तंत्र दिया। छब्बीस जनवरी, उन्नीस सौ पचास के दिन हमने हमारे तंत्र को लागू कर दिया। संसद में तो वह इससे पहले नवम्बर, 1949 में ही आ गया था। अपने तंत्र के प्रतीक के नाते जिस तीन रंग के ध्वज को निश्चित किया, उसे हम प्रतिवर्ष छब्बीस जनवरी को फहराते हैं और उसकी वंदना करते हैं। जब हम अपने ध्वज को देखते हैं, उसके रूप का विचार करते हैं, तब हमें ध्यान में आता है कि हमारा तंत्र है क्या और उस तंत्र के प्रति हमारा कर्तव्य क्या है?

हमारा ध्वज तीन रंग का है

हमारे ध्वज में तीन रंग हैं। सबसे ऊपर केसरिया रंग है, जिसे भगवा रंग भी कहते हैं। हमारे देश की परम्परा में भगवा सर्वमान्य श्रद्धा से देखा जाने वाला रंग है। कोई साधु-सन्त भगवा पहन कर आता है, तब हम सहज ही उसके समक्ष झुक जाते हैं और उनके चरण स्पर्श करते हैं क्योंकि यह भगवा रंग ज्ञान का, त्याग का, प्रकाश का प्रतीक है। सूर्योदय के समय आकाश का रंग जैसा हो जाता है, वैसा यह रंग है। हमारा देश भारत तेज की उपासना करने वाला, ज्ञान की उपासना करने वाला ज्ञान-विज्ञान युक्त सकारात्मक चिंतन करने वाला देश है। इसलिए हमारे देश का नाम भारत है। ‘भा’ अर्थात् तेज, जो तेज में रत रहता है, वह भारत है। ज्ञान-विज्ञान, तेजस्विता, प्रकाश सम्पन्न, तमस से हटकर मनुष्य जीवन को निरन्तर उन्नत करते रहने वाले प्रकाश की उपासना करने वाला भारत हमें खड़ा करना है। इसलिए केसरिया रंग को ध्वज के शिरोभाग में रखा गया है।

भगवा रंग त्याग का रंग है

भगवा रंग प्रकाश व ज्ञान के साथ-साथ त्याग का भी प्रतीक है। हमारा कर्तव्य है कि हम ऐसा भारत खड़ा करें जो त्याग को धारण करने वाला हो। जो स्वार्थ के लिए जीने वाला न हो, त्याग के लिए जीने वाला हो। भारत ने कभी अपना स्वार्थ देखकर जीवन नहीं जिया। दुनियाँ भर के देशों के लोग अच्छा जीवन, सफल जीवन, सार्थक जीवन जीने का तरीका हम से सीखें, ऐसा जीवन खड़ा करने के लिए हम जीते हैं। जब भारत खड़ा होता है तब सारी दुनिया को खड़ा करता है, सारी मानवता में सुख-शान्ति लाता है। ऐसा करने के लिए भारत के लोग त्यागमय जीवन जीते हैं। त्याग का सन्देश देने वाला यह भगवा हमारे ध्वज का पहला रंग है।

भारत का स्वभाव है, प्रकाश की आराधना, तेजस्विता की आराधना। भारत के नागरिकों का कर्तव्य है निस्वार्थ बुद्धि से त्यागमय जीवन जी कर अन्यों का भला करना, परहित करना। उसी को हमारे यहाँ धर्म कहते हैं। तुलसीदास जी ने कहा है –

“परहित सरिस ध्रम नहीं भाई, पर पीड़ा सम नहीं अधमाई।”

अर्थात् परहित के समान कोई धर्म नहीं है और परपीड़ा के समान कोई अधर्म नहीं है।

सफेद रंग पवित्रता का रंग है

हमारे ध्वज में दूसरा रंग है, सफेद। सफेद रंग शुद्धता व पवित्रता का प्रतीक है। ज्ञानी तो रावण भी था, परन्तु उसका मन मैला था। मन में काम-वासना थी, मन में अहंकार था। केवल ज्ञानी होने से नहीं चलता, ज्ञान के उपयोग की सही दिशा होनी चाहिए, अन्यथा अहंकारी लोग ज्ञान का उपयोग विवाद के लिए करते हैं। धनवान होकर मद चढ़ जाता है और बलवान लोग अत्याचार करते हैं। लेकिन जब इन सबको अच्छाई की दिशा मिलती है, पवित्रता की दिशा मिलती है, निर्माण की दिशा मिलती है, वे विद्या का उपयोग ज्ञान-दान के लिए करते हैं, धन का उपयोग सेवा-परोपकार के लिए करते हैं और बल का उपयोग दुर्बलों की रक्षा के लिए करते हैं। ऐसी पवित्र भावनाएँ, पवित्र इच्छाएँ लेकर सबके कल्याण के लिए जीवन जीना है तो उसके लिए मन में भक्ति चाहिए। हमने अभी भारत माता की आरती की, ऐसी भक्ति हमारे मन में चाहिए।

हमारी दृष्टि वसुधैव कुटुम्बकम् की है

भक्ति का एक भाग है, प्रेम। सबके प्रति हमारी दृष्टि क्या है? सब लोग हमारे अपने हैं। हमारे यहाँ तो सदियों से कहा जा रहा है, ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ अर्थात् सम्पूर्ण वसुधा हमारा परिवार है, सब हमारे अपने हैं। नानाजी देशमुख से एक बार पूछा गया, ‘आपने अपने जीवन में क्या-क्या किया?’ उन्होंने कहा कि मैं कैसे बताऊँ कि मैंने क्या किया है? क्योंकि मैंने मेरा जीवन अपने लिए जिया ही नहीं। हम अपनों के लिए जीते हैं और अपने वे हैं जो अभाव में हैं, जो पीड़ा में हैं, जो असमर्थ हैं, जो दरिद्र हैं। उनके अज्ञान को, उनकी गरीबी को, उनके अभाव को, उनकी पीड़ा को, उनके दुःख को दूर करने के लिए हमारा जीवन है। ऐसी आत्मीयतापूर्ण दृष्टि सब पर रखना, यह भी भक्ति का एक अंग है। उनके लिए सब कुछ समर्पण करना, यह भक्ति का दूसरा अंग है। कमाना किसके लिए? उनके लिए कमाना, उनको सब कुछ दे देना। एक गीत आप विद्यालय में गाते हो- ‘‘देश हमें देता है सब कुछ, हम भी तो कुछ देना सीखें।’’ सब लोग देते हैं, इसलिए विश्व चलता है। हमको भी देना है, इतना देना है कि देने के बाद भी देने की इच्छा बनी रहे। ‘मन समर्पित तन समर्पित और यह जीवन समर्पित। चाहता हूँ देश की धरती तुझे कुछ और भी दूँ।।’

सब कुछ देने के बाद भी और देने की इच्छा रह जाये, ऐसी भक्ति, ऐसी निर्मलता, कर्तव्य भक्ति है। कर्मों की, इच्छा की, भावना की निर्मलता हमारा स्वभाव है।

हरा रंग समृद्धि का प्रतीक है

हमारे ध्वज में तीसरा रंग है, हरा। हरा रंग लक्ष्मी का प्रतीक है, समृद्धि का प्रतीक है। समृद्धि के लिए मेहनत करनी पड़ती है। हम अपने देश को वैभव सम्पन्न बनायेंगे। हमारा देश त्यागी लोगों का देश है। ज्ञान की उपासना करने वालों का देश है। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि हम दरिद्र रहेंगे। हम अपने देश को ऐसा समृद्ध देश बनायेंगे जो अपनी समृद्धि का उपयोग सारी दुनियाँ की सेवा के लिए करता है। समृद्धि का अहंकार लेकर नहीं घूमता अपितु अपने लोगों का उपयोग, अपनी सम्पत्ति का उपयोग, अपनी समृद्धि का उपयोग दुनियाँ को अच्छा बनाने के लिए करता है। ऐसा देश बनाने के लिए हमें परिश्रम करना है। जब किसान खेत में परिश्रम करता है, तब सर्वत्र हरा-भरा होता है, बिना परिश्रम किये नहीं। इसलिए हरा रंग हमें सतत कर्मशीलता का, कर्तव्य का सन्देश देने वाला रंग है।

ध्वज के बीच में धर्मचक्र है

अपना ध्वज त्याग, कर्म, भक्ति एवं कर्तव्य का बोध करवाने वाला है। इस ध्वज के बीचोंबीच धर्मचक्र है। ‘धर्म’ शब्द अपना है, भारत का है। इसका अर्थ दूसरी भाषाओं में नहीं मिलता, भारतीय भाषाओं में ही ‘धर्म’ है। लोग गलती से धर्म को पूजा के साथ जोड़ते हैं। यह पूजा के अर्थ का शब्द नहीं है। हाँ, उसमें अनेक पूजा पद्धतियाँ अवश्य हैं। पूजा उसका एक छोटा सा अंग है, किसी विशिष्ट पूजा के साथ वह नहीं जुड़ा है। धर्म सबको जोड़ता है, सबको उन्नत करता है, सबको एक रखता है, बिखरने नहीं देता। ऐसे धर्म की साधना अपने ज्ञान, कर्म व भक्ति के द्वारा भारत करेगा। भारत स्वयं वैभव सम्पन्न बनकर सारी दुनियाँ को सुखी रखेगा। यह भारत का स्वभाव है।

हमारे स्वभाव के अनुसार हमारा तंत्र बना है

इस दिन जिस संविधान को हमने स्वीकार किया है, उस संविधान की हम प्रस्तावना (Preamble) देखते हैं। संविधान में जो मार्गदर्शक तत्त्व हैं, उनको देखते हैं। जो नागरिकों के कर्तव्य बताए हैं और नागरिकों के जो अधिकार चिन्हित किए हैं, उनको देखते हैं। तब हमारे ध्यान में आता है कि यह तो हमारा स्वभाव है और उस स्वभाव के अनुसार ही हमारा तंत्र बना है। इस तंत्र को, हमारे इस स्वभाव को समझकर उसके अनुसार व्यवहार करना, यह हमारा काम है।

यह हमारा गणराज्य है, यह हमारा प्रजातंत्र है। अर्थात् इस देश के राजा हम हैं। राजा को सब अधिकार रहते हैं, लेकिन साथ में कर्तव्य भी रहते हैं। हम सबको भी अपने कर्तव्य समझकर उनका पालन करना पड़ेगा।

डॉ॰ अम्बेडकर जी का स्पष्ट निर्देश

संविधान निर्माता डॉ॰ बाबा साहेब अम्बेडकर ने इस संविधान को प्रजा को सौंपते समय संसद में दो भाषण दिये थे। उन भाषणों में स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् हम सब को किस अनुशासन में रहना है, इसका स्पष्ट निर्देश है। हमें उन निर्देशों का पालन करके चलना पड़ेगा। जब सबको मिलकर चलना है तो अनुशासन चाहिए, संयम चाहिए, यह समझ चाहिए कि अपने कर्तव्यों की पूर्ति में ही हमारे अधिकारों की सुरक्षा निहित है।

अनेक लोगों के त्याग व बलिदान से प्राप्त हुई इस स्वतन्त्रता का ‘स्व’ के अनुसार बना हुआ जो तंत्र है, उसे हम समझकर चलायें। अपनी कर्तव्य बुद्धि से चलायें, भक्तिभाव से चलायें। उसके अनुशासन के प्रति पूज्य भावना रखते हुए चलायें।

हमें कर्तव्य पथ पर आगे बढ़ना है

जिस वैश्विक भलाई की आकांक्षा लेकर स्वतन्त्रता की जो ऊर्जा जगी, वह देखते ही देखते सफल भी हो गई। उस जागतिक भलाई को साकार करने वाला समर्थ, वैभव सम्पन्न और परोपकारी भारतवर्ष हम सब लोग मिलकर खड़ा करेंगे। इस संकल्प का स्मरण करना, इस संकल्प की पूर्ति के लिए अपने आप में परिवर्तन करना और कर्तव्य पथ पर आगे चलना है। इस संकल्प पूर्ति के लिए हम प्रतिवर्ष गणतंत्र दिवस मनाते हैं। आज भी हम उसी प्रकार का विचार करें, चिन्तन करें।

(भारतीय शिक्षा दृष्टि – डॉ. मोहन भागवत,  पुस्तक से साभार।)

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