राष्ट्र चेतना, सांस्कृतिक गौरव एवं हिन्दुत्व चिंतन की प्रधानता है सावरकर जी के लेखन में

 – रमेश शर्मा

स्वातंत्र्यवीर विनायक सावरकर का पूरा जीवन राष्ट्र चेतना और सांस्कृतिक गौरव की पुनर्प्रतिष्ठा के लिये समर्पित रहा। बालवय से जीवन की अंतिम श्वाँस तक वे कभी रुके नहीं और न कहीं झुके। उनका अभियान केवल स्वतंत्रता संग्राम तक सीमित नहीं था। उनका लक्ष्य एक ऐसे सशक्त और समृद्ध भारत का निर्माण करना था जैसा अतीत में कभी रहा है। वे शौर्य और सामर्थ्य से युक्त ऐसी पीढ़ी का निर्माण करना चाहते थे जो अपने पूर्वजों की परंपरा पर गर्व करते हुये भविष्य के भारत का निर्माण करे। सावरकर जी ने एक ओर स्वतंत्रता संग्राम के लिये एक पूरी पीढ़ी तैयार की और दूसरी ओर ऐसे कालजयी साहित्य की रचना की जो आने वाली पीढ़ियों के लिये भी मार्गदर्शन कर सके। उनकी हर रचना में स्वत्व, स्वाभिमान और राष्ट्रबोध का प्रबल ज्वार है।

किसी भी व्यक्तित्व का निर्माण उसके परिवार की पृष्ठभूमि और बालपन में मिले संस्कारों से होता है। परिवार का मानस जिस विचार और भाव की ओर झुका होता है, बच्चों की चिंतनधारा भी उसी ओर अपनी वैचारिक यात्रा आरंभ करती है। सावरकर जी के पूर्वजों की पीढ़ियों से भारत के सांस्कृतिक गौरव की स्थापना और चेतना जागरण के लिये ही समर्पित रही हैं। पिता दामोदर जी सावरकर महाभारत और श्रीमद्भागवत के अद्भुत विद्वान थे और इन ग्रंथों की कथाओं और प्रसंगों के माध्यम से समाज जागरण का जागरण कर रहे थे। परिवार की इस पृष्ठभूमि का प्रभाव सभी बच्चों पर भी पड़ा। पूरा परिवार स्वतंत्रता आँदोलन में सक्रिय हुआ और अवर्णनीय प्रताड़ना सहकर भी स्वाभिमान से समझौता नहीं किया।

सावरकर जी की रचनाशीलता

सावरकर जी का जीवन और संघर्ष दोनों बहुआयामी थे। उसी प्रकार उनका लेखन भी विविधता और निरंतरता से भरा है। उनका लेखन बालवय में ही आरंभ हुआ और उनके जीवन संघर्ष की भाँति अनवरत रहा। उनका जीवन किसी भी मोड़ पर रहा हो, पर उनका लेखन कभी रुका नहीं। वे शालेय विद्यार्थी रहे हो या लंदन में वकालत के अध्येयता अथवा अंडमान निकोबार में काला पानी जेल की कठोर यातानाओं के बीच, उनका लेखन कभी नहीं रुका। उनके व्यक्तित्व की संकल्पशीलता, यथार्थता, दूरदर्शी चिंतन उनके लेखन में है। उन्होंने प्रत्येक विधा में साहित्य रचना की। गीत, कविता, लघुकथा, आलेख, नाटक, कहानी, उपन्यास आदि सभी विधाओं में उनका लेखन उपलब्ध है। बालवय में उनका लेखन कब आरंभ हुआ यह विवरण तो नहीं मिलता। लेकिन जब वे मात्र ग्यारह वर्ष के थे, तब उन्होंने अपने विद्यालय में भारत के लौकिक स्वरूप पर आधारित एक स्वरचित कविता ‘स्वदेशी छाप’ सुनाई थी। इस रचना में भारत के प्राकृतिक स्वरूप का ओज पूर्ण चित्रण था। रचना में यद्यपि अंग्रेजी शासन के प्रति कोई कटाक्ष नहीं था लेकिन भारत के प्राकृतिक स्वरूप के गौरव का चित्रण था। इसकी चर्चा पूरे विद्यालय में हुई और शिक्षकों की भृकुटियाँ तन गईं।

1902 में मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण करके पुणे के फर्ग्यूसन कॉलेज में बी.ए. करने आये। कॉलेज में उनकी ओजपूर्ण कविताओं की धाक बन गई। उनकी रचनाएँ तलवार और इंडियन सोशियोलाजिस्ट नामक पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई। कुछ रचनाएँ कलकत्ता के युगान्तर में भी प्रकाशित हुईं। उनकी रचनाओं ने भारत के युवाओं में नये ओज का संचार हुआ। कलकत्ता का ‘युगान्तर’ क्राँतिकारियों में लोकप्रिय था। उसमें रचनाएँ प्रकाशित होने से सावरकर जी सभी क्राँतिकारियों में लोकप्रिय हो गये। लेकिन जिस रचना ने पूरे यूरोप और भारत में तहलका मचाया, वह 1857 की क्रान्ति पर उनका ग्रंथ था। ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित संसार की यह पहली रचना थी जिसके प्रकाशन से पहले प्रतिबंध लगा था। सावरकर जी ने 1857 के इस संघर्ष को भारतीय स्वतंत्रता के लिये ‘क्राँति’ लिखा था। उनसे पहले 1857 के संघर्ष को ‘गदर’ अथवा सैनिक विद्रोह ही कहा जाता था। सावरकर जी पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने इसे स्वतंत्रता को ‘जन संघर्ष’ माना और जन सहभागिता प्रमाणित की। इस ग्रंथ की रचना लंदन में हुई। सावरकर जी वकालत पढ़ने लंदन गये थे। वे अपनी वकालत की निर्धारित पढ़ाई के साथ लंदन के संग्रहालय जाकर ऐतिहासिक दस्तावेजों का अध्ययन भी करते थे। उन्होंने वहाँ 1857 से संबंधित सभी दस्तावेजों का अध्ययन किया और यह ग्रंथ ‘द इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस 1857’ तैयार हुआ। इस ग्रन्थ की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि इसमें वर्णित सभी घटनाक्रमों का आधार अंग्रेजों के सैन्य अधिकारियों की डायरियों को आधार बनाया था। ग्रंथ 1908 में पूरा हो गया था। इसकी भनक अंग्रेजों को लग गई थी। वे तथ्यों का तो खंडन नहीं कर सकते थे लेकिन उन्होंने इसके प्रकाशन पर प्रतिबंध लगा दिया। इसीलिए ब्रिटेन और फ्राँस का कोई प्रकाशक प्रकाशन के लिये तैयार न हुआ। अंततः यह ग्रंथ 1909 में नीदरलैंड से प्रकाशित हो सका। यह पुस्तक ‘पीक वीक पेपर्स व स्काउट्स पेपर्स’ नाम से भारत भेज दी गई। तब सावरकर जी की आयु मात्र अट्ठाइस वर्ष थी। इसी वर्ष सावरकर जी ने वॉर एट लॉ अर्थात वकालत परीक्षा उत्तीर्ण की। लेकिन सावरकर जी ने ब्रिटेन की महारानी के प्रति वफादारी की शपथ लेने से इंकार कर दिया इस कारण उन्हें वकालत की अनुमति नहीं मिली।

उन्हीं दिनों क्राँतिकारी मदनलाल ढींगरा ने लंदन में कर्जन वायली को गोली मार दी। सावरकर जी ने इस घटना पर एक लेख लिखा जो लन्दन टाइम्स में प्रकाशित भी हुआ। इस आलेख में उन्होंने जन सामान्य के उस गुस्से का संकेत किया था जो मदनलाल ढींगरा के माध्यम से प्रकट हुआ। इस हत्याकांड में सावरकर जी को भी आरोपी बनाया गया और वे 13 मई 1910 को लन्दन में गिरफ़्तार करके एम.एस. मोरिया नामक जहाज से भारत रवाना कर दिया गया। लेकिन सावरकर जी सीवर होल से समुद्र में कूद पड़े और तैरकर पेरिस पहुँचे। वहाँ गिरफ्तार कर लिये गये और दो आजीवन कारावास की सजा के साथ भारत की अंडमान निकोबार सेलुलर जेल भेज दिये गये। यहाँ उन्हें ‘खतरनाक कैदी’ की श्रेणी में रखकर कठोर यातानाएँ दीं गई, कोल्हू में बांधकर भी चलाया गया। इन अमानवीय यातनाओं के बीच भी उनका लेखन न रुका। जेल जीवन में उन्होंने एक पुस्तक ‘एसेंशियल्स ऑफ हिंदुत्व’ की रचना की। हिन्दुत्व की अवधारणा पर आधारित सामाजिक जीवन की यह पहली रचना मानी जाती है। इसमें सावरकर जी ने ‘हिन्दु’ और ‘हिन्दुत्व’ शब्द की व्याख्या की है। सावरकर जी की यह व्याख्या जाति, धर्म अथवा क्षेत्रीयता से परे है। उनके अनुसार जो व्यक्ति भारत को अपनी मातृभूमि और पितृभूमि मानता है वह हिन्दु है। इस परिभाषा के अंतर्गत स्वयं को हिन्दु मानने वाले प्रत्येक व्यक्ति के भीतर संचारित स्वत्व एवं स्वाभिमान की चेतना हिन्दुत्व है। इस रचना में उन्होंने ‘भारत वर्ष’ नाम और उसकी सीमाओं का भी विवेचन किया है।

जिस प्रकार सावरकर जी ने 1857 की क्रांति पर एक शोध ग्रंथ की रचना की उसी प्रकार उन्होंने मराठा साम्राज्य और हिन्दु पद पादशाही पर भी तथ्यात्मक ग्रंथ तैयार किया। इस ग्रथ में वे उन विशेषताओं को सामने लाये कि कैसै शून्य से आरंभ वह संघर्ष एक विशाल साम्राज्य बना और यह भी कि किन असावधानियों से उसका क्षय हुआ। उन्होनें अपने जेल जीवन पर आधारित आत्मकथा भी लिखी। इसमें गिरफ्तारी, मुकदमे से लेकर कारावास की दिनचर्या का भी विवरण है।

सेलुलर जेल के आरंभिक जीवन में उन पर बहुत कड़ाई थी। वे कोयले से दीवारों पर लिखकर याद करते थे। प्रथम विश्व युद्ध के समय से अत्याचार कम हुये और उनका लेखन बढ़ा।

विषमता कैसी भी रही हो, वह जेल की हो अथवा स्वास्थ्य की उनका लेखन कभी नहीं रुका।

 कालापानी जेल में लिखी गई उनकी एक कविता ‘जयस्तुते’ अद्भुत है। यह रचना स्वतंत्रता की देवी के लिये है। इसमें दर्द, ओज और संकल्प तीनों भाव समाये हैं-

ज्योस्तु तेश्रीमहनमांगले। शिवास्पदे शुभदे

स्वतंत्रते भगवती। त्वमहं यशोयुतां वंदे

राष्ट्राचेचैतन्य मूर्ति तूं नीतिसंपदांची

स्वतंत्रते भगवती। श्रीमतीराज्ञीतूत्यांची

परवशतेचयनभान्त तुंचीआकाशीहोशी

स्वतंत्रते भगवती। चाँदनी चमचम लक्षलक्षी।। गालोवरच्याकुसुमीकिंवाकुसुमांच्यागली

स्वतंत्रते भगवती। टचजीविलासत्से लाली

तुं सूर्याचेतेजउदधिचेगंभिर्यहि तुंची

स्वतंत्रते भगवती। अन्यथा ग्रहण नष्ट तेन्ची।।

मोक्ष मुक्तिहीतुझीच रूपें तुलाच वेदांती

स्वतंत्रते भगवतीयोगीजनपरब्रह्म वदति

जेजेउत्तममुदत्तउन्तमहन्मधुर तेनतें

स्वतंत्रते भगवती। सर्व त्वसहचरी घटित।।

हे अधम रक्त रंजिते। सुजन-पूजिते! श्रीस्वतंत्रते

तुजसठिं मरण तेन जनन

तुजविंजनानतेमरन्

तुजसकलचाराचरण

स्वतंत्रते भगवतीइत्वमहं यशोयुतावन्दे।।

हे मंगलमय, दयालु और पवित्र, आपकी जय हो!

अर्थात-

हे स्वतंत्रता की देवी, मैं आपसे सफलता का आशीर्वाद मांगता हूँ।

आप हमारी राष्ट्रीय भावना, हमारी नैतिकता और हमारी उपलब्धियों के मूर्त रूप हैं,

हे स्वतंत्रता की महिमामयी देवी, आप दासता के घोर अंधकार में भी धार्मिकता की रानी हैं,

हे स्वतंत्रता की देवी, आप आशा का चमकता सितारा हैं।

चाहे फूलों जैसे कोमल गालों पर, या फूलों जैसे कोमल गालों पर!

हे स्वतंत्रता की देवी,

आप आत्मविश्वास की लालिमा हैं!

आप सूर्य की चमक, सागर की महिमा हैं

हे स्वतंत्रता की देवी,

परन्तु आपके लिए स्वतंत्रता का सूर्य ग्रहणग्रस्त है।

उनका अधिकांश लेखन मराठी में हुआ लेकिन उन्होंने मराठी के अतिरिक्त संस्कृत, हिन्दी और अंग्रेजी में भी लिखा। भाषा की शुद्धि उनके लेखन की विशेषता थी। उन दिनों स्थानीय भाषा की रचनाओं में उर्दू या अरबी के शब्द आ जाते थे। लेकिन सावरकर जी के लेखन में उर्दू या अरबी के शब्द नहीं मिलते। उन्होंने कुल 38 पुस्तकें लिखीं, इनमें सबसे प्रसिद्ध ‘उषाय’, ‘संयतस्तखड्ग’ और ‘उत्तरक्रिया’ नाटक, ‘1857 का भारतीय स्वतंत्रता संग्राम’, ‘हिंदूपदपादशाही और छह गौरवशाली युग’ और ‘माझी जन्मथेप’ ‘माई लाइफ-टर्म’, इटली के क्राँतिकारी जोसेफ माजिनी की जीवनी, ‘शिखांचा इतिहास’ (सिखों का इतिहास), ‘मला के त्याचे’ और ‘गोमांतक’ है। इटली के क्रातिकारी जोसेफ की जीवनी लिखकर सावरकर ने भारत के क्राँतिकारियों को प्रेरणा दी तो मालाबार के नरसंहार पर ‘मोपला’ लिखकर सनातन हिन्दुओं के नर संहार की ओर पूरे भारत का ध्यान आकर्षित किया।

सावरकर जी के लेखन से ही 1857 क्रांति की वास्तविकता और अंडमान जेल में बरती जाने वाली अमानवीयता पूरे देश के सामने आ सकी।

सावरकर जी के लेखन में भारत की तत्कालीन सामाजिक और राजनैतिक परिस्थितियों की भी स्पष्ट झलक है। उनके आरंभिक लेखन में संपूर्ण भारतवासियों को एक सूत्र में बँधकर ‘ब्रिटिश शासन से मुक्ति के लिये जन जागरण’ करना है तो 1924 के बाद के उनके लेखन में सामाजिक चुनौतियों से सतर्कता भी है। मुस्लिम लीग के गठन के बाद कट्टरपंथी मुस्लिम राजनीति और उनको अंग्रेजी सरकार एवं चर्च के समर्थन का गठजोड़ से सावधानी भी झलकती है। जेल से मुक्ति के बाद सावरकर जी के लेखन में हिन्दुत्व भाव की जाग्रति और सावधानी का पक्ष बढ़ा। इसके लिये उन्होंने  धर्म, भाषा और सांस्कृतिक चेतना को आवश्यक बताया। चूँकि 1931 में पाकिस्तान निर्माण की पूरी योजना सामने आ चुकी थी। सावरकर जी इसे मुस्लिम कट्टरपंथ और अंग्रेजी सत्ता का एक षडयंत्र मानते थे। इसके लिये वे समूचे हिन्दु समाज को एकजुट और जागरुक करना चाहते थे। 1939 के बाद के उनके लेखन और संबोधनों में यही भाव रहा।

सावरकर के लेखन की विधा चाहे कोई हो, वह नाटक हो, उपन्यास हो, कहानी हो अथवा कविता सभी की केन्द्रीभूत कथावस्तु भारत राष्ट्र की महत्ता, साँस्कृतिक गौरव, स्वत्व वोध और एक सशक्त, सुसंस्कृत एवं आत्मनिर्भर पीढ़ी का निर्माण करना है। समय के साथ उनके नाटकों का मंचन भी हुआ है और साहित्य का हिन्दी अंग्रेजी में अनुवाद भी। उनके कुछ गीतों को संगीतबद्ध भी किया गया। अतीत की असावधानियों से सतर्क होकर भविष्य के भारत निर्माण के लिये सावरकर जी साहित्य युवा पीढ़ी के सामने लाना आवश्यक है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्वतंत्र स्तंभकार है।)

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