– डॉ विकास दवे
प्रिय बिटिया,
नन्ही सी मनु कच्छ लगाए जब मैदान में तलवार घुमाती थी तो बड़ा मनोहारी दृश्य उपस्थित हो जाता था। दीपशीखा सी तलवार लिए वे कभी इधर तो कभी उधर लपकती झपटती रहती और माता पिता आनंद की प्राप्ति करते रहते। इस अभ्यास में तात्या का साथ और मार्गदर्शन मनु को सदैव सम्बल देता रहता। इतिहास में घटित होने वाली घटनाएँ शायद इसी समय नियति के गर्भ में पल रही थी।
समय के साथ तरुणी हुई लक्ष्मी विवाह पश्चात झांसी की रानी बन गई। अभी जीवन गृहस्थी की पगडंडी पर चलना चाहता ही था कि वज्रपात हो गया। लक्ष्मीबाई विधवा हो गई। गोद लिया बालक दामोदर ही अब उनकी आशा का एकमात्र केन्द्र था लेकिन डलहौजी जैसे गोरों ने ऐसे अवसरों के लिए पहले ही अपना निर्णय तय किया हुआ था। फैसला सुना दिया गया – ‘झांसी अंग्रेजी सरकार को सौंप दी जाये।’ और तब एक हूंकार पूरी झाँसी ही नहीं बल्कि पूरे बुन्देलखण्ड में गूज उठी “मैं अपनी झाँसी नहीं दूंगी”। इसमें ‘मैं’ अहंकार नहीं राष्ट्रभक्ति भरी थी। यह ‘मैं’ एक अकेली अबला का नहीं बल्कि बुन्देलखण्ड के आबालवृद्ध नागरिकों का स्वर था।
हृयूरोज अपनी फौज लेकर 6 जनवरी, 1858 को मऊ से चला। रायगढ़, सागर, बानपुर और चंदेर को अपने पैरो तले रौंदता वह राक्षस आ पहुंचा था झाँसी से मात्र 14 मील की दूरी पर। रानी का तेज बच्चों, महिलाओं और पुरुषों में प्रेरणा का उफान भर रहा था। किले की हर छोटी बड़ी व्यवस्था रानी की निगाहों में थी। 24 मार्च को आसमान थर्रा देने वाले तोप के धमाकों के साथ रण प्रारंभ हुआ तो फिर किसे फुर्सत थी अपने घावों की, बहते रक्त की और अर्पित हो रहे शरीरों की। झाँसी की अचूक तोप ने पहले ही दिन गोरों के तोपखानों के परखच्चे उड़ा दिए।
31 मार्च तक भीषण संग्राम में ह्यूरोज यह देखकर चकित था कि महिलाएँ गोलाबारूद लाने, भोजन पानी की चिन्ता करने, तोप चलाने से लेकर घोड़ों पर चढ़कर तलवारें चलाने तक सारे कार्य कर रही थी। यह परिणाम था लक्ष्मीबाई के कुशल तेजस्वी नेतृत्व का। इसी समय बालसखा तात्या टोपे अपनी सेना लेकर गोरों की पीठ के पीछे आ धमके।
लेकिन अप्रशिक्षित सेना गोरी फौज के आगे टिक नहीं पाई। चुनिंदा सहयोगियों के साथ लक्ष्मीबाई अपने बेटे दामोदर को पीठ पर बांधे अपने प्रिय घोड़े पर बैठ जंगल की राह चली। राह में लेफ्टीनेंट बाकर जैसे शत्रु ने राह रोकने की कोशिश की तो उसे भी अधमरा कर वे चलती रही। 102 मील की यात्रा ने उन्हें थका जरूर दिया लेकिन हिम्मत ने साथ न छोड़ा। कालपी पहुंचकर एक बार फिर भीषण संघर्ष हुआ था रानी का अंग्रेजी फौज से। अन्तत: पीठ पर किए वारों ने रानी को ढेर कर दिया साथ चल रहे वफादार नौकर रामचन्द्रराव ने रानी की देह को उठाकर पास ही स्थित स्वामी हरिदास जी की झोंपड़ी तक पहुँचा दिया। स्वामी जी ने ससम्मान उनकी चिता सजाई और अपनी झोंपड़ी सहित उस पावन देह को अग्नि देव को सौंप दिया।
20 जून, 1758 के दिन मात्र 21 वर्ष की आयु में अपने प्राणों का दीप जलाकर राष्ट्रदेव की आरती उतारने वाली इस क्रांतिबाला के लिए किसी कवि ने ठीक ही कहा है –
जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी।
तेरा स्मारक तू ही होगी तू खुद अमिट निशानी थी।।
-तुम्हारे पापा
(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ सर्वाधिक प्रसारित बाल मासिक पत्रिका के संपादक है।)
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