– गोपाल माहेश्वरी
देव आज शाला से थोड़ा विलंब से ही घर पहुँचा था। उसे जोरों की भूख लगी थी। घर में घुसते ही वह चौंका। वहाँ लगे दर्पण के सामने कोई महिला जींस-टॉप पहने खड़ी थी। दरवाजे की ओर पीठ होने से वह समझ न पाया कि यह आखिर है कौन? एक पल को तो लगा वह किसी दूसरे के घर में तो नहीं आ गया है! पर नहीं घर उसी का था, सब चीजें उसकी जानी-पहचानी। उसे शंका हुई यह कोई मेहमान है या वैसे ही कोई घर में घुस तो नहीं आया?
देव के आने की आहट से भी जब वह नहीं पलटी तो वह थोड़ा डर-सा गया। “माँ-माँ” पुकारते हुए अंदर का कमरा लाँघ कर रसोई तक देख आया। माँ कहीं नहीं थी। वह घबराकर बाहर लौटा अब उसे दो चिंताऍं सता रही थीं पहली यह महिला कौन है? दूसरी घर खुला पड़ा है और माँ कहाँ है?
“माँऽऽ” देव लगभग चीख पड़ा उसका स्वर रुंआसा हो चला था। वह बैठक तक दौड़ा आया तो वह महिला खिलखिला पड़ी। पहले पल देव और डर गया पर अगले ही पल चौंका, यह तो माँ की ही हँसी थी। वह महिला पलटी तो माँ को पहचान कर भी आश्चर्य में पड़े देव से रहा न गया। दौड़कर माँ से लिपट गया और माँ पर मुट्ठियाँ बरसाने लगा।” ये क्या है माँ! ये क्या पहना है आपने?”
“क्यों, यह पहनने से मैं तेरी माँ नहीं रही क्या?”
“माँ हो, पर इस वेश में मेरी माँ जैसी नहीं लगतीं।”
“क्यों? नया जमाना है हमें कुछ नया करना चाहिए न?”
“ऐसा नया!! हमेशा सुंदर सुंदर साड़ी में देखा है मैंने आपको बचपन से, भला ये जीन्स टॉप पहने आप माँ होकर भी मेरी माँ जैसी तो नहीं लगोगी न?”
“अच्छा!! ऐसा है क्या? अरे, जरा मेरा मोबाइल फोन तो लाना।” देव ने मेज पर रखा मोबाइल उठाया। माँ ने उस पर वाट्सएप खोलकर देव का शाला से भेजा गया उसी का संदेश दिखाया ‘Maa mai aaj thodi der se aaunga.’ “पढो इसे।”
देव ने पढ़ा “माँ मैं आज देर से आऊंगा। ठीक तो है?”
“यह किस भाषा में है देव!” माँ ने पूछा।
“हिन्दी में” देव ने कंधे उचका दिए।
“ये कौनसी हिन्दी है? हमने तो हिन्दी में ये एम ए ए, माँ कभी नहीं पढ़े।”
“अरे माँ! वो हिन्दी में टाइप करने में कठिनाई होती है, रोमन लिपि में मात्राओं का झंझट नहीं है। हिन्दी में अक्षर भी बहुत और मात्राएँ भी अलग अलग। कोई ऊपर कोई नीचे कोई आगे कोई पीछे। अंग्रेजी सही है। इसलिए आजकल सब ऐसे ही लिखते हैं।”
“तो अंग्रेजी में लिखो।”
“वो अपनी भाषा थोड़े ही है, सब बात अंग्रेजी में करना न हमारे मुंह में न दिमाग में और न ही मन में सुहाती है। अंग्रेजी बोलना सरल है पर अंग्रेजी में सोचना …कठिन है माँ!”
“बेटा! मुझे भी इतनी घुमावदार लंबी-चौड़ी साड़ी पहनने में कठिनाई होती है रे! इसलिए ये जींस टॉप सही है। नए लोग इसीलिए तो पहनते हैं इन्हें।”
अब देव को सारा नाटक समझ आ गया था। वह सिर झुकाए सोचने लगा। जैसे उसे अपनी माँ अपने स्वाभाविक वेश में ही अच्छी लगती है हिन्दी भाषा भी देवनागरी में ही अपनी लगती है। हिन्दी को रोमन में लिखना माँ को साड़ी की जगह जींस-टॉप पहनाने जैसा ही है। उसे विश्वास था माँ साड़ी जितनी सरलता और शीघ्रता से पहन सकती है जींस-टॉप नहीं।
देव के सारे संशय मिट गए थे और एक निश्चय जन्म ले चुका था उसने सिर उठाया तब तक तो माँ सामने साड़ी पहने मुस्कराती खड़ी थीं। वह दौड़कर माँ से लिपट गया। साड़ी का पल्लू ममता का आँचल बन उसके मस्तक पर छा गया था।
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(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक है।)