भारतीय शिक्षा के पुरोधा लज्जाराम जी का साहित्य दर्शन

 – डॉ. हिम्मत सिंह सिन्हा

भारतीय शिक्षा के नाम पर उदित महान प्रकाश पुंज, ज्ञान की विभूति पूज्य लज्जाराम तोमर जी ऐसे सबसे पहले शिक्षाविद थे जिन्होंने भारतीय शिक्षा को शुद्ध भारतीय दृष्टिकोण से राष्ट्र के समक्ष प्रस्तुत किया। जिस समय 1958 में भी लज्जाराम तोमर ने शिक्षा जगत में पदार्पण किया उस समय शिक्षा में मैकाले की प्रणाली के घोर तिमिर का अवरण ओढ़े हुए उसके पास से निकलने का प्रयत्न कर रही थी परंतु कोई शिक्षाविद इसको उस पश्चात्म मकड़ जाल से निकाल कर भारत के सांस्कृतिक, वैचारिक और पुरातन परंपराओं के अनुकूल बनाकर राष्ट्रीय अस्मिता को जगाने वाला दिखाई नहीं पड़ता था। यद्यपि कई बड़े-बड़े शिक्षाविद चिंतित तो रहते थे कि उस शिक्षा तंत्र को जिसने हमारी आत्मा में भी अंधकार भर दिया है, शीघ्र हटाना चाहिए परंतु उनके पास कोई विकल्प नहीं था। शिक्षा को नीति निर्धारण वाले कभी जर्मनी की ओर दौड़ते थे और किण्डर गार्डन (किण्डर-कोमल, गार्डन-वाटिका) अर्थात शिशुवाटिका पद्धति स्थापित करने की अनुशंसा करते थे तो कभी इटली की मोंटेसरी पद्धति ले आते थे। झोली पसार कर भीख मांग कर लाते थे और भारतीय मूल्यों पर थोपने का प्रयास करते थे ऐसा लगता था कि भारतीय विचारकों के पल्ले है ही क्या! जिसके आधार पर राष्ट्रीय शिक्षा का भवन खड़ा किया जा सके।

ऐसे घोर निराशा के समय में माननीय लज्जा राम जी एक आशा का दीप लेकर उभरे और उन्होंने भारत को गौरवशाली परंपराओं को लेकर वैकल्पिक शिक्षा तंत्र खड़ा किया जिसे विद्या भारती नाम दिया गया। यद्यपि आरंभ में यह एक लघु सा दीप था परंतु प्रकाश का छोटा सा पुंज भी घोर तिमिर का नाश कर देता है। तोमर जी द्वारा प्रज्वलित किया गया यह छोटा सा तेज का अंश भारतीय शिक्षा के क्षितिज पर छाए तिमिर को चीरने वाली आशा की किरण बनकर प्रकट हुआ और उसने सूर्य उदय का संदेश दे दिया। भारत अपनी खोयी हुई अस्मिता को पुनः प्राप्त करने के लिए कोटिबद्ध होकर खड़ा हो गया।

शिक्षा को शुद्ध भारतीय रंग देने के लिए दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक आधार खोजने का कार्य शिक्षा के महा मनीषी और भारतीयता के उद्घोषक माननीय लज्जाराम तोमर जी ने अपने हाथ में लिया। इसके लिए उन्होंने अपना इंटर कॉलेज का प्राचार्य पद त्याग दिया और प्रचारक जीवन अपनाया। उन्होंने विशाल भारतीय साहित्य का मंथन करना आरंभ कर दिया और उसी में जुट गए। जैसे भगवान श्रीहरि ने समुद्र मंथन करने के रत्न उद्घाटित किए थे उसी प्रकार तोमर जी ने भी प्राचीन भारतीय मनीषियों के चिंतन मनन, साधना तथा संस्कार देकर मानव को देवत्व तक के जाने की विधाओं में से वे सारे आधार खोज निकाले जिन पर मां भारती के शत-शत खंडित मंदिर का शिलान्यास करके वास्तव में भारतीय परंपरा, राष्ट्रीय भाव और उत्कृष्ट भारतीय संस्कृति का भव्य भवन निर्माण किया जा सके। उन्होंने ऋग्वेद का एक मंत्र (4.51) मिल गया जिसमें घोषित किया गया था “इदमुत्यत् पुरुतमं पुरस्तात्र ज्योति” अर्थात तिमिरान्तक प्रकाश तो सदैव पूर्व से ही आएगा। बस वैदिक सत्य को आधार बनाकर श्री तोमर जी ने ज्ञान के प्रकाश को शाश्वत स्त्रोत खोज निकाला और इस देश की शिक्षा व्यवस्था में भारतीय संस्कार एवं इतिहास गौरव स्थापित कर दिया।

लज्जा राम जी के गहन चिंतन और भारतीय जीवन मूल्यों में उनकी अटूट आस्था ने भारत को शिक्षा का एक ऐसा दिन आधार प्रदान कर दिया जैसा सागर मंथन से निकले अमृत कलश में सारे देव समाज को प्रदान कर दिया था। हमारे पास संसार का सर्वाधिक समृद्ध जीवन दर्शन है जिसको उन्होंने अपनी लेखनी से ‘भारतीय शिक्षा के मूल तत्व’ नामक ग्रंथ में सामूहिक कर दिया। यही ग्रंथ अब भारतीय शिक्षा का महान स्तम्भ बन कर शिक्षा के नीति निर्धारकों के लिए के लिए एक संबल बना गया है। यह उस महापुरुष की एक अपार सांस्कृतिक देन है।

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भारत की नई पीढ़ी से अनुप्राणित होकर गर्व से कहेगी कि भारत के खोए हुए गौरव को पुन: प्रतिष्ठित करने एक महान मनीषी माननीय लज्जा राम तोमर जी के रूप में आया था जिसने संस्कारवान शिक्षा पद्धति देकर भारत के लाखों बालकों को राष्ट्रीय गौरव, देश मुक्ति और संस्कृति स्वाभिमान से भर दिया। यही शिक्षा युवाओं में संस्कृति का स्वाभिमान भर कर देश को पुन: विश्व गुरु बनाएंगे। अपनी पुस्तक में से श्री लज्जाराम तोमर जी ने जो कुछ भी दिया है वह मौलिक है सारगर्भित है और अद्वितीय है। इस पुस्तक पर भारत के विख्यात शिक्षा शास्त्रियों ने अपनी प्रशस्त्रियाँ दी है।

माननीय लज्जाराम तो चाहते थे कि हमारे विद्यालय केवल सूचना प्रसारण ही सीमित ना रहें अपितु सामाजिक चेतना के केंद्र बने। इस दृष्टि से उनकी पुस्तक ‘विद्यालय सामाजिक चेतना का केंद्र बने’ (1999) पुस्तक में विशद प्रकाश डाला गया है। इतना ही नहीं महान शिक्षाविद तोमर जो यह भी मानते थे कि बालक अपने पारिवारिक वातावरण से ही संस्कार ग्रहण करने लगता है जो जीवन भर उसका मार्ग प्रशंसा करते रहते हैं। इसलिए अपने समाज को परिवार व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि बालक मां के दूध से ही देशभक्ति के संस्कार सीखे।इसके लिए उन्होंने अपनी मूल्यवान कृति ‘परिवारों में संस्कारक्षम वातावरण क्यों और कैसे’ (1999-तृतीय संस्करण) में व्यापक योजना प्रस्तुत करते हैं। माननीय तोमर जी इतनी प्रकार जानते थे कि परिवार संस्था भारतीय संस्कृति तथा जीवन आदर्शों का संरक्षण केंद्र है यहां राष्ट्र द्वारा अर्जित सहस्त्रों वर्षों के अनुभव बालक को सहज ही प्राप्त हो जाते हैं। तोमर जी कहते हैं कि परिवार में बालक भाषा तथा शिष्टाचार सीखता है वही सर्वांगीण विकास की नींव पड़ती है। वह लिखते हैं कि बालक चरित्र कुशलताएं, सामाजिक व्यवहार तथा जीवन की अन्य छोटी-छोटी बातें भी परिवारिक वातावरण पर निर्भर करती हैं। तोमर जी के कथनानुसार परिवार बालक की प्रथम पाठशाला है उसमें माता उसकी प्रथम गुरु, पिता संरक्षक तथा अन्य वरिष्ठ लोग उनके शिक्षक गण होते हैं। इसलिए परिवार का स्वस्थ तथा संस्कार वातावरण ही कृतित्ववान समाज का निर्माण कर सकता है। उनकी इस पुस्तक में ऐसे ही चिंतन मनन से प्राप्त नवनीत उपलब्ध है।

ऐसा माना जाता है कि शिक्षा कैसे दी जाए इसके लिए मनोविज्ञान आवश्यक है। पाश्चात्य वातावरण में पले शिक्षाविद कहते थे कि भारत में तो मनोविज्ञान है कि नहीं, यहां जो कुछ है वह दर्शन के अंतर्गत आता है। माननीय श्री तोमर जी ने इस मिथ्या धारण का निराकरण करके भारतीय दृष्टिकोण से इस समस्या पर चिंतन किया और अपनी पुस्तक ‘भारतीय शिक्षा मनोविज्ञान के आधार’ (1999) में बताया कि भारतीय मनोविज्ञान का इतिहास अति प्राचीन है। उनके मतानुसार भारतीय मनोविज्ञान का आधार विशुद्ध आध्यात्मिक है। आत्म तत्व उसका अधिष्ठान है, उसे अवैज्ञानिक कहकर अमान्य नहीं किया जा सकता। माननीय तोमर जी कहते हैं कि यह तो मान्य करना होगा कि आधुनिक पाश्चात्य मनोविज्ञान में पर्याप्त विकास किया है परंतु फिर भी हमें इस तथ्य को भी मान्य करना होगा कि पाश्चात्य विज्ञान में भी कहीं अधिक विस्तृत क्षेत्र योग मनोविज्ञान का है जिसके अध्ययन से पाश्चात्य मनोविज्ञान के अपूर्णता की पूर्ति होगी। इस पुस्तक में ऐसे आधारभूत मनोविज्ञान के विषयों को समाहित किया गया है जिनको अपनाने में वर्तमान शिक्षा को सही अर्थों में भारतीय बनाया जा सकता है।

श्रद्धेय तोमर जी के प्रवचन लेखनी से बहुत सी सार्थक कृतियाँ सृजित हुई है जिनके केवल नाम ही दिए जा सकते हैं जैसे- ‘प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति’ (2000), ‘विद्या भारती चिंतन की दिशा’ लज्जाराम तोमर जी के समय-समय पर व्यक्त किए गए विचारों का संग्रह है जिनका संपादक विदुषी शिक्षाविद इन्तुमती काटदरे ने किया है। ‘बोध कथाएं’ (2001), ‘नैतिक शिक्षा’ (2001), ‘विद्या भारती की अभिनव पंचपदी शिक्षा पद्धति’ (2003) आदि-आदि। इन पर चर्चाज्ञान लेख में संभव नहीं है।

माननीय श्री तोमर जी शिक्षा जगत को बहुत कुछ दे गए हैं। उदियमान भारत के नवनिर्माण में लगे शिक्षा शास्त्री उनके ऋण से शायद ही मुक्त हो पाए। मैं भारतीय शिक्षा के उस पुरोधा को नमन करता है।

(लेखक कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से प्रोफेसर सेवानिवृत है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान कुरुक्षेत्र में शोध निदेशक है।)

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