मुदालियर आयोग

 ✍ प्रोफेसर रवीन्द्र नाथ तिवारी

स्वतंत्र भारत के इतिहास में मुदालियर आयोग (1952-53), जिसे माध्यमिक शिक्षा आयोग के रूप में भी जाना जाता है, भारतीय शिक्षा व्यवस्था के विकास में महत्वपूर्ण योगदान माना जा सकता है। इस आयोग का गठन स्वतंत्र भारत की माध्यमिक शिक्षा प्रणाली की समसामयिक समस्याओं और सुधारों पर ध्यान देने के लिए किया गया था। आयोग के अध्यक्ष पद पर मद्रास विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति डॉ. ए. लक्ष्मण स्वामी-मुदालियर को नियुक्त किया गया। आयोग में अध्यक्ष सहित 10 सदस्य तथा 17 सहकारी सदस्य सम्मिलित थे। भारतीय शिक्षा व्यवस्था, विशेष रूप से माध्यमिक शिक्षा, स्वतंत्रता से पूर्व अत्यधिक उपेक्षित रही थी। स्वतंत्रता के पश्चात, यह आवश्यक हो गया था कि शिक्षा प्रणाली को राष्ट्र के नए सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक लक्ष्यों के अनुरूप किया जाय। मुदालियर आयोग ने शिक्षा को समाज की प्रगति के लिए अनिवार्य माना और जोर दिया कि एक कुशल और व्यावहारिक शिक्षा प्रणाली न केवल राष्ट्र के विकास के लिए आवश्यक है, अपितु यह विद्यार्थियों के मानसिक, शारीरिक और सामाजिक विकास को भी समग्र रूप से सुनिश्चित करती है। भारतीय शिक्षा प्रणाली के विभिन्न पहलुओं पर विचार किया, जिसमें शिक्षण पद्धतियां, पाठ्यक्रम, परीक्षा प्रणाली, शिक्षक प्रशिक्षण और संस्थागत सुधार शामिल थे। इस बात पर बल दिया गया कि शिक्षा का उद्देश्य केवल जानकारी देना नहीं होना चाहिए, अपितु यह छात्रों में आलोचनात्मक सोच, तर्क शक्ति और सामाजिक जिम्मेदारी को भी बढ़ावा देना चाहिए।

आयोग ने माध्यमिक शिक्षा के स्तर पर विद्यार्थियों के बौद्धिक, नैतिक और सांस्कृतिक विकास पर विशेष ध्यान देने की अनुशंसा की। शिक्षा की द्विस्तरीय प्रणाली का सुझाव दिया, जिसमें शिक्षा के पहले तीन वर्षों को ‘निम्न माध्यमिक’ और अगले चार वर्षों को ‘उच्चतर माध्यमिक’ के रूप में विभाजित किया गया। इंटरमीडिएट कक्षा को हटाकर एक वर्ष माध्यमिक और एक वर्ष डिग्री पाठ्यक्रम में जोड़ा जाए। डिग्री कोर्स की अवधि 3 वर्ष कर दी जाए। हाईस्कूल से विश्वविद्यालयों में प्रवेश करने वाले छात्रों के लिए एक वर्ष का पूर्व विश्वविद्यालय कोर्स रखा जाए। इस प्रकार की प्रणाली का उद्देश्य शिक्षा को अधिक व्यावहारिक बनाना था जिससे छात्रों को केवल पुस्तक-आधारित जानकारी न मिले, अपितु उन्हें व्यावसायिक कौशल और रोजमर्रा की जिंदगी के लिए उपयोगी शिक्षा भी दी जा सके। माध्यमिक शिक्षा के पाठ्यक्रम को संतुलित बनाने की अनुशंसा की, जिसमें विज्ञान, मानविकी और व्यावसायिक शिक्षा को समान रूप से महत्व दिया गया। शिक्षण विधियों में सुधार के लिए भी कई सिफारिशें कीं। शिक्षकों की गुणवत्ता और उनकी प्रशिक्षण पद्धतियों पर विशेष ध्यान देने में बल दिया। आयोग ने सुझाव दिया कि शिक्षक केवल जानकारी देने वाले नहीं होने चाहिए, अपितु उन्हें छात्रों के मार्गदर्शक के रूप में कार्य करना चाहिए, जो उनके समग्र विकास में मदद करें। शिक्षकों के प्रशिक्षण के लिए टीचर ट्रेनिंग कॉलेजों की संख्या बढ़ाने और उनके पाठ्यक्रम को आधुनिक बनाने पर जोर दिया।

आयोग ने परीक्षा प्रणाली में भी सुधार की अनुशंसा की। तत्कालीन परीक्षा प्रणाली अत्यधिक सूचना-केंद्रित थी और केवल रटने पर जोर देती थी। यह सुझाव दिया गया कि परीक्षा प्रणाली को छात्रों के समझने, तर्कशक्ति और व्यावहारिक कौशल का परीक्षण करना चाहिए। सतत आंतरिक मूल्यांकन और विभिन्न प्रकार के परीक्षात्मक उपकरणों के उपयोग की आवश्यकता पर बल दिया। आयोग ने बहुउद्देशीय विद्यालयों पर बल के साथ-साथ उद्योगों के पास तकनीकी विद्यालय खोलने का सुझाव दिया। छात्रों के नैतिक और सांस्कृतिक विकास पर जोर दिया। ऐसा मानना था कि छात्रों को केवल अकादमिक शिक्षा देना पर्याप्त नहीं है, अपितु उन्हें समाज के अच्छे नागरिक बनने के लिए नैतिक मूल्यों, समाज सेवा और सांस्कृतिक चेतना की भी शिक्षा देनी चाहिए। यद्यपि आयोग की अनुशंसाओं ने भारतीय शिक्षा प्रणाली को एक नई दिशा दी। किंतु माध्यमिक शिक्षा आयोग के सुझावों में अस्पष्टता, बोझिल पाठ्यचर्या, अस्पष्ट भाषा नीति और अंग्रेजी भाषा की अनिवार्यता जैसी कमियां भी थीं। आयोग द्वारा प्रस्तुत किए गए सुधार प्रस्तावों ने शिक्षा को अधिक व्यावहारिक, समग्र और समाजोपयोगी बनाने का प्रयास किया। यद्यपि कई अनुशंसाओं को पूर्ण रूप से लागू नहीं किया गया, परंतु इस आयोग ने माध्यमिक शिक्षा की नींव को सुदृढ़ करने और शिक्षा प्रणाली में व्यापक सुधार लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके माध्यम से भारत की शिक्षा प्रणाली में एक ऐसा परिवर्तन लाने का प्रयास किया गया, जिससे छात्रों के शैक्षणिक स्तर को उच्चतर करने के साथ-साथ उन्हें समाज के लिए जिम्मेदार नागरिक भी बनाया जाए।

मुदालियर आयोग की सिफारिशें इस संबंध में भी प्रासंगिक थीं कि शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ जानकारी देना नहीं होना चाहिए, अपितु छात्रों में आलोचनात्मक सोच और तर्कशक्ति का विकास करना चाहिए, जिसे राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 भी प्रोत्साहित करती है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 ने शिक्षकों के प्रशिक्षण और पेशेवर विकास के लिए विशेष प्रावधान किए हैं। शिक्षकों को छात्रों के समग्र विकास में मार्गदर्शक की भूमिका निभाने पर जोर दिया गया है। इसमें निरंतर आंतरिक मूल्यांकन और समग्र विकास की जांच करने वाली परीक्षाओं की अनुशंसा की गई है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 मुदालियर आयोग की अनुशंसाओं का विस्तार करती है, तथा भारतीय शिक्षा प्रणाली को भविष्य की आवश्यकताओं के अनुरूप तैयार करने में सहायक है। मुदालियर आयोग ने भारतीय शिक्षा में व्यावहारिकता और समग्र विकास की जरूरत पर जोर दिया, जिससे भारतीय शिक्षा प्रणाली को भारतीय संदर्भ के अनुरूप ढालने की शुरुआत हुई। वहीं राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 इस प्रक्रिया को और आगे बढ़ाते हुए, शिक्षा को भारतीय ज्ञान परंपरा और मूल्यों के साथ जोड़ती है। इस नीति में गुरुकुल परंपरा की पुनर्स्थापना, नैतिकता और व्यावहारिक कौशल को शिक्षा में सम्मिलित करने पर विशेष ध्यान दिया गया है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 भारतीय संस्कृति और शिक्षा प्रणाली की जड़ों को फिर से मजबूत करने का प्रयास करती है, जिससे भारतीय शिक्षा को वैश्विक मानकों पर सर्वश्रेष्ठ बनाकर भारत के गौरव को पुनर्स्थापित किया जा सके।

(लेखक भारतीय शिक्षण मंडल महाकौशल प्रांत अनुसंधान प्रकोष्ठ के प्रांत प्रमुख हैं।)

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