– रवि कुमार
दो व्यक्ति अलग-अलग कक्ष में सोए हुए हैं। एक कक्ष में खिड़की दरवाजे बंद है, ए.सी. चल रहा है। दूसरे कक्ष में पंखा लगा है। दरवाजे खिड़की खुले हुए है। रात्रि में विद्युत जाने पर दोनों कक्षों में सोए हुए व्यक्तियों की क्या स्थिति होगी? रातभर विद्युत न जाने पर प्रातः जागरण के समय उनकी क्या स्थिति होगी? कक्षाकक्ष में आचार्य सामान्यतः एक वाक्य का उपयोग करते हैं कि “सावधान, कमर सीधी करके बैठिए”। यह वाक्य विद्यार्थी काल में सभी ने पर्याप्त सुना है। बालक विचार करता है कि आचार्य इस वाक्य का बार-बार क्यों प्रयोग करते हैं? एक वाक्य समाज में सर्वदूर सुनने को मिलता है- “जितने श्वास है व्यक्ति उतना ही चलेगा”। प्रश्न यह उठता है कि जीवन के लिए श्वास भी गिनकर लिखे गए हैं? आइए इन प्रश्नों को समझते है और उनका उत्तर खोजने का प्रयास करते हैं।
मानव शरीर पांच तत्त्वों (भूमि, जल, वायु, अग्नि और आकाश) से मिलकर बना है। शरीर में वायु तत्त्व की मात्रा 6% के आसपास होती है। भोजन के बिना व्यक्ति 8-10 दिन तक जीवित रह सकता है। पानी के बिना 3-4 दिन और वायु के बिना 3-5 मिनट व्यक्ति का जीवन संभव है। वायु का रूप सूक्ष्म है परंतु महत्त्व अधिक है।
जैसे कम्यूटर का हार्डवेयर अच्छा होने पर भी सॉफ्टवेयर के बिना वह अधूरा एवं अनुपयोगी है। उसी प्रकार भौतिक शरीर में प्राण नहीं है तो वह मृत माना जाता है। शरीर में प्राणों का वाहक प्राणवायु है। प्राणवायु का स्तर शरीर में कम होने पर कैसा अनुभव होता है, यह कोरोना-2 की लहर में हुए घटनाक्रम से अनुमान लगा सकते है। जीवन अच्छा चलाना है तो उसमें सॉफ्टवेयर अर्थात प्राण ठीक होने चाहिए। प्राणों का वाहक चूंकि वायु है अतः वह शुद्ध रूप में, पर्याप्त मात्रा में और बिना बाधा के शरीर में जानी चाहिए।
शरीर में वायु के प्रकार – पंच प्राण
पंच प्राणों के रूप में वायु शरीर में विद्यमान रहती है। ये पंच प्राण है- १) प्राण २) अपान ३) समान ४) उदान ५) व्यान। इन पांचों का शरीर में अपना अपना कार्य है। व्यान पूरे शरीर की सभी कोशिकाओं (सेल्स) में विद्यमान रहती है। उदान वायु कंठ से ऊपर अर्थात मस्तिष्क के कार्य में लगती है। समान पाचन तंत्र को ठीक बनाए रखने का कार्य और अपान पेट से नीचे त्याज्य तत्त्वों के साथ बाहर निकलती है। प्राणवायु श्वसन तंत्र को चलायमान रखती है। इन पंच प्राणों में से कोई भी असंतुलित होती है तो शरीर रोगों व व्याधियों से ग्रसित हो जाता है।
“चले वाते चलं चित्तं निश्चले निश्चलं भवेत्।
योगी स्थाणुत्वम् आप्नोति ततो वायुं निरोधयेत्॥
– श्रीस्वात्मारामकृत हठयोग प्रदीपिका-२.२॥”
अर्थात प्राणों के चलायमान होने पर चित्त भी चलायमान हो जाता है और प्राणों के निश्चल होने पर मन भी स्वत: निश्चल हो जाता है और योगी स्थाणु (ठूंठ) हो जाता है। अतः योगी को श्वांसों का नियंत्रण करना चाहिये।
कक्षाकक्ष में जब आचार्य कमर सीधी करने को कहता है, उससे फेफड़ों में ठीक से वायु ग्रहण कर सकते हैं और कुल श्वसित वायु में से बड़ा अंश उदान अर्थात मस्तिष्क के काम आता है। मस्तिष्क ठीक कार्य करे इसके लिए उदान वायु का पर्याप्त होना आवश्यक है। अच्छे स्वास्थ्य के लिए कहा जाता है कि सूती, ढीले व हवादार वस्त्रों का उपयोग करना चाहिए। ऐसा क्यों कहा जाता है? व्यान वायु जो हमारी कोशिकाओं में व्याप्त होती है। वह त्वचा के रोम छिद्रों के माध्यम से संतुलित रहती है। शरीर के त्याज्य तत्त्वों में से कुछ तत्त्व पसीने व वायु के रूप में त्वचा के रोम छिद्रों से बाहर आते हैं। कसे हुए व बिना हवादार वस्त्रों से ऐसा नहीं हो पाता जो कि स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डालता है।
प्राणमय कोश
जीवन ठीक से जीना है तो प्राणमय कोश का विकास होना आवश्यक है। यह पंच प्राणों के बिना नहीं हो सकता। प्राणमय कोश के विकास के लिए तीन कार्य आवश्यक है-
१. प्राण बलवान होना अर्थात जीवनी शक्ति अधिक होना जो व्यक्ति में कार्यशक्ति, उत्साह, महत्वाकांक्षा, साहस, पराक्रम एवं विजिगीषा के रूप में प्रकट होती है।
२. प्राण का संतुलित होना अर्थात शरीर के सभी अंगों को समय पर व आवश्यक मात्रा में प्राण मिल जाएं।
३. प्राण का एकाग्र होना अर्थात अलग-अलग कार्य के समय जिन अंग-उपांगों से कार्य होना है, उस समय वहां पर प्राण का एकाग्र होना।
क्या करें
१. शुद्ध प्राण वायु – प्राणमय कोश के विकास के लिए शुद्ध वायु का सेवन आवश्यक है। वातावरण में उपस्थित कुल वायु में 21% प्राण रहता है। कुल वायु जितनी शुद्ध रहेगी उतना प्राण भी शुद्ध रहेगा और शरीर में उतनी मात्रा में शुद्ध वायु भी जाएगी। इसलिए जितना अधिक हो सके शुद्ध वायु में रहने का प्रयास करें। जहाँ निवास व कार्यस्थल है, वहां अधिकाधिक वृक्ष-पौधे हो, इसका प्रयास करें।। बंद कक्ष की बजाय हवादार कक्ष में निवास व कार्य करने का प्रयास करें। खुली हवा में रहने का अभ्यास डाले। प्रातःकाल की वायु अधिक स्वास्थ्यप्रद होती है, उसका अधिकाधिक सेवन करें।
२. सही श्वसन क्रिया – श्वास लेते समय यदि अवरोध है तो प्राण भी कम जाता है। अच्छे श्वसन के लिए लंबी, गहरी और नियमित श्वास लेने की आदत डालें। सीधा बैठने का अभ्यास करें, इससे फेफड़ों को पर्याप्त फूलने का अवसर मिलता है। कफ के कारण श्वसन मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। श्वसन मार्ग की शुद्धि करना आवश्यक है।
३. चेतना तन्त्र की शुद्धि – चेतना तंतुओं के आलम्बन से प्राण पूरे शरीर में व्याप्त रहता है। चेतना तंतु जितने शुद्ध होंगे उतनी शर्त से प्राण पूरे शरीर के अंग-उपांग तक पहुंच पायेगा।
४. प्राणायाम – प्राण+आयाम का अर्थ है- प्रथम श्वास पर नियंत्रण या रोकना और द्वितीय विस्तार और दिशा।
“प्राणायामेन युक्तेन सर्वरोगक्षयो भवेत्। प्राणायामवियुक्तेभ्यः सर्वरोगसमुद्भवः॥”
– योगचूड़ामन्युपनिषद – ११६
विधिवत् प्राणायाम के अभ्यास से सभी प्रकार के रोगों से मुक्ति मिलती है। प्राणायाम के न करने से यह शरीर रोगों का उत्पत्तिस्थान बना रहता है॥
नियमित दिनचर्या में प्राणायाम को स्थान दे। किसी योग्य शिक्षक से मार्गदर्शन लेकर प्राणायाम का नियमित अभ्यास करें।
५. भोजन और निद्रा – ये दोनों तत्त्व शरीर को पुष्ट करते ही है। साथ ही प्राण को भी पुष्ट करते है। संतुलित भोजन और सम्यक निद्रा प्राण के विकास के किए जीवनचर्या का अंग बनना आवश्यक है।
शरीर के पंच तत्त्वों में वायु वह तत्त्व है जो सबसे अधिक शक्ति उत्पन्न कर सकता है। पंच प्राण तन और मन को अच्छा रखने और आध्यात्मिक रूप से सक्रिय रखने के लिए पर्याप्त हैं। अपनी जीवन शैली में परिवर्तन कर प्राण तत्त्व के माध्यम से मनुष्य अपना जीवन अच्छा बना सकता है।
(लेखक विद्या भारती दिल्ली प्रान्त के संगठन मंत्री है और विद्या भारती प्रचार विभाग की केन्द्रीय टोली के सदस्य है।)