– धीरेंद्र झा
आदि कवि महर्षि वाल्मीकि ने तमसा नदी के तट पर 24000 श्लोकों से निबद्ध रामायण नामक संस्कृत महाकाव्य की रचना की। इस महा काव्य में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के जीवन के माध्यम से हमें जीवन के सत्य व कर्तव्यों से परिचित करवाया गया है। इस महाकाव्य के स्रोतपुरुष मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का जीवन दशरथ पुत्र राम से आरंभ होकर अपने दिव्य गुणों एवं आदेशों के कारण मानव से भगवान श्रीराम बनने की कथा है। इस लोकजयी प्रथम महाकाव्य रामायण की रचना करने के कारण ही उन्हें आदिकवि की संज्ञा दी जाती है। इस ‘रामायण’ महाकाव्य की रचना के पीछे भी एक कथा प्रचलित है कि एक बार महर्षि तमसा नदी के तट पर अवस्थित अपने आश्रम में साधनारत थे, तभी उन्होंने देखा कि एक बहेलिये ने प्रेम मग्न क्रौञ्च (सारस) पक्षी के जोड़े में से नर पक्षी का वध पक्षी कर दिया। जिसके कारण मादा विलाप करने लगी। उसके करुण को सुनकर वाल्मीकि की करुणा जाग गई और द्रवित अवस्था में उनके मुख से स्वत: ही यह श्लोक प्रकट हुआ-
“मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वती समा। यत्क्रौञ्चमिथुनादेक मवधी: काममोहितम्॥”
(अर्थात् हे दुष्ट निषाद। तुमने प्रेमालाप में मग्न क्रौञ्च पक्षी का वध किया है। जाओं तुम्हें भी कभी प्रतिष्ठा की प्राप्ति नहीं होगी। और तुम्हें भी वियोग झेलना होगा।
कवि आनन्दवर्द्धनाचार्य ने लिखा है-
“क्रौंचइन्द्र वियोगेन शोकः श्लोक त्वमागतः” अर्थात क्रौञ्च जोड़ों के दुःख के कारण ही ‘श्लोक’ की उत्पत्ति हुई।कवि सुमित्रा नन्दन पंत ने भी इस कथन की पुष्टि करते हुए कहा है कि
“वियोगी होगा पहला कवि
आह से उपजा होगा गान
निकल कर आँखों से चुपचाप
वही होगी कविता अनजान।।”
इसके बाद उन्होंने प्रसिद्ध महाकाव्य रामायण की रचना की थी। वाल्मीकि ने रामायण में राम के चरित्र के अतिरिक्त अनेक घटनाओं के उस समय के सूर्यचन्द्र तथा अन्य नक्षत्रों की स्थितियों का भी वर्णन किया है। इससे यह ज्ञात होता है कि वे ज्योतिष व खगोल विद्या के भी ज्ञाता थे। भगवान वाल्मीकि त्रिकालदर्शी थे, उन्हें श्रीराम के जीवन में घटित प्रत्येक घटना का पूर्ण ज्ञान था। सतयुग त्रेता और द्वापर तीनों कालों में इनका उल्लेख मिलता है, इसलिए इन्हें सृष्टिकर्त्ता भी कहा जाता है। रामचरितमानस में श्रीराम के वाल्मीकि आश्रम आने और उनके चरणों दण्डवत प्रणाम करने का उल्लेख मिलता है।
“तुम त्रिकालदर्शी मुनिनाथा विस्व बदर जिमि तुमरे हाथा।”
अर्थात आप तीनों लोकों को जानने वाले स्वयं प्रभु है। ये संसार आपके हाथ में एक बेर के समान प्रतीत होता है
महाभारत में भी वाल्मीकि का वर्णन मिलता है। जब पाण्डवों ने कौरवों पर विजय प्राप्त कर ली तो द्रौपदी ने एक यज्ञ का आयोजन किया जिसको सफल करने के लिए शंखनाद करना जरूरी था, किन्तु श्रीकृष्ण सहित कोई भी इस कार्य को नहीं कर पाते हैं। तब सभी की प्रार्थना से द्रवित होकर महर्षि वाल्मीकि प्रकट होते हैं तो शंख स्वतः बज उठता है और द्रौपदी का यज्ञ भी सफल हो जाता है। इस घटना का वर्णन कबीरदास जी ने भी किया है।
“सुपच रूप धार सतगुरु आए
पाण्डवों के यज्ञ में शंख बजाए।।”
रामायण और महाभारत को संस्कृत साहित्य की परंपरा में इतिहास कहा जाता है। रामायण में बाल काण्ड, अयोध्याकाण्ड, अरण्यकाण्ड, किष्किन्धाकांड सुन्दरकाण्ड, लंकाकाण्ड और उत्तर काण्ड सहित सात अध्याय है। इसमें कुल 24000 श्लोक है। समग्र भारतीय वाङ्गमय एवं विश्व वाङ्गमय के सहस्राधिकों, ग्रन्थों, नाटकों, काव्यों व महाकाव्यों का यह उपजीव्य ग्रंथ है।
इस ग्रन्थ की रचना महर्षि वाल्मीकि ने बिहार प्रान्त के चंपारण जिले में तमसा नदी के तट पर अवस्थित वाल्मीकि नगर में की थी। जनकनंदिनी सीता ने अपना परित्याग काल और लव-कुश का जन्म व पालन पोषण भी इसी स्थान पर किया था। नान्य पौराणिक मान्यताओं अनुसार रामायण का काल त्रेतायुग माना जाता है। गोवर्धनपीठ के शंकराचार्य पं. ज्वालाप्रसाद मिश्र तथा श्री राघवेन्द्रचरितम् के रचनाकार श्री भागवतानंद गुरु के विचार में भगवान श्रीराम का अवतरण श्वेतवाराहकल्प के सातवें वैवस्वत मन्वन्तर के चौबीसवें त्रेता युग में हुआ था। जिसके अनुसार श्रीरामचन्द्र का काल लगभग पौने दो करोड़ वर्ष पूर्व का है। इसकी संपुष्टि में विचार पीयूष, मुशुण्डि रामायण पद्म पुराण हरिवंशपुराण, वायु पुराण संजीवनी रामायण एवं पुराणों से प्रमाण दिया जाता है।
आधुनिक विद्वान इसका रचनाकाल 7 वीं से 4 थीं शताब्दी ई.पू. मानते है। कुछ विद्वान इसे तीसरी शताब्दी ई. पू. की रचना मानते है। कुछ भारतीय विद्वान इसे 600 ई.पू. के पहले लिखा गया मानते हैं।
वाल्मीकि रामायण के नायक मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के सोलह विशिष्ट गुणों का संचय बताया गया है, जो लोगों में नेतृत्वकर्त्ता के महत्वपूर्ण सूत्र है। वाल्मीकि जी ने नारद जी से प्रश्न किया कि सम्प्रति इस लोक में ऐसा कौन मनुष्य है जो गुणवान, वीर्यवान, धर्मज्ञ कृतज्ञ, सत्यवादी और दृढ़व्रत होने के साथ-साथ सदाचारी भी हो। जो सभी प्राणियों का हितचिंतक विद्वान सामर्थ्यशाली और प्रियदर्शन हो। महर्षि वाल्मीकि के शब्दों में-
“को उन्चस्मिन् साम्प्रत लोके गुणवान कश्च वीर्यवान।
धर्मज्ञश्च कृतज्ञश्च सत्यवाक्यो हंदूनतः।।
चारित्रेण च को युक्तः सर्वभूतेषु को हितः।
विद्वान कः समर्थश्च कश्चैकप्रियदर्शनः।।
आत्मवान को जितक्रोधो युतिमान कोऽनुसूयका:।
कस्य विस्यति देवाश्च जातरोपस्य संयुगे॥”
अर्थात गुणवान वीर्यवान धर्मज्ञ, कृतज्ञता, सत्यवादिता, दृढ़व्रत, चरित्रवान, सर्वभूत कल्याण, विद्वता, सामर्थ्यवान, सर्वभूत कल्याण, धैर्यवान, जितक्रोध, कान्तियुक्त, ईर्ष्या द्वेष से दूर रहने वाले और पराक्रमी- ये समस्त षोड्श गुणों से युक्त इक्ष्वाकू वंश में उत्पन्न श्रीराम है।
राम की इन्हीं विशेषताओं के आधार पर महाकवि मैथिलीशरण गुप्त कहते है कि “राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है कोई कवि बन जाय, सहज संभाव्य है।”
मानव जीवन में आने वाले समस्त सम्बन्धों को पूर्ण तथा उत्तम रूप से निभाने की शिक्षा देने वाले प्रभु श्री रामचन्द्र जी के समान दूसरा कोई चरित्र नहीं है। कवि वाल्मीकि ने उनको गाम्भीर्य में समुद्र तथा धैर्य में हिमालय की तरह माना है। “समुद्र इव गाम्भीर्येधैर्येण हिमवानिव।।” वाल्मीकि रामायण के तीन पाठ प्राप्त होते हैं- (1) दाक्षिणात्य पाठ (11) गौड़ीय पाठ (111) पश्चिमोत्तरीय पाठ या काश्मीर संस्करण।
उपर्युक्त तीन पाठों में केवल पाठभेद ही नहीं आपत कहीं-कहीं इसके सर्ग भी भिन्न-भिन्न हैं। रामायण की प्रमुख टीकाओं में रामानुजीयम, सर्वार्थसार, रामायणदीपिका बृहद विवरण लघुविवरण, रामायण तत्वदीपिका भूषण वाल्मीकिहृदय, अमृतकर्तृक रामायणतिलक रामायण शिरोर्माण, विषमपदविवृति और रामायण भूषण प्रसिद्ध टीकायें है।
इसी प्रकार रामायण के आधार पर संत तुलसीदास ने रामचरितमानस, मैथिलीशरण गुप्त ने पंचवटी और साकेत नामक खंडकाव्यों की रचना की। नेपाल के कविवर श्री राधेश्याम जी ने राधेश्याम रामायण, प्रेमभूषण ने प्रेम रामायण महर्षि कम्बन ने कम्बरामायण आध्यात्म रामायण, सुब्रह्मण्यम भारती कृत तामिलू रामायण कत्तिवास रामायण इत्यादि। अनेकानेक रामायणों की रचना की गयी। किसी ने ठीक ही कहा है-
“नाना भांति राम अवतारा
रामायण सत कोटि अपारा।
एक राम दशरथ का बेटा।
एक राम घट-घट में लेटा ।
एक राम का सकल पसारा।
एक राम है सबसे न्यारा॥”
रामचरित के उद्गाता आदि कवि महर्षि वाल्मीकि का जन्म महर्षि कश्यप और अदिति के नवम पुत्र वरुण (आदित्य) से हुआ। इनकी माता चर्षणी और भाई मृग थे। वरुण का एक नाम प्रचेत भी है इसलिए इन्हें प्राचेतस नाम से माँ अभिहित किया जाता है। उपनिषद के अनुसार यह भी अपने भाई मृगु की तरह परम ज्ञानी थे। एक बार ध्यान में बैठे हुए वरुण पुत्र के शरीर को दीमकों ने अपना घर बनाकर ढक लिया था। साधना पूरी करके जब यह दीमकों के घर, जिसे वल्मीक कहते हैं से बाहर निकले तो लोग इन्हें वाल्मीकि कहने लगे। हर वर्ष आश्विन माह की पूर्णिमा तिथि को महर्षि वाल्मीकि जी का जन्मोत्सव मनाया जाता है। महर्षि वाल्मीकि ने नारद मुनि के मार्गदर्शन में रामभक्ति का पथ अपनाया और 24000 श्लोकों युक्त ‘रामायण’ महाकाव्य की रचना की। महर्षि वाल्मीकि का संदेश हमें उनके रामायण के श्लोकों में दृष्टिगत होता है, यथा–
धर्मादर्थः प्रभवति धर्मात प्रभवते सुखम्।
धर्मेण लभते सर्वं धर्मसारमिदं जगत्॥
अर्थात धर्म से ही धन, सुख तथा सब कुछ प्राप्त होता है। इस संसार में धर्म ही सार वस्तु है।
“सत्यमेवेश्वरो लोके सत्ये धर्मः सदाश्रितः।
सत्यमूलानि सर्वाणि सत्यान्नास्ति परं पदम्॥”
अर्थात सत्य ही संसार में ईश्वर है। धर्म भी सत्य पर ही आश्रित है। सत्य ही सभी सफलताओं व समृद्धि का आधार है। सत्य से बढ़कर और कुछ नहीं है।
“उत्साही बनवावार्य नास्त्यु सोत्साहस्य हि पत्साहात्परं बलम्।
सोत्सह्स्य ही लेकिशु न किच्चिदपि दुर्लभम।।”
अर्थात उत्साह में बड़ी शक्ति होती है उत्साह से बढ़कर कोई बल नहीं है। उत्साही पुरुष के लिए इस संसार में कुछ भी दुर्लभ नही है।
“वाच्यावाच्य प्रकुपितो न विजानाति कर्हिचित।
नाकार्यमस्ति क्रुद्धस्य न वाच्यं विद्यते क्वचित।।”
अर्थात क्रोध की स्थिति में मनुष्य को कहने और न कहने योग्य बातों का विवेक नहीं होता है। क्रुद्ध मनुष्य कुछ भी कह और बोल सकता है। उसके लिए कुछ भी अकार्य और अवाच्य नहीं है।
“यदाचरिता कल्याणि। शुभं वा यदि वार्ड शुभम्।
तदेव लभते भद्रे कती कर्मजमात्मनः॥”
अर्थात मनुष्य जैसा भी अच्छा या बुरा कर्म करता है, उसे वैसा ही फल मिलता है। कर्ता को अपने कर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ता है।
“सुदुःखं शयितः पूर्वं प्राप्येदं सुखमुत्तमम्।
प्राप्तकालं न जानीते विश्वामित्रो यथा मुनिः।।”
अर्थात किसी को जब दुःख भोगने के बाद पर्याप्त सुख मिलता है तो उसे विश्वामित्र मुनि की भाँति समय का ज्ञान नहीं रहता। उसे सुख का अधिक समय भी थोडा ही लगता है।
“निरुत्साहस्य दीनस्य शोपात्मनः।
सर्वाध व्यवसीदन्ति व्यसन चाधिगच्छति।।”
अर्थात उत्साह हीन, दीन और शोकाकुल मनुष्य के सभी काम बिगड़ जाते हैं, वह घोर विपत्ति में फंस जाता है।
“गुणवान व परजन: स्वजनो निर्गुणोऽपि वा।
निर्गुणः स्वजनः श्रेयान यः परः पर एव सः॥”
अर्थात पराया मनुष्य भले ही गुणवान हो तथा स्वजन सर्वथा गुणहीन ही क्यों न हो, लेकिन गुणी परजन (पराया) से स्वजन (अपना) ही भला होता है। क्योंकि अपना तो अपना है और पराया पराया ही रहता है।
“उपकार फलं मित्रमपकारोऽरिलक्षणम्।”
अर्थात उपकार करना मित्रता का लक्षण है और अपकार करना शत्रुता का।
इस प्रकार आदिकवि महर्षि वाल्मीकि एक लोकजयी व कालजयी कवि थे। उन्होंने अपनी रचनाओं रामायण, योगवसिष्ठ और अक्षर लक्ष्यादि के माध्यम से एक लोक कल्याणकारी, परिवार, समाज, राष्ट्र और व्यक्ति वसुधैव कुटुम्बकम के जीवन्त स्वरूपण का निदर्शन किया है। वाल्मीकि रामायण काव्यसौन्दर्य, सौष्ठव भांपा अलंकार और काव्योपदेश सभी दृष्टियों से एक “न भूतो न भविष्यति” रचना है।
आज भी हजारों-हजार काव्य न केवल भारतवर्ष अपितु समग्र विश्व में राम कथा का आधार लेकर लिखे जा रहे हैं। किसी ने ठीक ही कहा है-
“यावत स्थास्यन्ति गिरयः सरितश्च महीतलो।
तावद रामायणी कथा लोकेषु प्रचरिष्यते इति।।”
ये भी पढ़े : हमारा सांस्कृतिक पर्व – गुरु पूर्णिमा
संदर्भ-
1. हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रन्थावली (2007) पृ.91
2. पट्टनायक देवदत्त – Was Ram born in Ayodhya Mumbai Mircos
3. सहरिया (2009) वन्या पत्रिका आदिम जाति कल्याण विभाग
4. जोशी अनिरुद्ध – महाभारत में रामायण की रामकथा
5. वेबदुनिया. कॉम. सिंह वी.पी. (2001)। गोविन्दचन्द्र पाण्डे – Life
6. Thought and culture of India 16 वाल्मीकीय रामायण – देहाती पुस्तक भंडार दिल्ली
Facebook Comments