- – डॉ विकास दवे
प्रिय बिटिया!
महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के येवला ग्राम के निवासी श्री पांडुरंग भट श्रुति और स्मृतियों के उद्भट विद्वान थे। वे बाजीराव पेशवा (द्वितीय) के आश्रय में रह रहे थे। पांडुरंग भट और उनकी अर्धांगिनी रूक्माबाई सदैव यही कल्पना करते थे कि उनका पुत्र भी पिता जैसा आध्यात्मिक ज्ञानी होगा किन्तु नियति ने तो कुछ और ही सोच रखा था इस बालक के लिए।
अनुज गंगाधर ने जब अपने बड़े भैया को ‘तात्या’ (मराठी में बड़ा भाई) कहकर पुकारा तो मानों यह उसका नामकरण ही हो गया। तात्या, बाजीराव द्वितीय के पुत्र नाना, और उनकी मुँहबोली बहन ‘मनु’ साथ-साथ ही पल बढ़ रहे थे। समय मानों क्रांति के सूत्र अभी ही एक स्थान पर एकत्र कर रहा था। शस्त्र संचालन के अभ्यास के दौरान ही बाजीराव ने तात्या को एक बहुमूल्य रत्नजड़ी ‘टोपी’ उपहार में देकर पहनाई। इसी समय पहली बार उन्होंने तात्या को ‘टोपी’ कहकर पुकारा। बाद में यही विशेषण ‘टोपे’ बनकर उसके साथ रहा। शायद यह भी नियति की सोची समझी व्यवस्था थी कि जिस ‘रामचन्द्र भट’ का न नाम अपना रहा न उपनाम, वह ‘तात्या टोपे’ बनकर स्वयं का कैसे रहता। वह हो गया पूरे राष्ट्र का, पूरे समाज का।
शिवाजी की परम्परा के इस अंतिम सेनानी ने उन्हीं की छापामार युद्धशैली में अंग्रेजी हुकूमत को नाकों चने चबवा दिये। बचपन के साथी ‘नाना’ अब नाना साहब पेशवा बन चुके थे और ‘मनु’ अब हो गई थी झांसी की रानी लक्ष्मीबाई।
इनके अलावा भी 1857 की क्रांति के सभी सूत्र आकर कालपी से जुड़ गये थे। बांदा के नवाब अली बहादुर, शाहपुरा के राजा, बानपुर के राजा, फर्रूंखाबाद के नवाब आदि। 23 मई 1858 को हुए भीषण संग्राम का परिणाम अत्यन्त निराशाजनक रहा। उनके लगभग सभी साथी फांसी पर चढ़ा दिये गये।
तात्या आंधी की तरह आते और तूफान की तरह गुजरते लेकिन यह तूफान राष्ट्रप्रेम का होता था, देशसेवा का होता था। साथ ले जाता था सैनिकों की विशाल वाहिनियाँ, तोपखाने और बड़ी आर्थिक सहायता। यह आँधी कालपी से ग्वालियर, जौरा-आलमपुर, सरमथुरा (जिला. भरतपुर), जयपुर, दौसा, लालसोट, टोंक, इन्द्रगढ़, बूँदी, उदयपुर, भीलवाड़ा, श्रीनाथद्वार, कोटड़ा, झालरापाटन, इन्दौर, नागपुर, बड़ौदा, बाँसवाड़ा फिर इन्द्रगढ़ होते हुए सीकर तक जा पहुंची। आँधी के इस मार्ग को यदि आज के आधुनिक ‘गुगल मेप’ पर देखोगी तो आश्चर्य से दांतो तले अंगुली दबा लोगी। ‘लाल टोपी’ वाली विशाल अंग्रेजी फौज इस एक ‘टोपी’ के आगे न केवल अस्त-व्यस्त और त्रस्त हुई बल्कि ध्वस्त भी हुई। इस आंधी में जो बड़े-बड़े पेड़ ध्वस्त हुए उनमें जनरल विंडहम, कैम्पबेल, कर्नल रॉबटर्सन, कर्नल होम्स, कर्नल पार्क, मिचेल, होपलॉक, होर्ट आदि अनेक नाम शामिल हैं। कर्नल रॉक जैसे छोटे-छोटे पौधें तो यूंही धराशाई हो गए इस वेग के सामने।
अब तात्या थक गए थे लड़ते-लड़ते। वे बाकी समय शांति से बिताना चाहते थे। इसमें सहयोगी बने उनके विश्वस्त साथी नरवर सरदार मानसिंह जिनके फैलाए भ्रम के कारण ब्रिटिश सेना ने नारायण राव भागवत नामक तात्या के साथी को तात्या टोपे समझ लिया और बन्दी बना लिया। 18 अप्रैल, 1859 को नारायण राव को मृत्युदण्ड दे दिया। तात्या अब संन्यासी हो गए। 1909 तक वन प्रांतर में भ्रमण करते हुए उनने देह त्यागी।
– तुम्हारे पापा
(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ सर्वाधिक प्रसारित बाल मासिक पत्रिका के संपादक है।)
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