– दिलीप वसंत बेतकेकर
गांव का मेला, नाटक अथवा किसी विशेष त्यौहार के अवसर पर बच्चों के हाथ में कुछ पैसे देने के दिन अब पीछे छूट गये हैं। छोटी सी वस्तु की खरीदारी भी पहले माँ-पिता ही करते थे। अब समयांतर से बच्चों के हाथ में भी पैसे दिखने लगे हैं। उच्च माध्यमिक शाला अथवा कॉलेज की बात तो दूर, अब शालेय विद्यार्थियों की जेब भी पैसों से खनखनाने लगी है ‘पॉकेटमनी’ शब्द अब अपरिचित नहीं रहा! घर से बाहर निकलते हुए रुमाल, कंघी, शाला की पुस्तकें और अन्य वस्तुओं के साथ ‘पॉकेटमनी’ रखना अपरिहार्य हो गया है।
‘पॉकेटमनी’ विषय पर ही विद्यार्थी और पालकों का एक सर्वेक्षण करने का विचार मन में आया। सर्वेक्षण हेतु पालक और विद्यार्थियों के लिये अलग-अलग प्रश्नावली तैयार की। दोनों को ही बारह-बारह प्रश्नों की प्रश्नावली दी गई।
49 कॉलेज और 40 ग्यारहवीं के विद्यार्थियों ने प्रश्नावली में उत्तर लिखकर प्रतिसाद दिया। उच्चतर माध्यमिक के 40 में से 17 पालकों ने प्रतिसाद दिया, कॉलेज के सभी 49 पालकों का प्रतिसाद प्राप्त हुआ। कॉलेज के सभी और उच्चतर माध्यमिक के 33 विद्यार्थियों को ‘पॉकेटमनी’ मिलता है। माँ की ओर से पैसे प्राप्त होने वालों की संख्या 24 और पिताजी की ओर से 43 विद्यार्थियों को प्रतिदिन अथवा प्रतिसप्ताह अथवा प्रतिमाह मिलता है। इस प्रश्न को 34 विद्यार्थियों ने प्रतिदिन मिलता है लिखा तो प्रति सप्ताह मिलने वालों की संख्या 28 थी। मासिक पॉकेटमनी प्राप्त करने वाले विद्यार्थी 19 थे। इनमें से कॉलेज के 18 विद्यार्थी, किन्तु उच्चतर माध्यमिक का केवल 1 विद्यार्थी था।
कितना पॉकेटमनी मिलता है? इस प्रश्न पर 100 रुपये से कम राशि प्राप्त करने वालों की संख्या 50 और 100 रुपये से अधिक राशि प्राप्त करने वाले 24 विद्यार्थी थे। 200 रुपये मिलने वाला 01, तो बारह सौ रुपये मिलने वालों की संख्या 2 थी। 59 विद्यार्थी मिलने वाली पॉकेटमनी राशि से संतुष्ट थे, किन्तु 20 विद्यार्थियों को मिलने वाली राशि अपर्याप्त लगी।
प्रमुखता से इस पॉकेटमनी का उपयोग कैंटीन के लिये, अन्यत्रा ठेले वाले के पास जाकर खाने के लिये अथवा मोबाइल रीचार्जिंग के लिये किया जाता पाया गया। कुछ कॉलेज के विद्यार्थी कॉलेज में मोटरसाइकिल लेकर जाते हैं। परन्तु बाइक के लिए पेट्रोल का खर्च पॉकेटमनी में दर्शाया नहीं गया। 18 विद्यार्थी पालकों से रोज पैसे मांगते पाये गये। 44 विद्यार्थियों को कभी-कभी मांगने की आवश्यकता होती है। 22 विद्यार्थियों को बिन मांगे ही घर से पैसे दिये जाते हैं।
बच्चों को पैसे देने पर उन्होंने उसे किस प्रकार उपयोग किया, इसका हिसाब अथवा पूछताछ करने वाले पालक 13 थे। कभी-कभी पूछताछ करने वाले पालक 35, तो कभी भी न पूछने वाले 16 पालक थे।
पॉकेटमनी का हिसाब पालकों द्वारा मांगा जाए अथवा नहीं? इस प्रश्न के उत्तर आश्चर्यजनक थे। 67 विद्यार्थियों को ‘हिसाब मांगा जाये’, ऐसी अपेक्षा थी तो केवल 9 विद्यार्थियों को हिसाब नहीं मांगा जाए, ऐसी इच्छा थी।
एक प्रश्न था- प्राप्त पैसों में से कुछ बचते हैं क्या? कॉलेज और उच्चतर माध्यमिक के विद्यार्थी दोनों मिलकर 24 थे जो बचत करते थे, 50 विद्यार्थी कभी-कभी बचत करने वाले थे तो 8 विद्यार्थी कभी भी बचत न करने वाले थे। 67 विद्यार्थियों ने बचत खाते खोले थे। 15 विद्यार्थियों के बचत खाते नहीं थे।
पॉकेटमनी की आवश्यकता है क्या? इस प्रश्न पर कॉलेज स्तर पर 100 प्रतिशत सहमति दर्शाई गई। उच्चतर माध्यमिक स्तर पर 33 विद्यार्थियों द्वारा ‘पॉकेटमनी’ आवश्यक बताई तो 6 विद्यार्थियों द्वारा ‘आवश्यक नहीं है’ भी लिखा गया।
पालकों से भी बारह प्रश्नों की एक प्रश्नावली भरवाई गई। कॉलेज के सभी पालकों ने प्रश्नावली के उत्तर दिये। उच्च माध्यमिक विद्यालय के पालकों से केवल 50 प्रतिशत ने प्रतिसाद दिया। केवल दो पालकों के अतिरिक्त शेष सभी ने बताया कि अपने पाल्य को प्रतिदिन, प्रति सप्ताह अथवा प्रति माह ‘पॉकेटमनी’ देते हैं। पांच वर्ष के आयु के बच्चों को पैसे देने वाले 12, दस वर्ष आयु वाले 12 और पन्द्रह वर्ष आयु वर्ग से 41 पालक पाए गए।
हम जो राशि पाल्य को देते हैं वह पर्याप्त है, कहने वाले 58 पालक थे। 8 पालकों को वह अपर्याप्त लगती है। दी हुई राशि का हिसाब लेना आवश्यक है समझने वाले 61 पालक, तो हिसाब न मांगने वाले 6 पालक पाये गये। बच्चों को पॉकेटमनी की आवश्यकता है, ऐसा 63 पालक मानते हैं किन्तु 3 पालक इसे आवश्यक नहीं मानते।
इस सर्वेक्षण से कुछ प्रमुख बातें सामने आईं –
1 आज के बच्चों को ‘पॉकेटमनी’ की आवश्यकता है ऐसा पालक व पाल्य दोनों मानते हैं। वह कितनी राशि हो और कब से देना चाहिए ये निर्णय लेते समय अनेक बातों पर ध्यान देना चाहिए।
2 दी हुई राशि का हिसाब लेना-देना चाहिये, इस बात पर पालक-पाल्य दोनों सहमत हैं। साथ ही यह हिसाब मांगना अथवा देना, इस बारे में पूछताछ पद्धति मित्ररूप से होनी चाहिये। भाषा भी लेखाधिकारी जैसी न होकर प्यार भरी हो।
3 अनेक विद्यार्थियों के बचत खाते हैं, किन्तु नियमित बचत करने वाले केवल 16 पाये गये। बचत कितनी करें ये महत्वपूर्ण नहीं है, किन्तु बचत करने की आदत विद्यार्थी जीवन से ही होनी चाहिये।
4 बाहरी, दुकान में रखा जंक अथवा फास्ट फ़ूड खाने की प्रवृत्ति आजकल अधिक देखने में आती है। इससे पैसा अनावश्यक और अधिक खर्च होता है। आरोग्य पर भी विपरीत परिणाम होता है। अतः इसमें उचित जागृति आवश्यक है।
हमारे बचपन में हमें ऐसी कभी आवश्यकता नहीं रही, न ही हमें ऐसी राशि कभी किसी ने दी! किसलिये चाहिये पैसे? एक और ऐसी विचारधारा थी, तो दूसरी ओर वर्तमान में – हमारे पास पर्याप्त पैसा है तो देंगे बच्चों को खर्च करने के लिये। कौन सी परेशानी है इसमें? ऐसी विचारधारा रखने वाले भी हैं।
अतः इन दोनों ही विचारधाराओं के मध्य का मार्ग अपनाते हुए बच्चों को पैसा दें, परन्तु साथ ही सद् विचार और सदुपयोग की दृष्टि बच्चों को प्राप्त होने दें।
(लेखक शिक्षाविद् है और विद्या भारती अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष है।)
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