– दिलीप बेतकेकर
“You can’t correct the spelling mistake of the child by giving a new pen.”
“स्पेलिंग में की गई गलती को नया पेन देकर सुधारा नहीं जा सकता।”
कथन सत्य होने पर भी नेताओं को नागवार लगता होगा अथवा ‘ककते पण वकत नाहीं’ (मराठी कहावत) (समझते हुए भी कुछ कर न पाना) ऐसा होगा। शिक्षा क्षेत्र की समस्याएं सुलझाने के लिए भी इसी प्रकार ‘स्पेलिंग सुधार के लिये पेन बदलने’ जैसा कार्य प्रायः चलता है। पेन के कचरे का ढेर जमा हुआ है किन्तु मूल समस्या अनसुलझी! शिक्षा क्षेत्र के संदर्भ में बहुत कुछ बोला-कहा जाता है। राष्ट्रपति से लेकर गली-मोहल्ले के आम आदमी तक कोई भी शिक्षा क्षेत्र से संतुष्ट नहीं है। हर कोई यही कहता है कि शिक्षा में परिवर्तन होना चाहिये। कितने ही आयोग समितियाँ बनाई गईं, उनके द्वारा अनेक प्रकार की सूचनाएं, सिफारिशें की गईं किन्तु कोई बड़ा परिवर्तन दिखाई नहीं दिया। बिल्कुल नहीं हुआ ऐसा नहीं कहा जा सकता, किन्तु अपेक्षित परिवर्तन नहीं अथवा उसमें गति का अभाव अवश्य दिखता है। शिक्षा पर करोड़ों रुपयों का खर्च किया जाता है, वह अनेक देशों की अपेक्षा कम होने पर भी, कहां और किस प्रकार किया जाता है, और उससे क्या साध्य हो रहा है यह समझ से परे है।
कोई शिक्षकों और छात्रों को कोट-टाई पहनाकर शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने का प्रयास करता है, तो कोई लैपटॉप, टैब देकर शैक्षिक क्रांति सिद्ध करने का प्रयास करता है। किसी के विचार से बच्चों के ‘मध्याह्न भोजन’ से बच्चे अच्छे शिक्षित होंगे, तो किसी को लगता है कि बच्चों को घर की देहरी से विद्यालय की देहरी तक बालरथ, इंदिरा रथ आदि वाहनों से लाने की व्यवस्था से बच्चों की शैक्षणिक प्रगति तीव्र गति से होगी। ये सुविधाएं जिन बच्चों के लिए आवश्यक हैं, उन्हें अवश्य उपलब्ध करनी चाहिए। पीढ़ी-दर-पीढ़ी समाज के जिस वर्ग का शैक्षणिक स्तर वंचित रहा है उन्हें सुविधाएं अवश्य उपलब्ध हों। किन्तु इस हेतु लोकप्रियता और मतदान का उद्देश्य रहे। दुर्दैव से, वर्तमान योजनाओं में मुख्य रूप से मतपेटी सामने दिखाई देती है, यह खेदजनक है।
कोई भी योजना बनाते और उसे कार्यान्वित करते समय समग्र रूप से, सभी संभावनाओं पर, सभी दृष्टि से अध्ययन करना आवश्यक है। योजना के क्रियान्वयन पश्चात योजना का वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन करना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। पर इतना सब शास्त्रशुद्ध विधिपूर्वक करने के लिये समय किसी के पास है क्या? कुल मिलाकर “आंधलं दलतंय आणि कुत्रां पीठ खातय” (अन्धी पीसे कुत्ते खायें अर्थात् कोई कुछ करता है और परिणाम क्या होता है पता नहीं) ऐसी स्थिति है। ये देखने पर लगता है, – “खाज ढोपराला, पण खाजवतोय् कोपर” (खुजली घुटने पर है किन्तु खुजा रहे हैं कोहनी अर्थात् करना क्या है और कर क्या रहे हैं)।
आज तक शिक्षा आयोगों, विविध शैक्षणिक समितियों तथा शिक्षाविदों आदि ने जो सिफारिशें, पद्धति, कल्पनाएं, योजनाएं प्रस्तुत की हैं उनका प्रत्यक्ष रूप से कार्यान्वयन करने वाला महत्वपूर्ण घटक शिक्षक है। शिक्षक की मानसिकता, दृष्टि, अभिवृत्ति, पद्धति में जब तक बदलाव परिलक्षित नहीं होता तब तक शैक्षणिक परिवर्तन संभव नहीं है। एक विचारवंत डैन्यिल पिनाक के अनुसार – “All it takes is one teacher — just one, to save us from ourselves and make us forget all the others.” वे कितना विश्वास करते हैं शिक्षक पर।
प्रभावी और परिणामकारी शिक्षा के लिये सभी प्रकार की आवश्यक भौतिक सुविधाएं होनी चाहिये। साधन-सामग्री की उपेक्षा अनुचित है। भवन, बैठक व्यवस्था, आधुनिक प्रयोगशाला, संगणक, खेल सामग्री, प्रसाधनगृह, ये सब आवश्यक हैं। इन सबके बावजूद अत्यंत महत्वपूर्ण घटक है शिक्षक। कहते हैं – बंदूक युद्ध नहीं करती, युद्ध करती है बंदूक को पकड़ने वाली कलाई, और देखा जाए तो कलाई भी नहीं वरन् उस कलाई के साथ का ‘मन’। मन ही सही अर्थ में युद्ध करता है। मन यदि बहक जाए तो बंदूक कुछ नहीं कर सकती। मन में यदि दृढ़ता और निर्भीकता न हो तो शस्त्रा निरर्थक सिद्ध होते हैं।
शिक्षा क्षेत्र में भी अत्याधुनिक साधन-सामग्री उपलब्ध है, किन्तु उसका सदुपयोग करने वाला शिक्षक मन तथा हृदय से तैयार न हो तो वह साधन-सामग्री होना-न-होना बराबर ही है! तब उस सामग्री का अपेक्षानुरूप और प्रभावी परिणाम नहीं दिखता है। अनेक विद्यालयों में ऐसी सामग्री और साधन धूल-ग्रस्त अवस्था में पड़े हुए दिखाई देते हैं। इस संदर्भ में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर शिक्षक के महत्व को अधोरेखित करते हुए कहते हैं-
“Real education can be imparted only by the teacher and not by any method”. सच्चे शिक्षक को दिया हुआ यह एक सर्वोत्कृष्ट उपहार ही है।
मिडास और भस्मासुर की कथाएं सर्वविदित ही हैं। मिडास जिस वस्तु को स्पर्श करता है वह सोने की हो जाती है। भस्मासुर जिसको स्पर्श करता है वह भस्म हो जाता है। मिडास से स्पर्शलाभित शिक्षक सामान्य से असामान्य मौलिक चीज़ों को निर्मित करता है। वह साधन-सामग्री के लिये कार्य को रोकता नहीं है। जो उपलब्ध है उसका सदुपयोग कल्पना और कलात्मक रीति से करते हुए आगे बढ़ता है। वह मिट्टी से सोना निर्मित करता है, शून्य से सृष्टि का निर्माण करता है। किन्तु यदि स्पर्श भस्मासुर जैसा होगा तो सोने की मिट्टी बनने में देर नहीं लगती। अनेक विद्यालयों में खेल सामग्री तथा सुसज्जित प्रयोगशालाएं होती हैं। परन्तु शिक्षक के हाथ में भस्मासुर का स्पर्श हो, मिडास का नहीं, तब वह सामग्री अनुपयोगी हो जाती है। इसलिये साधन सामग्री से भी अधिक आवश्यकता है मिडास-स्पर्श युक्त शिक्षक की।

देशभर में ऐसे मिडास-स्पर्शित शिक्षक मिलते भी हैं किन्तु दुर्भाग्य से उनकी संख्या अत्यंत अल्प है। आवश्यकता है ऐसे शिक्षकों को ढूंढने की, उनको प्रोत्साहन देने की, उनकी पीठ थपथपाकर शाबासी देने की, और ऐसे शिक्षकों की संख्या में वृद्धि किस प्रकार हो इसकी चिंता, मनन करने की। यह कार्य प्राथमिकता से करने की आवश्यकता है। यही शिक्षा क्षेत्र की आज की आवश्यकता है –
“No Nation can rise above its education; and no education can rise above the teachers.”
“किसी भी देश का विकास उस देश की शिक्षा पर निर्भर करता है। शिक्षा की गुणवत्ता जैसी होगी उसी अनुपात में देश प्रगति करता है और शिक्षा की गुणवत्ता देश के शिक्षकों की गुणवत्ता पर निर्भर करती है। अच्छे, समर्पित, निष्ठावान शिक्षक होंगे तो शिक्षा का स्तर ऊंचा होगा और देश प्रगत रहेगा –
चौदा विद्या चौसठ कला, अवगत असल्या जरी सकळा,
परित चित्ती नसता एक प्रेमकला, अवध्या त्या विफला।।
कोई शिक्षक अत्यंत बुद्धिमान, चतुर, अनेक विद्याओं और कलाओं में पारंगत हो, किन्तु मन में कार्य के प्रति श्रद्धा, निष्ठा, भक्ति न हो, जिन बच्चों को वह शिक्षित कर रहा हो उनके प्रति प्रेमभाव, ममत्व न हो, तब उसकी विद्या, कला आदि अनुपयोगी ही सिद्ध होगी।
अपने कार्य के प्रति, अपने शिष्यों के प्रति मन में माँ की ममता होगी, तो शिक्षक को असामान्य शक्ति की अनुभूति होगी और तब असाध्य कार्य भी सहजता से साध्य हो जाते हैं। ‘अध्यापन करना मातृधर्म पालन करने वालों का व्यवसाय है’ कहते हुए आचार्य विनोबा जी को मां का हृदय प्राप्त शिक्षक नज़र आता है। ये केवल “राहिलो पगारापुरता” (केवल वेतन लेने हेतु हैं हम) कहने वालों के लिये नहीं है। कितने ही संगणक अथवा अत्याधुनिक रोबो उपलब्ध हों किन्तु वे शिक्षक का स्थान नहीं ले सकते। कारण रोबो अथवा संगणक विद्यार्थी को शाबासी अथवा उन्हें प्रोत्साहित करने का कार्य नहीं कर सकते। विद्यार्थी को प्रोत्साहित करते हुए उनकी पीठ थपथपाने वाला हाथ ही शिक्षक का असली बल स्थान है।
‘हार्डवेयर’ को महत्व देने वाले हमारे अधिकारी, नेतागण को जिस दिन ‘सॉफ्रटवेयर’ का महत्व समझ में आएगा, वह दिन शिक्षा के लिए ‘दीपोत्सव’ जैसा रहेगा। उत्तम शिक्षक ही विद्यालय का वैभव होता है। शेलटन डेविहस, शिक्षाविद् के अनुसार- “The value of every school depends primarily upon the teacher.”
नेलसन बॉसिंग भी शिक्षक को ही महत्वपूर्ण घटक मानते हैं, उनके अनुसार – “In any scheme of education, I give the central place to the teacher.”
जे॰पी॰नाईक भी भौतिक व्यवस्थाओं की अपेक्षा शिक्षक को ही प्राधान्य देते हैं। “Policy and Performance in Indian Education” में वे लिखते हैं- “When it comes to programs of qualitative improvement, money is necessary, but only as a minor investment. What these programs basically need is human effect and intellectual academic inputs of able, hardworiking and committed teachers.” “शिक्षणापुढील आव्हाने” (शिक्षा के समक्ष चुनौती) में केंद्रीय शिक्षा विभाग ने प्रशिक्षण के सम्बन्ध में जो अभिमत व्यक्त किया है वह अत्यंत महत्वपूर्ण है –
“Teacher’s performance is most critical input in the field of education. Whatever policies may be laid down, in the ultimate analysis, these have to be interpreted and implemented by teachers, as much through their personal examples as through teaching-learning process.”
शिक्षक का चयन करते समय और चयन पश्चात सेवा में रहते हुए उनके प्रशिक्षण के लिये अत्यंत सावधानी रखते हुए योजना बनाई जाये। केवल चयन करके और प्रशिक्षण देकर जिम्मेदारी समाप्त नहीं होती। नियुक्ति होने के पश्चात पेशे सम्बन्धी अति सुरक्षा की भावना निर्मित होती है। फिर कुछ नया सीखने अथवा करने की इच्छा नहीं रहती। इस हेतु उपाय करने की आवश्यकता है।
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(लेखक शिक्षाविद, स्वतंत्र लेखक, चिन्तक व विचारक है।)