– अवनीश भटनागर
स्वतंत्रता के 75 वर्ष बाद भी शिक्षा में भारतीयता के विचार की चर्चा आते ही शिक्षाविदों और बुद्धिजीवियों के कान खड़े हो जाते हैं – वैश्विकता के युग में भारतीयता का क्या काम?
326 ई.पू. से चले आ रहे निरन्तर आक्रमणों और कालान्तर में उन्हीं आक्रान्ताओं के शासन की दासता के कारण भारत का प्राचीन सशक्त, जीवन निर्माण में सक्षम शिक्षा तंत्र निर्बल हुआ और 1835 के बाद अंग्रेजी शिक्षा पद्धति का प्रभाव बढ़ने के साथ लगभग ध्वस्त होने की स्थिति में आ गया। समस्या की बात यह थी कि स्वाधीनता प्राप्ति के बाद विविध विषयों में परिवर्तन के लिए नीतियां बनाई गई परन्तु शिक्षा का विषय जैसे तत्कालीन नीति निर्माताओं के लिए प्राथमिकता का मुद्दा नहीं था। समाज हित तथा देश के भविष्य का विचार करने वाले कुछ मनीषियों के प्रयासों से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रेरणा से 1952 में सरस्वती शिशु मन्दिर योजना का उत्तर प्रदेश के गोरखपुर से शुभारंभ हुआ जिसने समय के साथ समाज का पर्याप्त प्रतिसाद पाकर अखिल भारतीय स्वरूप धारण कर लिया। 1978 में ‘विद्या भारती अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान’ नामक संस्था का गठन इस अखिल भारतीय शैक्षिक कार्य को मार्गदर्शित करने के लिए किया गया, और इसके संस्थापक संगठन मंत्री का गुठतर दायित्व श्री लज्जाराम तोमर जी के सशक्त कन्धों पर सौंपा गया, जो कि उस समय तक आगरा में एक इंटर कॉलेज के प्रधानाचार्य के रूप में अपने विविध शैक्षिक नवाचारी प्रयोगों के लिए प्रसिद्ध थे, किन्तु संन्यास-साधना के मार्ग की ओर चल पड़ने को तैयार थे। संघ के क्षेत्र प्रचारक मा.भाऊराव जी देवरस, श्री लज्जाराम जी की अप्रतिम शैक्षिक प्रतिभा और समर्पण भाव से परिचित थे। उन्होंने आग्रहपूर्वक उनकी इस रचनात्मकता और शैक्षिक सोच को समाज हित में मोड़ दिया।
प्रधानाचार्य के रूप में अपने कार्यकाल में श्री तोमर जी अपने विद्यालय में शिशु भारती, छात्र संसद, छात्र न्यायालय, छात्रों द्वारा संचालित बैंक, वर्गानुसार कक्षा कक्ष की सर्वदूर प्रचलित परम्परा के स्थान पर विषय शिक्षण के लिए उपयुक्त वातावरण युक्त कक्षा कक्षों की रचना, विद्यालय केन्द्रित शारीरिक शिक्षा, योग, संगीत शिक्षा आदि के प्रशिक्षण के वर्गों के आयोजन आदि, क्रमश: छात्रों तथा शिक्षकों के लिए अनेकानेक प्रकार के शैक्षिक प्रयोग कर के उनकी गुण-दोष आधारित अनुभवजन्य समीक्षा कर चुके थे। संघ के सक्रिय कार्यकर्ता रहने के कारण उनमें सांगठनिक क्षमता भरपूर थी। इस प्रकार प्रधानाचार्य के रूप में प्रशासनिक अनुभव, शैक्षिक प्रयोगों पर साधिकार समझ और सांगठनिक सूझबूझ के मणि-कांचन संयोग से लज्जाराम जी के इस वैविध्यपूर्ण व्यक्तित्व का अतुल्य लाभ विद्या भारती को ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण शिक्षा जगत को प्राप्त हुआ।
लज्जाराम जी मूलतः और जन्मजात ‘शिक्षक’ ही थे, यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी। मैट्रिक की परीक्षा में अपने गृह जिला मुरैना (म.प्र.) में प्रथम स्थान प्राप्त करने पर उन्हें पुलिस में उपनिरीक्षक के पद का प्रस्ताव जिला प्रशासन द्वारा दिया गया। उस समय यह अत्यन्त सरल था और किसी भी युवक के लिए कैरियर का बड़ा आकर्षण भी, किन्तु लज्जाराम जी को पुलिस अधीक्षक को अपना सुविचारित निर्णय बताने में देर न लगी, “धन्यवाद, किन्तु मैं तो शिक्षक बनूंगा”।
शिक्षक, शिक्षाविद्, चिंतक, विचारक, लेखक, वक्ता, कौन सी श्रेणी में रखा जाना लज्जाराम जी के विशाल व्यक्तित्व को समेटने के लिए पर्याप्त होगा, यह अपने आप में प्रश्नचिह्न है। ‘भारत में शिक्षा’ की चर्चा तो होती है, किन्तु ‘शिक्षा में भारत’ होना चाहिए, इस दृढ विचार के साथ लज्जाराम जी ने ‘भारतीय शिक्षा के मूल तत्व’ (1984), ‘विद्यालय सामाजिक चेतना के केन्द्र बनें’ (1999), ‘परिवारों में संस्कारक्षम वातावरण : क्यों और कैसे ?’ (1999), ‘भारतीय शिक्षा मनोविज्ञान के आधार’ (1999), ‘प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति’ (2000) ; ‘विद्या भारती चिन्तन की दिशा’ (2001) ; ‘बाल किशोर बोध कथाएँ’ (2001); ‘नैतिक शिक्षा’ (2001); ‘विद्या भारती की अभिनव पंचपदी शिक्षण पद्धति’ (2003); ‘बाल भारती’(2004) तथा ‘विद्या भारती की विद्यालय संकुल योजना’ (2004) पुस्तकों का लेखन किया। उनके द्वारा लिखे गए शैक्षिक लेखों और भाषणों की संख्या तो अगणित है। इन सभी पुस्तकों तथा लेखों में वैचारिक अधिष्ठान की स्पष्टता, भाषा की प्राञ्जलता, विषयवस्तु की साधिकार विवेचना, पाठकों की संभाव्य जिज्ञासाओं का समाधान और भावात्मक प्रेरणा जागरण, इन सभी तत्वों का कुशल समन्वय है।
विद्या भारती के विद्यालयों में प्रयोग की जाने वाली अधिकांश गतिविधियाँ – पंचपदी शिक्षण पद्धति, पंचमुखी शिक्षा, ग्रामीण-जनजातीय-सेवा क्षेत्र की शिक्षा व्यवस्था, शारीरिक-योग-संगीत-संस्कृत-नैतिक एवं आध्यात्मिक शिक्षा के पाँच आधारभूत विषय, संस्कृति बोध परियोजना, भारतीय शिक्षा शोध संस्थान – श्रद्धेय लज्जाराम जी की प्रेरणा से आज प्रत्यक्ष रूप में दृष्टिगोचर हो रहे हैं।
21 जुलाई, 1930 को मध्य प्रदेश के मुरैना जिले के गाँव बधपुरा से प्रारम्भ हुई यह दिव्य जीवन यात्रा अनेक मार्गों पर अपने स्थायी पदचिह्न छोड़ कर 17 नवम्बर 2004 को लखनऊ में अंतिम पड़ाव पर पहुंच कर उसी दिव्य ज्योति में विलीन हो गई। चर्मचक्षुओं से अदृश्य देह के अन्दर अवस्थित उस दिव्य ज्योतिपुंज की कीर्तिरूपी देह उन सभी को प्रेरणा दे रही हैं, जो कभी भी उनके सम्पर्क में आये। श्रद्धा भरे अन्त:करण से उनकी पुण्यस्मृति को उनकी 17 वीं पुण्यतिथि पर भावपूर्ण नमन!
(लेखक विद्या भारती के अखिल भारतीय मंत्री और संस्कृति शिक्षा संस्थान कुरुक्षेत्र के सचिव है।)
Vidya bharti ke manishi ko pranam !!