– वासुदेव प्रजापति
आज शिक्षा क्षेत्र में औपचारिक और अनौपचारिक शब्दों का प्रयोग बहुत होता है, किन्तु इन दोनों शब्दों के सही अर्थ के बारे में बहुत कम लोग जानकारी रखते हैं। सही जानकारी न रखने का कारण इन दोनों शब्दों के पाश्चात्य अर्थ और भारतीय अर्थ में भिन्नता होना है। अतः हम सभी शिक्षा क्षेत्र के लोगों के लिए इन दोनों शब्दों का सही अर्थ जानना नितान्त आवश्यक है।
इनका पाश्चात्य अर्थ
औपचारिक और अनौपचारिक शब्द हैं तो भारतीय भाषा के परन्तु शिक्षा की पारिभाषिक शब्दावली के रूप में वे पश्चिम से अर्थात अंग्रेजी भाषा से लिए गए हैं। अंग्रेजी भाषा के ये शब्द हैं, फार्मल और इनफार्मल। फार्मल शब्द का अर्थ है विधिवत प्राप्त की हुई शिक्षा और इनफार्मल शब्द का अर्थ है बिना किसी व्यवस्था से प्राप्त की हुई शिक्षा। इसे हम अधिकृत व अनधिकृत शिक्षा भी कहते हैं। शब्द अधिकृत में अधिकार भाव निहित है। अधिकार संज्ञा में भी पाश्चात्य व भारतीय अर्थ भिन्न भिन्न हैं। इसका पाश्चात्य अर्थ है, व्यवस्था से प्राप्त की हुई अधिकृतता। अर्थात किसी मान्य शिक्षा संस्था में मान्य शिक्षक के द्वारा प्राप्त की हुई शिक्षा। जिसमें शिक्षार्थी को उस मान्य व्यवस्था से प्रमाणपत्र प्राप्त होता है। ऐसी शिक्षा को अधिकृत शिक्षा कहा जाता है। जबकि बिना प्रमाणपत्र की केवल रुचि से प्रेरित होकर प्राप्त की हुई शिक्षा, जिसमें कोई प्रमाणपत्र नहीं मिलता वह अनधिकृत शिक्षा है।
प्रमाणपत्र क्यों?
पाश्चात्य मानस में तो यह प्रश्न उठता ही नहीं है। पाश्चात्य व्यवस्था में अधिकृत या औपचारिक शिक्षा का ही प्रावधान है। यह प्रश्न तो भारतीय मानस में ही आता है, जो यह मानता है कि बिना प्रमाणपत्र के भी ज्ञान तो प्राप्त होता ही है। विचार करने पर यह बात सही प्रतीत होती है कि प्रमाणपत्र का सीधा सम्बन्ध शिक्षा प्राप्त करने से नहीं है। इसका सीधा सम्बन्ध पद या व्यवसाय से है। और व्यवसाय के लिए प्रमाणपत्र के साथ साथ आज्ञा पत्र भी चाहिए। जैसे किसी चिकित्सक को नौकरी करने के लिए प्रमाणपत्र चाहिए, परन्तु चिकित्सा करने के लिए आज्ञा पत्र भी चाहिए।
अर्थात प्रमाणपत्र का अन्तिम हेतु अर्थार्जन है। प्रमाणपत्र से नौकरी मिलती है, नौकरी से आजीविका अर्थात पैसा मिलता है। आज्ञा पत्र से व्यवसाय होता है और व्यवसाय से पैसा मिलता है। ऐसी शिक्षा को अधिकृत शिक्षा माना गया है। बिना प्रमाणपत्र के भी ज्ञान के आधार पर चिकित्सा तो की जा सकती है, परन्तु उसके वह पैसे नहीं ले सकता, नौकरी नहीं कर सकता। इसलिए ऐसी शिक्षा अनधिकृत शिक्षा कहलाती है, जो मान्य नहीं है।
प्रमाण पत्र कौन देता है?
प्रथम दृष्टि में तो यही लगता है कि प्रमाणपत्र शिक्षा संस्था देती है, किन्तु वह शिक्षा संस्था भी मान्यता प्राप्त होनी चाहिए। यदि वह मान्यता प्राप्त नहीं है तो उसे प्रमाणपत्र देने का अधिकार नहीं है। यह अधिकार किसके हाथ में है? शासन के हाथ में है। अर्थात प्रमाणपत्र देने का वास्तविक अधिकारी शासन है।
इस प्रमाण पत्र का अन्तिम लक्ष्य अर्थार्जन है और इसकी प्रमाणित व्यवस्था शासन के पास है। ऐसी शिक्षा ही अधिकृत शिक्षा है। इसे ही हम औपचारिक शिक्षा कहते हैं। केवल ज्ञानार्जन के लिए, शौक-मौज के लिए प्राप्त की हुई शिक्षा को हम अनौपचारिक शिक्षा कहते हैं। यह पाश्चात्य शैली है, जिसमें सत्ता और पैसा परस्पर जुड़ा हुआ है और शेष सारी बातें शासन के नियमन में चलती है।
मात्र शिक्षा के क्षेत्र में ही ऐसा नहीं है, शिक्षा के साथ-साथ खेल, कला और मनोरंजन के क्षेत्रों में भी यही व्यवस्था काम करती है। उनमें भी दो प्रकार हैं – एक वे हैं जो केवल शौक के लिए खेलते हैं अथवा नाटक व संगीत के कार्यक्रम करते हैं। दूसरे वे हैं जो व्यावसायिक खेल अकादमियों या व्यावसायिक रंगमंचों के माध्यम से पैसा कमाते हैं। और इस व्यवस्था को सही मानकर चलते हैं। यह सत्ता और पैसे की व्यवस्था पश्चिम की व्यवस्था है, भारत की नहीं।
भारतीय मानस औपचारिक और अनौपचारिक शिक्षा की परिभाषा को पाश्चात्य व्यवस्था के अर्थ में नहीं समझ सकता, जिसमें सत्ता व पैसा जुड़ा हुआ है। यहाँ ज्ञान, कला और संगीत के लिए शासन को अन्तिम अधिकार देने की कल्पना तक नहीं की गई है। अंग्रेजों से पहले भारत में शिक्षा के साथ पैसा जुड़ा हुआ नहीं था और शिक्षा शासन के हाथ में नहीं थी। इसे ठीक से समझने से पहले हम जानते हैं, एक भारतीय दृष्टान्त –
श्रेष्ठ गायक कौन है?
हम सबने प्रसिद्ध संगीतज्ञ तानसेन का नाम सुना है। यह दृष्टान्त उनके जीवन का है। उन्होंने संगीत की शिक्षा अपने गुरु स्वामी हरिदासजी से प्राप्त की थी।श्रेष्ठगुरु से शिक्षा प्राप्त कर वे उच्च कोटि के गायक बन गए। उस समय तानसेन की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई थी। वे अकबर के नौ रत्नों में से एक थे। फिर भी एक प्रश्न उनके मन में बार-बार आता था कि मैं अपने गुरु जैसा क्यों नहीं गा सकता? एक दिन उन्होंने साहस कर गुरु से पूछ ही लिया कि गुरुदेव मैं आप जैसा कब गा सकूँगा? गुरु हरिदासजी उसे कहते हैं कि जब तुम सर्वोच्च लक्ष्य के लिए गाओगे, तब। तानसेन ने पुनः पूछा, यह सर्वोच्च लक्ष्य क्या है? उन्होंने बताया प्रत्येक साधक का अपना-अपना लक्ष्य होता है, किसी का उदरपूर्ति का, किसी का विलास का, किसी का यश व प्रतिष्ठा पाने का तो किसी का मोक्ष का। जब कोई साधक मोक्ष के लिए संगीत साधना करता है, तब वह श्रेष्ठतम कोटि का गायन करता है और उसे आध्यात्मिक आनन्द मिलता है। यहाँ यह समझने की बात है कि तानसेन का लक्ष्य तो उदरपूर्ति व अपने बादशाह अकबर को प्रसन्न करना था। फलस्वरूप उसे बहुमूल्य भेंट व मान-सम्मान तो मिलता था परन्तु वह अपने गुरु की बराबरी नहीं कर पाता था।
एक बार बादशाह अकबर तानसेन से पूछता है, तुमसे भी श्रेष्ठ गायक कौन है? तानसेन कहते हैं, मेरे गुरुदेव स्वामी हरिदासजी। अकबर हरिदासजी का गायन सुनने की इच्छा व्यक्त करता है। तानसेन बताता है कि वे आपके दरबार में नहीं आयेंगे। अकबर कहता है कोई बात नहीं हम उनके पास जायेंगे। तब तानसेन उन्हें बताते हैं कि वे आपकी फरमाइश पर नहीं गायेंगे और न आपको खुश करने के लिए गायेंगे। फिर वे कैसे गायेंगे? वे तो केवल कृष्ण के लिए व राधा रानी के हुकम पर गायेंगे। वे अपने ईश्वर को रिझाने के लिए ही गाते हैं, इसीलिए उनका गायन उच्च कोटि का होता है। (सन्दर्भ: उपनिषद गंगा)
भारतीय अर्थ भिन्न है
यह है भारतीय मानस। भारत में संगीतकार को, कवि को, कलाकार को पैसे नहीं मिलते ऐसी बात नहीं है, परन्तु भारत में संगीत, कला या काव्य का अन्तिम लक्ष्य पैसा नहीं है। यही बात ज्ञान की है, ज्ञान प्राप्ति का अन्तिम लक्ष्य उदरपूर्ति नहीं मोक्ष प्राप्ति है। अत: अर्थार्जन के सन्दर्भ में ज्ञान की व्यवस्था भारत में कभी शासन पर आश्रित नहीं थी।
औपचारिक और अनौपचारिक शिक्षा का भारतीय अर्थ बहुत सीधा है। “मैं पढ़ता हूँ” ऐसा संकल्प लेकर जो पढ़ना प्रारम्भ करता है, वह औपचारिक शिक्षा है। और बिना किसी संकल्पित विधि-विधान से जो शिक्षा होती है, वह अनौपचारिक शिक्षा है। जैसे – यज्ञोपवीत संस्कार के बाद गुरुकुल में पढ़ने के लिए जाने वाला छात्र औपचारिक शिक्षा ग्रहण करने हेतु जाता है। संगीत की शिक्षा प्राप्त करने हेतु जाने वाले छात्र को गंडा बाँधकर गुरु औपचारिक शिक्षा हेतु प्रवेश देता है। यह आज की शासन मान्य शिक्षा देने वाली संस्थाओं की बात नहीं है। अपितु परम्परागत दी जाने वाली शिक्षा की बात है। कारीगरी के व्यवसायों में, कुश्ती जैसे खेलों में भी औपचारिक शिक्षा व्यवस्था होती है। परन्तु वह आज की औपचारिक शिक्षा से बहुत भिन्न है। एक तो उसे शासन मान्यता की अपेक्षा नहीं है और दूसरा उसके बिना अर्थार्जन नहीं हो सकता, ऐसी बात भी नहीं है। गुरुकुल की शिक्षा तो अर्थार्जन के लिए है भी नहीं।
अनौपचारिक शिक्षा का क्षेत्र व्यापक है
औपचारिक शिक्षा व्यवस्था भारत में अनिवार्य नहीं थी। औपचारिक शिक्षा बहुत कम अनुपात में होती थी। इसकी तुलना में अनौपचारिक शिक्षा का क्षेत्र बहुत व्यापक था और आज भी है। परन्तु आज उसे शिक्षा का क्षेत्र ही नहीं माना जाता। इसे शिक्षा का क्षेत्र मानने के लिए शिक्षा के सम्बन्ध में भारतीय दृष्टि से विचार करना होगा।
शिक्षा को जीवन के साथ जोड़कर देखने पर ध्यान में आता है कि शिक्षा एक जीवमान और आजीवन चलने वाली सतत प्रक्रिया है। उसका लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करना है। ऐसी शिक्षा जन्म पूर्व से प्रारम्भ होकर मृत्यु पर्यन्त चलती है। यह शिक्षा घर में, मंदिर में और समाज में माता-पिता और साधु-सन्तों द्वारा दी जाती है। कारीगरों को व्यवसाय केन्द्रों पर दी जाती है। अर्थात अनेकानेक केन्द्रों पर दी जाती है। अतः इसका क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है।
भारत में अधिकृत व्यवस्था धर्म का विषय है
भारत में किसी भी घटना को अधिकृत या औपचारिक बनाने की पद्धति पश्चिम से सर्वथा भिन्न है। भारत की औपचारिक व्यवस्था संस्कारों के साथ जुड़ी हुई है और संस्कार धर्मशास्त्र का अंग है, शासन का नहीं। भारत में विवाह संस्कार होता है और पति-पत्नी का सम्बन्ध अधिकृत हो जाता है। राज्याभिषेक होता है और राजा अधिकृत हो जाता है। वानप्रस्थ संस्कार होता है और गृहस्थ विधिवत घर का स्वामित्व छोड़ देता है। संन्यास का संस्कार होते ही व्यक्ति दीक्षा लेकर विधिवत संन्यासी बन जाता है। सास घर के भंडार की चाबी अपनी पुत्रवधू के पल्लू में बाँधती है और पुत्रवधू विधिवत गृहस्वामिनी बन जाती है। अर्थात औपचारिकता की व्यवस्था सर्वत्र दिखाई देती है, किन्तु उसका सम्बन्ध संस्कारों से है, शासन से नहीं। शिक्षा की व्यवस्था भी ऐसी ही है। गुरुकुल में पढ़ने हेतु जाना शासन की व्यवस्था नहीं है, धर्म की है और समाज की है।
अनौपचारिक शिक्षा का केन्द्र घर है
अनौपचारिक शिक्षा का आरम्भ घर में होता है। गर्भाधान संस्कार से लेकर जन्म के बाद पाँच वर्ष तक की शिक्षा घर में माता-पिता द्वारा दी जाती है। जब वह औपचारिक शिक्षा के लिए विद्यालय जाने लगता है, तब भी घर में उसकी अनौपचारिक शिक्षा चलती रहती है। जीवन में विनयशीलता, व्यवहार दक्षता, विभिन्न काम करने का कौशल आदि सीखने की शिक्षा घर पर ही मिलती है। इसी प्रकार परिवार के व्यवसाय की शिक्षा तथा भावी गृहस्थाश्रम की शिक्षा भी घर में ही होती है। विवाह संस्कार के बाद जब गृहस्थाश्रम प्रारम्भ होता है, तब माता-पिता बनने की शिक्षा घर में बड़ों के मार्गदर्शन से, उनका अनुकरण करने से, दुनियादारी के अनुभवों से सीखी जाती है। इसी प्रकार साधु-सन्तों की सेवा से, उनके उपदेश से, सामाजिक कार्य करने के रूप में यह अनौपचारिक शिक्षा चलती ही रहती है। व्यक्ति का प्रत्यक्ष जीवन ही अनौपचारिक शिक्षा का एक विद्यालय है।
यह अनौपचारिक शिक्षा आज की औपचारिक शिक्षा की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण है। जीवन विकास के लिए जितनी भी आवश्यक बातें हैं, उनमें से साठ से सत्तर प्रतिशत बातें अनौपचारिक शिक्षा से ही सीखी जाती है। औपचारिक शिक्षा का भाग तो मात्र तीस से चालीस प्रतिशत ही है। आज की विडम्बना यह है कि इतनी महत्वपूर्ण अनौपचारिक शिक्षा के प्रति हमारा ध्यान ही नहीं है। दूसरी ओर एक तिहाई महत्व वाली औपचारिक शिक्षा में हमने अपना अधिकांश समय, शक्ति व संसाधन लगा रखे हैं। अनौपचारिक शिक्षा के बिना प्राप्त औपचारिक शिक्षा का मूल्य और भी कम हो जाता है। इस विडम्बना को दूर करने की आज महति आवश्यकता है।
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सचिव है।)
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