– रवि कुमार
मित्रों अथवा परिचितों के यहाँ विवाह या शुभ कार्यक्रम का निमंत्रण मिलने पर सामान्यतः सम्मिलित होना होता है। आजकल यह कार्यक्रम अधिकतर रात्रि में ही सम्पन्न होते हैं। वहाँ भोजन देर रात्रि में होता है। देर रात्रि भोजन होने के अगले दिन पेट की क्या स्थिति होती है, इसका कभी हमने विचार किया है? असमय किए गए पूर्ण भोजन के पश्चात पाचन की क्या स्थिति होती है, उसका अनुभव तो हमने किया ही होगा। उस समय ठीक पाचन नहीं होता। भूख तो ठीक लगी है और उस समय हमने खाया ही नहीं अथवा कम खाया, तब पेट की स्थिति का अनुभव हुआ है? ऐसा किस कारण होता है? आइए इसका विचार करते हैं।
हम सभी जानते हैं कि मानव शरीर पांच महाभूतों (भूमि, जल, वायु, अग्नि व आकाश) से मिलकर बना है- “छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा।।” रामचरित मानस – 1.4.11 ।। और मरणोपरांत इन्हीं पंच महाभूतों में विलीन हो जाता है। इन पंच महाभूतों में एक तत्त्व है- अग्नि। अब अग्नि का शरीर संचालन में क्या कार्य है?
अग्नि का कार्य
अग्नि पित्त के अंतर्गत समाहित होती है- “न खलु पित्त व्यतिरेकादन्य अग्निरूपलक्ष्यते” (सुश्रुत संहिता – २९/९) और पाचन-पोषण आदि कार्यों को संपादित करती है। आहार का पाचन अग्नि द्वारा होता है जिससे आहार रस का निर्माण होता है जो शरीर को बल प्रदान करता है। अग्नि को आयु, वर्ण, बल आदि का मूल कहा गया है। शरीर के तापमान को नियंत्रण करने का कार्य भी अग्नि करती है। आयुर्वेद में 13 प्रकार की अग्नि बताई गई हैं।
अग्नि के प्रकार
१. जठराग्नि – इसका प्रमुख कार्य जठर में उपस्थित आहार का पाचन करना है।
२. भूताग्नि – यह अग्नि जठर द्वारा पचित आहार के अलग-अलग महाभूत को शरीर की कोशिकाओं तक ले जाती है। हर महाभूत की एक अग्नि अर्थात इस प्रकार की पाँच अग्नियां है।
३. धात्वग्नि – इसका प्रमुख कार्य महाभूतों के अलग अलग घटक से नए तत्वों का निर्माण कर धातु को पोषण देना है। शरीर में सप्त धातु (रस, रक्त, मेद, मज्जा, मांसपेशी, अस्थि व शुक्र) है, अतः इस प्रकार की सात अग्नियां है।
चिकित्सा की दृष्टि से अग्नि को चार भागों में विभाजित किया गया है- विषग्नि, मन्दाग्नि, तीक्ष्णाग्नि एवं समाग्नि। मानव स्वास्थ्य की रक्षा के लिए समाग्नि सबसे ठीक है। यह सम्यवस्था अत्यंत महत्वपूर्ण है।
अग्नि पर ऋतु का प्रभाव
ऋतु अनुसार अग्नि की स्थिति अलग-अलग होती है। यथा- हेमंत व शिशिर ऋतु – अग्नि प्रबल, वसंत ऋतु – अग्नि मंद, ग्रीष्म ऋतु – अग्नि विषग्नि (अर्थ स्पष्ट करें जी), वर्षा ऋतु – जठराग्नि दुर्बल एवं शरद ऋतु – जठराग्नि तीव्र।
उस समय ऋतु अनुसार आहार का नियम न पालन करने के फलस्वरूप मनुष्य अनेक रोगों को स्वयं आमंत्रण देता है। आज के युग में भोजन संबंधी पथ्य परहेज का पालन नहीं होता। वर्षभर भोजन का प्रकार एक जैसा ही रहता है। ‘आजकल तो ऐसा चलता है’ ऐसा कहकर ऋतुचर्या को अलग रख दिया जाता है और परिणाम स्वरूप चिकित्सक के पास जाना, औषधि को ग्रहण करना….होता है। कुछ रोग तत्काल नहीं होते परंतु उसका कारण उसी समय प्रारम्भ हो जाता है और कुछ वर्षों बाद रोग प्रस्फुटित होता है। तब व्यक्ति सोचता है कि मैं तो सादा ही भोजन करता था…। जिन परिवारों में भारतीय परम्परागत रसोई का पालन होता है, वहां का भोजन ऋतुचर्या अनुसार होगा और उस परिवार के सदस्य अपेक्षाकृत अधिक स्वस्थ व निरोगी मिलेंगे।
जठराग्नि
जठराग्नि का सम्बंध सूर्य से भी है। सूर्य की किरणें जैसे जैसे प्रखर होती है, वैसे वैसे जठराग्नि भी उतनी प्रज्वलित होती रहती है। दिन में प्रातः 10 बजे से अपराह्न 2 बजे तक जठराग्नि सर्वाधिक प्रज्वलित होती है। सूर्यास्त तक और उसके पश्चात मंद पड़ती जाती है। आजकल जठराग्नि के विपरीत रात्रि में गरिष्ठ और अति आहार का सेवन होता है और प्रातः व दिन में कम। इस कारण जठराग्नि सामान्य स्थिति में भी मंद होती चली जाती है। “रोगा: सर्वेsपि मन्देsग्नौ जायते” अर्थात शरीर में होने वाली सभी प्रकार की व्याधियों का मूल कारण अग्नि का मंद होना है, अतः स्वस्थ जीवन के इच्छुक व्यक्ति को अग्नि की रक्षा करने का सदैव प्रयत्न करना चाहिए।
अग्नि की सम्यक अवस्था के लिए क्या करे…
आहार देह और मन के अनुकूल हो और उचित समय, नियत मात्रा और विधि विधान से किया जाए तो अग्नि के विकृत होने का भय नहीं रहता। सम्यक आहार के सेवन से अग्नि को सम रखने का प्रयत्न करना चाहिए।
समय पर भोजन करें। मात्रा युक्त आहार का सेवन करें। भोजन पश्चात शरीर के क्रियाकलापों यथा- उठना, बैठना, बोलना, हँसना आदि में बाधा न हो। पहले सेवन किए हुए भोजन के पाचन के पश्चात ही भोजन करें।
व्यायाम और निद्रा का सम्यक ध्यान रखे। भोजन मन लगाकर करें और भोजन में कमियां न निकालें। कभी अत्यधिक और कभी कम भोजन, ऐसा न करें। विरुद्धाहार (यथा दूध के साथ अम्ल पदार्थ आदि का सेवन) न करें। भोजन करने के तुरंत पश्चात शयन न करें। चिंता, शोक, भय, क्रोध आदि मानसिक भावों से बचे। जल का अत्यधिक या कम सेवन, भोजन के तुरंत पश्चात जल ग्रहण, ऐसा न करें। भूख और प्यास के वेग को धारण न करें।
स्वस्थ शरीर के लिए आहार पुष्टता आवश्यक है और आहार पुष्टता के लिए उसका सही पाचन होना। पाचन पश्चात पौष्टिक तत्त्वों से धातु निर्माण व शरीर के सभी अंगों तक उसका पहुँचना, ये सब तभी हो सकेगा जब अग्नि सम्यक अवस्था में रहेगी। दिनचर्या व आहार नियमों में थोड़ा बदल करने से हम अग्नि सम्यक रख सकते हैं और ‘पहला सुख निरोगी काया’ की ओर बढ़ सकते हैं।
(लेखक विद्या भारती दिल्ली प्रान्त के संगठन मंत्री है और विद्या भारती प्रचार विभाग की केन्द्रीय टोली के सदस्य है।)
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