✍ गोपाल माहेश्वरी
नवरात्रि का आरंभ होने वाले थे। द्युति ने निश्चय किया कि वह नौ दिनों का व्रत रखेगी। दिन में केवल एक समय कोई फल लेना और शेष समय निराहार रहना। साधना ने कहा “मैं उपवास तो नहीं रखूंगी लेकिन दुर्गा सप्तशती का पाठ नियमित करूंगी।” मोहिनी बोली “मैं प्रतिदिन गरबा करूंगी।” विद्या कहने लगी “मुझे तो हर दिन किसी न किसी देवी मंदिर जाना ही है।” सभी सहेलियां नवरात्रि के अवसर पर देवी माता के प्रति अपनी श्रद्धा से कुछ साधना-आराधना का निश्चय किया था। शैलजा इनके विद्यालय में नई-नई आई थी। वह अभी तक चुपचाप बैठी सबकी बातें सुन रहीं थी। द्युति ने टोका “शैलजा! तुम कुछ नहीं करने वाली हो नवरात्रि में!” वह मौन रही। पद्मा ने कहा “हम तो सपरिवार अपने गांव जाते हैं। वहां कुटुंब-परिवार के साथ कुलदेवी का पूजन होता है।”
“हमारे यहां भी ऐसा ही होता है पर नवमी के दिना कन्या पूजन और भंडारा भी होता है। मेरी भी पूजा होती है।” वह खिलखिलाकर हंस पड़ी।
“पर शैलजा देवी! आप क्या मौन व्रत रखतीं है? “साधना ने छेड़ा तो शैलजा मुस्कुराते हुए बोली। “व्रत, पूजन, पाठ, हवन, दर्शन, गरबा, भंडारा ये सब हमें परंपरा से सिखाए जाते हैं और मन की एकाग्रता, शरीर की शुद्धि भक्ति भाव और आनंद की अनुभूति भी इनसे मिलती है। एक सकारात्मकता, सात्विकता और सामूहिकता का भाव दृढ़ होता है पर मैं सोचती हूं परंपरा मानकर क्या इतना ही करते रहना पर्याप्त है? या कुछ ऐसा भी है जो हमसे छूट रहा है, हम भूल रहे हैं?”
शैलजा की बातें चौंकाने वाली थीं। वैसे भी आज हिन्दी पढ़ाने वाली दीप्ति दीदी कक्षा में न आई थीं इसलिए सब सहेलियां चर्चा पूरी करना चाहती थीं। पद्मा ने आग्रह किया “शैलजा! खुलकर बताओ तुम कहना क्या चाहती हो?”
शैलजा कहने लगी “मैं कोई उपदेश नहीं दे रही पर मेरे मन में कुछ विचार है, वही बताना चाहती थी।”
“चाहती थी नहीं, बताओ भी।” मोहिनी मुस्कुराते हुए बोली, सबने तालियां बजाकर उसका समर्थन किया। शैलजा कहने लगी “पहले मैं बता दूं कि त्रिपुरा जहां के हम मूल निवासी हैं वहां मेरे दादा जी एक देवी मंदिर के पुजारी हैं इसलिए कोई यह न समझे कि मैं पूजा-पाठ, व्रत-उपवास की विरोधी हूँ, पर मैं सोचती हूँ कि दादा जी ने मुझे इतनी दूर पढ़ने क्यों भेज दिया? उसका कारण था हमारे उधर अन्य धर्मों के कुछ उत्पातियों ने इतना आतंक मचा रखा है कि हम जैसी लड़कियों को वहां सामान्य रूप से रहना भी कठिन है। अपहरण हो जाए, या धर्म बदलने पर विवश किया जाए, या हमारी इज्जत पर ही संकट हो तब अभिभावक क्या करें? हम अपनी जन्मभूमि छोड़कर यहां-वहां जाने को विवश हैं।”
“तुम्हारे उधर ही क्या, स्थिति तो अन्यत्र भी ऐसी ही है कहीं कम, कहीं अधिक, कहीं थोड़ा रूप अलग, समस्या भिन्न पर है तो।” युक्ति बोली।
“शैलजा! हमारी बात तो नवरात्रि पर चल रही थी न?” पद्मा ने टोका।
“ठीक कह रही हो पद्मा! लेकिन मैं जो कहना चाह रही हूँ उसके लिए यह बताना मुझे ठीक लगा। मैं सोचती हूँ हम उपवास क्यों करते हैं? शरीर शुद्ध हो और मन पवित्र इसलिए।” सबने स्वीकृति में सिर हिलाया।
वह आगे बोलने लगी। “गरबा, भंडारा, सामूहिक पूजा क्यों? क्योंकि हम सब, सारा समाज एकसाथ मिलें, रहें, सहयोग करें, आनंद मनाये। कन्यापूजन इसलिए कि कन्याओं की पूजा करके उनके मान सम्मान, शील की रक्षा के सामूहिक कर्तव्य को स्मरण करे।”
“हां, वे देवी का रूप हैं।” विद्या बोली।
“देवी का रूप! हूँ। विद्या! तुम प्रतिदिन देवी का दर्शन करने जाती हो न? क्या दिखता है तुम्हें देवी की मूर्ति में ?” शैलजा के प्रश्न पर विद्या थोड़ी अचकचाई फिर बोली “सुंदर पोशाक, खूब गहने, कुंकुम रोली टीका, हार-फूल यही सब।”
“और कुछ?” शैलजा ने पूछा।
“कहीं शेर पर सवारी, हाथों में बहुत से शस्त्र-अस्त्र।” विद्या ने बताया।
“तो इन शस्त्र-अस्त्र का क्या काम?”
“दुष्ट असुरों को मारने के लिए।”
“मारना क्यों? शेर तो बहुत तेज भागता है, असुर आते तो भाग जातीं शस्त्र-अस्त्र क्यों?”
“असुर तो कहीं भी कभी भी आ सकते हैं। भागना नहीं उनसे संघर्ष करना पड़ता है। फिर देवी अपनी रक्षा के लिए ही शस्त्र नहीं रखतीं वे दूसरों की रक्षा भी तो करतीं हैं।” द्युति बीच में बोल पड़ी थी।
“अच्छा मोहिनी! दुर्गा सप्तशती पढ़ती हो तो दुर्गा क्यों बनीं कैसे बनीं यह भी पढ़ा होगा तुमने? बताओ जरा सबको।” शैलजा ने कहा।
“जब महिषासुर नामक भयंकर दैत्य को कोई देवता न हरा पाए तो सबको सताने वाले उस दुष्ट के विनाश के लिए सब देवताओं ने अपने तेज को एकत्रित किया और उससे देवी दुर्गा प्रकटी फिर सबने अपने अपने शस्त्र-अस्त्र दिए और देवी ने निर्भयता के प्रतीक सिंह पर सवारी कर राक्षस को मार गिराया। ऐसा देवी भागवत में लिखा है।” मोहिनी ने बताया।
“इस कथा से मैंने तो यह समझा कि बुरे लोगों से मुक्ति पाने हेतु अच्छे लोगों को सामूहिक रूप से संगठित शक्ति को प्रकटाना आवश्यक है। दूसरी बात सबको विशेषत: हम लड़कियों के लिए अपनी रक्षा और अपनों की रक्षा के लिए शस्त्र-अस्त्र सीखना चाहिए। दुर्बल को सब डराते हैं सबल ही सबका रक्षक बन सकता है।”
शैलजा की ओजस्वी बातों से सब ओर सन्नाटा खिंच गया। जिसे तोड़ा कक्षा में आती हुई दीप्ति दीदी की तालियों की आवाज ने “शाबास शैलजा! तुम्हारी बात एकदम सही है। मैंने कक्षा के बाहर खड़े-खड़े सारी बातें सुनीं हैं सबकी। लेकिन यह तो बताओ तुम इतना समझती हो तो तुम्हें यहां क्यों आना पड़ा?”
“नवरात्रि का व्रत पूरा करने जो नौ दिन का नहीं संभवतः कुछ वर्षों चले।” शालिनी का उत्तर रहस्यमय था।
“कैसे तुम तो कोई व्रत नहीं करती?” दीप्ति दीदी ने मुस्कुराते हुए पूछा।
“मेरा व्रत थोड़ा अलग है दीदी! प्रतिदिन राष्ट्र सेविका समिति की शाखा में दण्ड चलाना सीखती हूँ।”
“तो क्या हर समय लाठी लिए घूमा करोगी? “किसी ने नीचे मुंह करके प्रश्न उछाला तो कई मुस्कानें फूट पड़ीं।
शैलजा बिना असहज हुए बोलती रही “नहीं हर समय हाथ में लाठी लिए न सही, मन में आत्मविश्वास लिए घूमूंगीं। शस्त्र-अस्त्र चलाते याद हो तो साहस बना रहता है शरीर में स्फूर्ति और बल बना रहता है। और समय-असमय के लिए नियुद्ध भी सीख रही हूँ।” फिर थोड़ी देर रुक कर कहीं दूर देखते हुए बोली “लौटूंगी …..अपनी जन्मभूमि पर , …… मार भगाऊंगी हर अत्याचारी को, सिखाऊंगी अपनी और सहेलियों को कि भागना नहीं भिड़ना ही हल है।” सब नि:शब्द थे। शैलजा ललकार उठी “तुममें से कोई आएगा मेरे साथ।” दो तीन हाथ उठ ही गए। आज नवरात्रि का एक और भूला-सा व्रत याद दिला दिया था इस नई दुर्गा ने।
(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक है।)
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