वीर बाला कनकलता

✍ गोपाल माहेश्वरी

चढ़ता यौवन खिलता बचपन केसरिया कैशौर्य समर्पण।

जीवन पाया जिस माटी में उस माटी पर जीवन अर्पण।।

विवाह रचाना बड़ों का काम है लेकिन बचपन में गुड़ियों का ब्याह रचाना बच्चों को खूब भाता है। मकान बनाना भी काम तो बड़ों का है पर बच्चे मकान बनाने का खेल बड़े मजे से खेलते हैं। ऐसे और भी अनेक काम हैं। बढ़ते बच्चे, बड़ों की बराबरी से हर काम करने को उत्सुक होते हैं जो आनंददायी हों, लेकिन यह प्रायः घर-विद्यालय के कामों से मिली प्रेरणा से ही होता है। हाँ, कई बच्चे ऐसे भी होते हैं जो अपने देश, अपने समाज में चल रहे अच्छे कामों को भी करने के लिए सदैव उत्साहित होते हैं, केवल खेल या मनोरंजन मान कर नहीं, पूरी जिम्मेदारी और गंभीरता के साथ।

स्वतंत्रता मिलने के पाँच वर्ष पूर्व के वातावरण की कल्पना कीजिए। सरकारी भवनों पर तिरंगा फहराना, झण्डा गान गाना, वन्देमातरम् के घोष लगाना, जुलूस निकालना जैसे आयोजनों से देश के गाँव-गाँव, गली-मोहल्ले राष्ट्रीय चेतना की गंगा में बह रहे थे। स्वाभाविक था कि जब सारा देश अंग्रेजों को भगाने के लिए कमर कस चुका था, बच्चे इस वातावरण से कैसे अप्रभावित रहते?

“अरे! सुना तुमने? कल गोहपुर थाने पर तिरंगा फहराया जाएगा” सोलह वर्ष की कनक ने अपने सहपाठी मुकुन्द को बताया।

“हाँ सारा गाँव जानता है यह तो” उसने उत्तर दिया।

“तो क्या हमें अपने देश के लिए कुछ नहीं करना है? कनक ने प्रश्न पूछा।

“हम भी जुलूस में साथ चलें?” साथी ने पूछा।

“नहीं! मैं समझती हूँ कि हमें बच्चों की टोली बनाकर अलग से जुलूस निकालना चाहिए। पता नहीं, बड़े हमें अपने साथ रखें न रखें। वे समझते हैं कि हम छोटे हैं, आन्दोलन में खतरा है। हम उल्टे मुसीबत न बन जाएँ।”

“हूँ! लेकिन हम इतने बच्चे भी नहीं हैं और देश तो हमारा भी है। ठीक है, हम अलग जुलूस निकालेंगे।” मुकुन्द की सहमति थी।

यह मन्त्रणा हो रही थी असम के दरंग जिले में गोहपुर थाने के पास छोटे से गाँव बोरंगावाड़ी में। यहाँ 20 अगस्त, 1942 को राजकुँवर ज्योति प्रसाद की अगुवाई में एक बड़े जुलूस की योजना बनी थी। लक्ष्य था गोहपुर की कोतवाली पर तिरंगा लहरा देना।

निश्चित योजना के अनुसार विशाल जनसमुदाय तिरंगा लिए लक्ष्य की ओर बढ़ रहा था। राष्ट्रीयता बोधक नारों से आकाश गूँज रहा था। तभी कनकलता बरुआ के नेतृत्व में छात्रों का एक समूह भी इसी प्रकार आगे बढ़ता इसमें आ मिला, मानो वेग से बढ़ रही जन गंगा में बालकृष्ण की प्रिय यमुना भी कलकल करती आ मिली हो। अब तो जो डर कर घर बैठे थे, वे भी बाहर निकल कर साथ हो लिए। अब आगे-आगे बाल-सेना, पीछे सारा गाँव। जुलूस में 5000 के लगभग लोग रहे होंगे।

सशस्त्र अंग्रेजी पुलिस से घिरा थाना सामने था। वे सतर्क पर अन्दर से भयभीत खड़े थे, जैसे पता सबको था कि अब क्या होगा।

“उतार दो ये अंग्रेजी झण्डा। लहरा दो अपना तिरंगा।”

एक दृढ़ बाल कंठ से आह्नान की गूंज बिजली की भांति कड़की। स्वर था कनकलता बरुआ का। इसी गाँव के श्रीकृष्ण कांत बरुआ की बेटी थी वह।

“रुक जाओ, आगे बढ़े तो जान गंवाओगे।” पुलिसिया चेतावनी का बेअसर स्वर लहराया।

“देश बचाने के लिए निकल पड़े, प्राण बचाने की चिंता नहीं करते। वन्देमातरम्।” कनकलता ने गरजती आवाज़ में ललकारा सारा गाँव ‘वन्देमातरम्’ के विजय मंत्र से भर उठा।

‘आगे बढ़ो’ कनक ने आह्नान किया। ‘आगे बढ़ो’ मुकुन्द ने दुहराया ‘वन्देमातरम्’। जन समूह के गगनभेदी घोष का उत्तर थाने के अन्दर बन्द कैदियों ने भी उसी जोश से दिया। सकपकायी, बौखलायी अंग्रेजी पुलिस की गोलियाँ दनादन बरस पड़ीं। कनकलता की देह से रक्त के फुव्वारे फूट पड़े। वह गिरने को हुई तो आगे बढ़ कर मुकुन्द ने तिरंगा थाम लिया। वह सोलह बरस का किशोर तीर जैसी तेजी से बढ़ा और थाने की दीवार पर चढ़ गया। यूनियन जैक को एक ही झटके में फाड़ दिया और विजयी मुस्कान से तिरंगा लहराकर भारत माता का जय घोष कर उठा। उस समय तो झण्डा फहराने वाले पर फूल नहीं, अंग्रेजी गोलियां ही बरसती थीं। अनगिनत धराओं से रक्त स्नान करता वह बालवीर धरती पर आ गिरा। कनक की सांसें चल रहीं थीं। मुकुन्द ने उसकी ओर देखा और दोनों ने तिरंगे पर दृष्टि जमा दी। उनके मुखों पर खिली मुस्कान कह रही थी- ‘काम हो गया।’ उनके प्राण पखेरू उड़ गए। उनके साथ 60 देशभक्त और बलिदान हुए।

(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक है।)

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