✍ गोपाल माहेश्वरी
वह था तो अभी मात्र दस वर्ष का पर माता-पिता के असमय ही सदा के लिए छूट जाने के बाद एकदम अकेला रह गया था। पिता की बनाई टूटी सी टपरी में अकेला रहता। पास-पड़ौस के लोग जो कुछ दे देते वही पेट में डाल लेता। पास के मंदिर में कथा हो रही थी। कथा व्यास बड़े भावपूर्ण ढंग से ध्रुव चरित्र सुना रहे थे। यह पहुँचा तो था वहाँ प्रसाद पाने के लोभ से पर कथा में मन लग गया तो वहीं बैठा रह गया। यहाँ तक कि सब चले गए पर वह बैठा रहा। कथावाचक जी ने पूछा “बेटा! कथा पूर्ण हो गई अब घर जाओ।”
“घर? किसका घर? वहाँ कौन है मेरा?” पंडित जी कुछ समझते कुछ कहते तब तक वही आगे बोल पड़ा “क्या श्रीहरि मुझे नहीं मिल सकते, जैसे ध्रुव को मिले?” बालक की निर्मल जिज्ञासा मन को छू गई।
“अवश्य क्यों नहीं?” कथा व्यास की वाणी में विश्वास था।
“मैं वन में जाकर तपस्या करूँगा।”
“कर सकते हो, पर भगवान तो यहाँ रहकर भी मिल सकते हैं।”
“वह कैसे? ध्रुव तो जंगल ही गया था न?”
“हाँ पर प्रह्लाद नहीं गया था। भगवान उसे भी मिले। उसके घर में ही।”
“मुझे समझाइए कैसे?” उसने हाथ जोड़े कहा।
पंडित जी मंदिर के चबूतरे पर बैठ कर ही उसे एक कहानी सुनाने लगे।
एक जिज्ञासु किसी संत के पास पहुँचा। कहने लगा “मैं कई वर्षों से भगवान के दर्शन की इच्छा लिए भजन, पूजन, साधना, व्रत आदि करता हूँ। पता नहीं भगवान मुझे कब दर्शन देंगे?” संत निर्मल हँसी बिखराते हुए बोले “भगवान अपने सच्चे भक्तों को इतनी प्रतीक्षा करवाते ही नहीं हैं।” “पर मुझे तो अभी तक दर्शन नहीं हुए। मैं न असत्य बोलता हूँ, न किसी को धोखा देता हूँ, पूरी पवित्रता से अपनी साधना में लगा रहता हूँ। क्या मैं सच्चा भक्त नहीं हूँ?” संत के ललाट पर चिंता की अस्पष्ट सी रेखाएं झलकीं फिर वे पल भर ध्यान लगाकर बैठ गए मानों ईश्वर से भक्त की समस्या का समाधान पूछ रहे हों अथवा भक्त के लिए ईश्वर से उसी के विरुद्ध शिकायत कर रहे हों।
अगले ही क्षण मुस्कुराते हुए नेत्र खोलकर बोले “जाओ! आज ईश्वर तुम्हें फिर दर्शन देने की प्रतीक्षा कर रहे हैं।” “फिर! यानि पहले भी दर्शन दिए थे क्या?” वह पूछना चाहता था पर ईश्वर प्रतीक्षा कर रहे हैं यह सुनकर वह अपने वितर्क को टाल कर घर के लिए भागा।
संत की कुटिया से निकला तो सामने एक कुत्ता मिला। भक्त को लगा जैसे कोई अपशगुन हो गया। वह उसे दुत्कारते हुए आगे बढ़ा। गली के मोड़ पर ही एक बच्चा दौड़ता आ रहा था। दौड़ते हुए वह इससे टकरा गया। ईश्वर दर्शन में कितनी बाधाएँ? उसने बच्चे को झटके से अलग किया, हँसता हुआ बच्चा बेचारा गिरकर रोने लगा। भक्त को उसकी ओर देखने या उसे उठाकर चुप करने का समय ही न था, उसे जल्दी से भगवान के दर्शन जो करने थे। सामने एक पुराना परिचित सफाईकर्मी आ रहा था। आयु अधिक होने से अब उसका बेटा आता है सफाई करने। यह बहुत दिनों बाद इधर आया था। उसने हाथ उठा कर ‘राम राम’ की। वह कुछ पूछता बताता उसके पहले ही यह बोल पड़ा “अभी नहीं, मैं जल्दी में हूँ, फिर मिलूँगा।” वह हतप्रभ रह गया।
अवरोध कम नहीं थे। अपने घर की गली में भक्त मुड़ता कि एक बहुत बूढ़ी भिखारिन हाथ फैलाते हुए सामने पड़ गई “बेटा! कुछ दे दे। दो दिन से भूखी हूँ। भगवान भला करे।” “दूर हटो माई! मुझे देरी हो रही है अभी।” गुस्से से भरा रूखा उत्तर मिला। बूढ़ी माई फिर बोली “बेटा! कुछ तो दे जा भगवान सब देख रहा है।” “मैं भगवान को ही तो देखने जा रहा हूँ तेरे भगवान को दिखाने की आवश्यकता नहीं है।” अस्पष्ट बुदबुदाहट के साथ वह आगे बढ़ चुका था।
धैर्य की अंतिम परीक्षा तो मानो शेष ही थी। उसके घर के सामने ही द्वार रोके ही एक वनवासी अपनी पोटली खोले प्याज रोटी खा रहे थे। भक्त का क्रोध का बाँध टूट गया। एक ही झटके में रोटियाँ और प्याज सड़क पर बिखर गए। हाथ पकड़ कर भूखे वनबंधु को उसी की रोटी खाते-खाते उठा चुका था। वनबंधु तो उसके लिए जंगल से शहद लेकर आया था कि भगत जी रोज भगवान जी को पंचामृत से नहलाते हैं तो उनके लिए शहद की सेवा मैं ही कर दूँ। भक्त का द्वार बंद था तो सोचा भूख लगी है यहीं रोटी खा लूँ।” किसी के घर के आगे भी बैठेगा क्या? चल हट, जंगली कहीं का। “शहद रूपी अमृत लाने वाले को विषैली दुत्कार मिली। भोला वनवासी कुछ समझ न पाया।
दरवाजा खोल अंदर गया। भगवान की प्रतिमा के सामने विह्वलता से रोने लगा “हे प्रभो! क्षमा करें। बहुत देर हो गई मुझे आते आते। अब शीघ्र दर्शन दें भगवन्!”
एक प्रहर बीता दूसरा भी बीत चला। संध्या हो चली पर भगवान तो प्रकट नहीं हुए। क्या संत जी भी झूठे हैं? मन में श्रद्धा की जगह अश्रद्धा भर उठी। सीधा संत जी की कुटिया में जा पहुँचा। ध्यानस्थ संत जी को अपने उद्दंडता भरे कर्कशस्वर से जगाते हुए बोला “क्या मिला मुझे झूठा आश्वासन दे कर? एक दिन का पूजन-भजन और छूटा। आँखें मूंदे तो ऐसे बैठे हैं जैसे साक्षात् भगवान को ही देख रहे हों।”
संत जी के शांत मुख पर एक मुस्कान फैली, धीरे धीरे नेत्र खोले फिर गंभीर स्वरों में बोले” मैंने असत्य नहीं कहा था वत्स! पर यह तो आवश्यक नहीं कि परमात्मा चतुर्भुज स्वरूप में शंख, चक्र, गदा, पद्म लेकर ही प्रकट हों। वे तो बार बार सामने आए कभी श्वान, कभी बालक, कभी सफाईकर्मी, कभी भिखारिन और कभी वनबंधु बनकर। तुम ही पहचान न सके तो मैं क्या करूँ। “भक्त की आँखें खुल गईं। परमात्मा ही सर्वात्मा है। कितनी बार रटा हुआ सूत्र कौंध उठा। अभिमान गल कर आँसुओं के रूप में बह चला। पश्चाताप की प्रचंड अग्नि से मन धधक उठा।
संत ने अपना कृपापूर्ण शीतल हाथ भक्त के मस्तक पर रखा और अमृत जैसी मीठी वाणी में बोले” बेटा! भगवान झूठ नहीं बोलते। “भक्त की आँसू भरी धुंधली दृष्टि ने देखा संत में साक्षात् चतुर्भुज नारायण झलक रहे थे। जीवन सफल हुआ। अब जितनी भी आयु शेष थी वह समाज के हित के लिए थी। अपने लिए मोक्ष भी न माँगना था अब उसे। जीवित ही मोक्ष पा कर अब वह समाज रूपी नारायण का सेवक हो चुका था।
“क्या मैं भी ऐसा कर सकता हूँ?” बालक ने पूछा।
“बिलकुल, समाज ही परमात्मा का हजार हाथ हजार पैर हजार मुखों वाला दिव्यरूप है। इसी की भक्ति करो परमात्मा तुम पर अवश्य प्रसन्न होंगे बेटा!” पंडित जी की आँखे झरझर हो उठी थीं। उनकी वर्षों से चल रही कथा बाँचने की साधना आज सफल हो गई थी।
(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक है।)
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