✍ प्रणय कुमार
विनायक दामोदर सावरकर प्रखर चिंतक, गहन अध्येता, सत्यान्वेषी इतिहासकार, भावप्रवण कवि, सेवाभावी समाज सुधारक और महान स्वतंत्रता-सेनानी थे। उनका कोई भी रूप अन्य किसी रूप से कमतर नहीं था। संपूर्ण स्वतंत्रता-आंदोलन में सावरकर जैसी प्रखरता, तार्किकता एवं तेजस्विता अन्यत्र कम ही दिखाई पड़ती है। महापुरुष कभी मरते नहीं। वे हमारी स्मृतियों, प्रेरणाओं, आचरणों और आदर्शों में सदैव ज़िंदा रहते हैं। वे राष्ट्र की धमनियों में लहू की तरह प्रवाहित रहते हुए उसे गति एवं ऊर्जा प्रदान करते हैं। वीर सावरकर एक ऐसे महान स्वतंत्रता सेनानी थे, जिनसे अंग्रेज सर्वाधिक भयभीत एवं आशंकित रहते थे। इसका प्रमाण उन्हें मिली दो-दो आजीवन कारावास की सजा थी। वे उन विरले देशभक्तों में थे, जिनके अन्य दोनों सहोदर भाइयों ने भी स्वतंत्रता-आंदोलन में बढ़-चढ़कर योगदान दिया था। बल्कि तीन में से दो को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी।
ब्रिटिश अवसरों को मनाने का विरोध
बाल्य-काल से ही राष्ट्र एवं राष्ट्रीयता उनके संस्कारों में रची-बसी थी। बहुत छोटी आयु से ही उन्होंने अपने गृह जनपद के किशोरों एवं तरुणों में देशभक्ति की भावना जागृत करने के उद्देश्य से ‘मित्र-मेला’ का आयोजन प्रारंभ कर दिया था। मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करते-करते उनमें इतनी वैचारिक तीक्ष्णता, सांगठनिक कुशलता उत्पन्न हो गई थी कि उन्होंने 1901 में महारानी विक्टोरिया की शोकसभा का संपूर्ण नासिक में बहिष्कार किया और इसमें उन्हें किशोरों एवं तरुणों को साथ लाने में अभूतपूर्व सफलता मिली। 1902 में जब ब्रिटिश उपनिवेशों में एडवर्ड सप्तम की ताजपोशी का उत्सव मनाया जा रहा था तो तरुण सावरकर ने अपने जनपद में उसका विरोध किया। उनका मानना था कि अपने देश को गुलाम बनाने वालों के उत्सव में हम क्यों सम्मिलित हों!
प्रखर देशभक्त
1904 में उन्होंने ‘अभिनव भारत’ नामक संगठन की स्थापना की, जिसका उद्देश्य ही ब्रिटिश राज्य का विरोध करना था। 1905 में युवाओं का नेतृत्व करते हुए उन्होंने लॉर्ड कर्जन द्वारा पंथ के आधार पर बंग-भंग किए जाने का संपूर्ण महाराष्ट्र में विरोध किया। वे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने विदेशी वस्त्रों की होली सबसे पहले जलाई थी और इस रूप में वे स्वदेशी के अगुवा थे। 1906 आते-आते जहाँ एक ओर राष्ट्रीय फलक पर लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक एक तेजस्वी व्यक्तित्व के रूप में छाए हुए थे, ठीक उसी कालखंड में महाराष्ट्र के सभी युवाओं के बीच वीर सावरकर का नाम प्रखर देशभक्त के रूप में तेजी से उभरने लगा था।
लंदन में प्रयास
1906 में ही लोकमान्य तिलक के प्रयासों से उन्हें श्याम जी कृष्ण वर्मा छात्रवृत्ति मिली और वे स्नातक की पढ़ाई के लिए भारत से लंदन गए। लंदन में भी उन्होंने ‘फ़्री इंडिया सोसाइटी’ का गठन कर संपूर्ण भारतवर्ष से अध्ययन के लिए वहाँ पहुँचने वाले प्रतिभाशाली विद्यार्थियों के बीच भारत की स्वतंत्रता हेतु प्रयास ज़ारी रखा। वहीं से वे अपने लेखों, पत्रों, कविताओं आदि के माध्यम से भारत वर्ष में भी अभिनव भारत की गतिविधियों को आगे बढ़ाते रहे।
‘1857 प्रथम स्वातन्त्र्य समर’ का लेखन व प्रकाशन
विदेश में तो उन्होंने लाला हरदयाल, श्याम जी कृष्ण वर्मा आदि के साथ देश की स्वतंत्रता संबंधी गतिविधियों का लगभग नेतृत्व-सा किया। 1907-08 में लंदन के एक पुस्तकालय की सदस्यता ग्रहण कर, ब्रिटिश दस्तावेज़ों को खंगाल उन्होंने ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ नामक महत्त्वपूर्ण एवं शोधपरक पुस्तक लिखी, जिसे ब्रिटिश सरकार ने प्रकाशित होने से पूर्व ही प्रतिबंधित कर दिया। ब्रिटेन में न छप पाने पर उसे फ़्रांस से प्रकाशित कराने का प्रयास किया गया और वहाँ भी विफलता हाथ लगने पर अंततः वह पुस्तक हॉलैंड से छपकर आई और छपते ही ‘1857 के विद्रोह’ को प्रथम स्वतंत्रता आंदोलन की संज्ञा मिली। उससे पूर्व अंग्रेज उसे ग़दर या सिपाही विद्रोह कहकर ख़ारिज करते थे।
मदनलाल ढींगरा की सजा का विरोध
1909 में महान देशभक्त एवं क्रांतिकारी मदनलाल धींगड़ा ने जब ब्रिटिश भारत के सैन्य अधिकारी सर विलियम हट कर्जन वायली की हत्या की तो सावरकर ने उनका मुक़दमा लड़ना स्वीकार किया, लंदन टाइम्स में लेख लिखकर उन्होंने वायली की हत्या को न्यायोचित ठहराने का प्रयास किया और जब ब्रिटिशर्स ने एक बंद कमरे में बहस कर मदनलाल धींगड़ा को फाँसी की सजा सुना दी तो वीर सावरकर ने इंग्लैंड में रह रहे सभी भारतीय विद्यार्थियों को एकजुट कर बड़ा आंदोलन खड़ा किया, जिससे ब्रिटिश सरकार की बहुत किरकिरी हुई।
आजीवन कारावास
इतना सब होने के बाद स्वाभाविक था कि ब्रिटिश शासन की आँखों में वे खटकने लगे, उन्हें गिरफ़्तार कर भारत लाया जाने लगा, पर सावरकर का पौरुष एवं साहस इतना अदम्य था कि वे फ़्रांस स्थित एक बंदरगाह के समीप जहाज़ के शौचालय-मार्ग से छलाँग लगाकर समुद्र में कूद पड़े और तैरकर तट पर पहुँच गए। फ्रांसीसी तटरक्षकों ने उन्हें पुनः गिरफ़्तार कर अंग्रेजों को सौंप दिया। वहाँ से उन्हें भारत लाया गया, उन पर मुकदमा चलाया गया और नासिक के जिला-कलेक्टर जैक्सन की हत्या का भी उन पर आरोप मढ़ा गया। उन्हें और उनके बड़े भाई को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई।
काला पानी की यातना
1911 से 1921 तक वे काला पानी की असह्य यातना भुगतते हुए अंडमान के सेलुलर जेल में बंद रहे। जहाँ अन्य राजनीतिक कैदियों को जेल में न्यूनाधिक सुविधाएँ उपलब्ध होती थीं, वहीं काले पानी की सज़ा प्राप्त कैदी हवा-पानी-रोशनी तथा रूखा-सूखा भोजन के लिए भी तरसाए और तड़पाए जाते थे। उन्हें दिन-दिन भर या तो कोल्हू चलाना पड़ता था या नारियल जूट की रस्सी बनानी पड़ती थी। रस्सी बुनते-बुनते उनके हाथ व कोल्हू खींचते-खींचते पीठ लहूलुहान हो उठते थे और यदि कोई क्षण भर विश्राम के लिए रुकता तो उस पर कोड़ों की बौछार की जाती थी। ऐसी अमानुषिक यातनाओं से उन स्वतंत्रता-सेनानियों को गुजारा जाता था कि कई बार उनके मन में आत्महत्या तक के विचार कौंधते थे।
‘मर्सी पिटीशन’ का सच
सावरकर ने स्वयं स्वीकार किया कि उनके मन में भी आत्महत्या के विचार आए, पर उन्होंने तय किया कि कारावास की काल-कोठरियों में कैद रहते हुए घुट-घुटकर मर जाने से बेहतर है देश के लिए जीना, बाहर निकल कुछ सुंदर-सार्थक-सोद्देश्य करना। एक ओर बाल गंगाधर तिलक एवं कांग्रेस के तत्कालीन वरिष्ठ राजनेताओं ने वीर सावरकर की मुक्ति के लिए प्रयास किए तो दूसरी ओर देशभर से सत्तर हजार लोगों ने उनकी मुक्ति के लिए ब्रिटिश हुक्मरानों को अर्जियाँ भेजीं। उन जैसे प्रखर देशभक्त पर सेलुलर जेल में होने वाले अन्याय-अत्याचार के विरुद्ध देश भर में आक्रोश एवं अंसतोष पनपने लगे।
अंततः ब्रिटिश सरकार उन्हें रिहा करने को तैयार हुई, मगर कुछ शर्त्तों एवं शपथ-पत्र के साथ। उसे ही कुछ राजनीतिक दलों एवं विचारधाराओं ने निहित स्वार्थों की पूर्त्ति के लिए उनके माफ़ीनामे के रूप में प्रचारित कर उनकी छवि को चोट पहुँचाने की चेष्टा की। जबकि यह ‘मर्सी पिटीशन’ विपिनचंद्र पाल की अध्यक्षता में तत्कालीन कांग्रेस नेतृत्व एवं संगठन द्वारा ही प्रस्ताव पारित कर ब्रिटिश सरकार को भेजी गई थी। महान क्रांतिकारी शचींद्रनाथ सान्याल भी ऐसे ही ‘मर्सी पिटीशन’ के आधार पर जेल से रिहा हुए थे।
अतीत में भी तमाम इतिहास-पुरुषों द्वारा रणनीतिक तौर पर शत्रुओं से संधि के दृष्टांत मिलते हैं, स्वयं शिवाजी ने औरंगज़ेब से माफ़ी माँगते हुए चार पत्र लिखे थे तो क्या इससे छत्रपति शिवाजी की महत्ता कम हो गई?
स्वतंत्रता सेनानियों के प्रिय व प्रेरणा स्रोत
गाँधी जी, भीमराव आंबेडकर और नेताजी सुभाषचंद्र बोस जैसे प्रखर एवं प्रभावशाली राजनेताओं ने समय-समय पर वीर सावरकर की प्रशंसा की है? गाँधी जी और आंबेडकर उनके अस्पृश्यता उन्मूलन एवं अछूतोद्धार कार्यक्रम से बहुत प्रभावित थे। सुभाषचंद्र बोस, शचींद्र नाथ सान्याल, रौशन सिंह, राजेन्द्र लाहिड़ी, सरदार भगत सिंह, दुर्गा भाभी, सुखदेव, राजगुरु जैसे देशभक्तों एवं क्रांतिकारियों ने उनके कार्यों एवं विचारों से किसी-न-किसी स्तर पर प्रेरणा ग्रहण की थी।
सावरकर के हिंदुत्व की संकल्पना में भी भारत-बोध और राष्ट्र सर्वोपरि की भावना सन्निहित थी। उनकी सैन्य, विदेश एवं रक्षा संबंधी नीति भी यथार्थ पर आधारित थी। भारत के सर्वाधिक लोकप्रिय प्रधानमंत्री स्वर्गीय श्री अटलबिहारी वाजपेयी जी के शब्दों में- ”सावरकर मने तेज, सावरकर मने तप, सावरकर मने त्याग, सावरकर मने तर्क, सावरकर मने तारुण्य!” उनके अनुसार ”सावरकर केवल एक व्यक्ति नहीं, विचार हैं; एक चिंगारी नहीं, अंगार हैं, वे सीमित नहीं, विस्तार हैं।”
(लेखक शिक्षाविद एवं वरिष्ठ स्तंभकार है।)
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वीर सावरकर जी के विषय मे एक सुंदर, सारगर्भित लेख।
लेखक को बधाई, साधुवाद।।