– रवि कुमार
जुलाई-अगस्त का मास है। वर्षा होने की संभावना है। घर के सदस्यों में चर्चा चल रही है और वर्षा होने लगती है। घर में एक सदस्य के मुख से निकलता है कि आज तो पकौड़े खाने का मन कर रहा है। दिसम्बर-जनवरी मास में उत्तर भारत में प्रायः ठंड अधिक पड़ती है। ऐसे मौसम में जिस दिन सर्दी अधिक पड़ जाए और घर में गर्म-गर्म गाजर का हलवा खाने को मिले तो व्यक्ति आनंदित हो उठता है। वर्ष भर में ऐसे अनेक अवसर व प्रसंग आते है जब मौसम के अनुसार हमें कुछ विशेष खाद्य पदार्थ खाने की इच्छा होती है। ऐसा क्यों होता है, कभी हमने विचार किया है? हम सोच रहे होंगे कि इसमें विचार करने की क्या आवश्यकता है। ये सब सहज बातें है। लेकिन मैं यह कहूंगा कि ये सहज क्यों है? तो इसका उत्तर मिलना कठिन हो जाएगा।
मौसम के अनुसार शरीर की आवश्यकता इच्छा के रूप में व्यक्त होती है। ये क्या है? भारतीय परंपरा में आहार के विषय में हमारे ऋषि-मनीषियों ने अध्ययन-चिंतन-मनन कर अनेक प्रकार की बातें निश्चित की और ये सब बातें सहज रूप में भारतीय समाज ने अपनाई। इस कारण यहां के आम व्यक्ति को आहार विज्ञान के विषय में बहुत गहरा ज्ञान रहा है। ये ज्ञान पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़ता रहा। परंतु आज की पीढ़ी ने आधुनिकता के नाम पर इस ज्ञान को नकार दिया है। जिसके परिणाम स्वरूप स्वास्थ्य संबंधी अनेक बीमारियों से मनुष्य घिर गया है। किस ऋतु में किस प्रकार का आहार विहार अपेक्षित है उसे ऋतुचर्या अनुसार आहार-विहार करते है। इस लेख में हम ऋतुचर्या अनुसार आहार की विशेष रूप से चर्चा करने वाले है।
छह ऋतुएं है – १ ग्रीष्म ऋतु, २ वसन्त, ३ वर्षा, ४ शरद, ५ शिशिर, ६ हेमंत। ऋतु अनुसार क्या क्या खाना उपयुक्त है, ये समझने से पूर्व शरीर विज्ञान के विषय में समझना आवश्यक है। हमारा शरीर पांच महाभूतों से मिलकर बना है। ये पंच महाभूत है – जल, वायु, अग्नि, आकाश व भूमि। भूमि से उत्पन्न जो भोज्य पदार्थ हम खाते है वो भूमि तत्व है। शरीर में सात धातुएँ है – रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और वीर्य। पंच महाभूत एवं सप्त धातु इन 12 की अग्नियां है और एक अग्नि जिसका भोजन पाचन से सीधा संबंध है वो है जठराग्नि। ये तेरह प्रकार की अग्नियां है। अलग अलग ऋतु में ये अग्नियां कम-अधिक एवं विशेष रूप से जठराग्नि कम-अधिक प्रज्ज्वलित होती है।
जीभ के संपर्क में जो भी पदार्थ आता है तो उससे जो अनुभव प्राप्त होता है उसे आयुर्वेद में ‘रस’ कहा गया है। आम भाषा में कुछ भी खाद्य पदार्थ खाने पर जो स्वाद अनुभव होता है वही ‘रस’ है। छह प्रकार के रस है – १ मधुर (मीठा), २ अम्ल (खट्टा), ३ लवण (नमकीन), ४ कटु (चरपरा), ५ तिक्त (कड़वा, नीम जैसा) और ६ कषाय (कसैला)। छह रसों में से अलग-अलग रसयुक्त भोजन पांच महाभूतों से मिलकर सप्त धातु एवं वात-पित्त-कफ को प्रभावित करता है। इसी प्रकार वात-पित्त-कफ का भी कम-अधिक होने का क्रम है। हमारे शास्त्रों में उसी अनुसार ऋतुचर्या भोजन का विधान है।
इसे और सरल भाषा में समझते है। महर्षि वाग्भट्ट ने अपनी पुस्तक अष्टांग हृदयम् में लिखा है – ‘भोजनान्ते विषम् वारी’। अर्थात भोजन के अंत में यदि जल पीया है तो वह विष के समान है। आम प्रचलन में कहा जाता है कि भोजन के मध्य में आवश्यक हो तो कुछ घूंट जल या मट्ठा-छाछ पी सकते है, अंत में जल नहीं पीना चाहिए। ऐसा क्यों कहा जाता है? जब हम भोजन ग्रहण करते है तो हमारे अंदर जठराग्नि प्रज्ज्वलित होती है जो भोजन को पचाने का कार्य करती है। यदि उस अग्नि पर पानी डाल दिया जाए तो वह बुझ जाएगी और खाया हुआ भोजन अपच ही रह जाएगा। आयर्वेद में इस अपच भोजन को अजीर्ण कहा गया है।
छह ऋतुएं एवं ऋतु अनुसार आहार
१ शिशिर ऋतु : माघ-फाल्गुन (जनवरी, फरवरी, मार्च) – इस ऋतु में शरीर में कफ का संचय होता है। जठराग्नि तीव्र होने से पाचन शक्ति बढ़ती है। अतः इस ऋतु में उष्ण जलपान व गरिष्ठ भोजन करना ठीक रहता है। शीतल पेय व खाद्य पदार्थ हानिकारक होते है। आजकल सर्दी में शीतल पेय, आइसक्रीम व ठंडे पदार्थों का खान-पान इस ऋतु में बढ़ गया है जिसके परिणाम हमें दिखते है।
२ वसंत ऋतु : चैत्र-वैशाख (मार्च, अप्रैल, मई) – हेमंत व शिशिर ऋतु में बढ़ा हुआ कफ सूर्य की किरणों से प्रेरित होकर जठराग्नि को मंद कर देता है। आम बात सब जानते है कि इस समय मौसम परिवर्तन के कारण अनेक लोग अस्वस्थ होते है। कफ निकलने के लिए वमन आदि क्रिया उपयोगी है। इस ऋतु में ज्वार, बाजरा, मक्का आदि रुक्ष धानों व मूंग, मसूर, अरहर व चने की दालों का आहार श्रेष्ठ रहता है।
३ ग्रीष्म ऋतु : ज्येष्ठ-आषाढ़ (मई, जून, जुलाई) – इस ऋतु में सूर्य अपनी किरणों द्वारा संसार के स्नेह को सोख लेता है। अतः इस समय में शीतल पेय, द्रव्य, घी-दूध, चावल आदि का सेवन हितकारी है।
४ वर्षा ऋतु : श्रावण-भाद्रपद (जुलाई, अगस्त, सितंबर) – इस ऋतु में भूमि से भाप निकलने एवं आकाश से जल बरसने के कारण वातावरण की स्थिति से जठराग्नि दुर्बल रहती है और धीरे धीरे क्षीण होती जाती है। वर्षा ऋतु में बैक्टीरिया अधिक पनपते है ऐसे में शरीर को तैलीय भोजन की अधिक आवश्यकता होती है। इस ऋतु में आहार के सभी नियमों का पालन करना चाहिए क्योंकि अस्वस्थ होने की संभावना सबसे अधिक इसी ऋतु में होती है। वर्षा ऋतु में पानी को उबाल कर प्रयोग करना अच्छा रहता है। इस ऋतु में अम्ल व लवण युक्त भोजन करना ठीक है।
५ शरद ऋतु : आश्विन-कार्तिक (सितंबर, अक्तूबर, नवम्बर) – वर्षा ऋतु में संचित पित्त इस ऋतु में सूर्य की प्रखर किरणों के कारण प्रकुपित हो जाता है। इसे भी आम भाषा में मौसम परिवर्तन ही कहते है। इस मौसम परिवर्तन में भी अस्वस्थ होने की संभावना अधिक होती है। इस ऋतु में चावल, जौ व गेहूं का उपयोग करना चाहिए। घी का उपयोग किया जाना उचित है।
६ हेमंत ऋतु : मार्गशीर्ष-पौष (नवम्बर, दिसम्बर, जनवरी) – इस ऋतु में जठराग्नि अधिक प्रबल होती है। अतः वात व पित्त का प्रकोप नहीं होता। भोजन सहजता से पचता है। इस ऋतु में अग्नि प्रबल होने पर उसे उचित ईंधन (गुरु आहार) नहीं मिलता तो अग्नि शरीर में उत्पन्न प्रथम धातु (रस) को जला डालती है। अतः गुरु आहार यानि गरिष्ठ भोजन यानि घी, तेल में बना उष्ण भोजन लेना आवश्यक है। सूखे मेवे और उससे बनने वाले पौष्टिक खाद्य पदार्थ लेना उचित है। हरियाणा के ग्रामीण आँचल में इस मौसम में गोंद, मोगर, मेथी आदि के लड्डू बनाने का प्रचलन है।
आयुर्वेद के अनुसार शरद, हेमंत और शिशिर ऋतु ये आदान काल कहलाता है यानि इस समय में शरीर में शक्ति संचय होता है। वसंत, ग्रीष्म और वर्षा ऋतु विसर्ग काल होता है अर्थात आदान काल में जो शक्ति संचित होती है वह विसर्ग काल में खर्च होती जाती है।
ऋतुचर्या | पथ्य आहार (सेवन करें) |
बसंत : चैत्र-बैशाख | पुराने जौ तथा गेहूँ, शहद, मूँग की दाल, दलिया, सब्जियों को उबालकर उसका रस, खांड, खिचड़ी, फलों का रस, आसव, अरिष्ट, मुनक्का, तुलसी, काली मिर्च, मुलेठी, अदरक का जल, विजयसार, चंदन का जल, नीम, बैंगन अथवा कड़वे रस वाले द्रव्य |
ग्रीष्म : ज्येष्ठ-आषाढ़ | मधुर रस, शीत वीर्य वाले, लघु, स्निग्ध, द्रव और अन्न पान, शर्करा सहित शीतल मन्थ (घी, सत्तू, जौ) घी, दूध, चावल, शीतल जल, सुगंधित शीतल पेय पदार्थ, रात्रि में उबला हुआ शर्करा दूध, द्राक्षा, नारियल, नए मिट्टी के बर्तन में पानक |
वर्षा : श्रावण-भाद्रपद | नमकीन व खट्टे पदार्थ, खाने पीने के सभी पदार्थो के साथ यथोचित रूप से शहद, पुराने जौं, गेहूँ, शालि चावल, हरे चने, मसूर दाल, मेथी, काली मिर्च, सौंफ, पिप्पली, सरसों का तैल, तिल तैल, दूध में हल्दी के साथ सौंठ का चूर्ण, गरम करके ठंडे किए हुए जल का प्रयोग, शहद-जल (उष्ण), सप्ताह में एक दिन उपवास |
शरद : आश्विन-कार्तिक | तिक्त (नीम जैसा), मधुर और कषैले द्रव्य, शालि चावल, गेहूँ, जौ, साठी चावल, दूध, दही, खोया, मलाई, शर्करा, राब का सेवन, शाक, परवल, आँवला, मुनक्का, फल, मधु, शर्करा और हंसोदक जल |
हेमंत : मार्गशीर्ष-पौष | भारी खाना जैसे घी, चिकनाई युक्त, दही, मलाई, रबड़ी, गुड़, गन्ने का रस, तिल, उड़द, खजूर, नये चावल का भात, चीनी, मिश्री, मिठाई, शहद, मौसमी फल, बादाम, पिस्ता एवं अखरोट (वसा के लिए) |
शिशिर : माघ-फाल्गुन | भारी भोजन खाएँ, चिकनाई वाला, दही, मलाई, रबड़ी, ऊष्ण जल, गुड़, गन्ने का रस, तिल, उड़द, मीठी चीजें अधिक मात्रा में, नये चावल का बना भात, बादाम, पिस्ता व अखरोट, चीनी, मिश्री व मौसमी फल, इन सभी का हेमन्त ऋतु की अपेक्षा अधिक मात्रा में प्रयोग |
जिस ऋतु में जो सब्जी व फल सहजता से उत्पन्न होता है, उसे उसी ऋतु में सेवन करना चाहिए। इसका संबंध भौगोलिक क्षेत्र अनुसार उत्पन्न होने से भी है। उस सब्जी-फल की प्रकृति उस ऋतु के अनुसार ही बनी है। ऐसा करने में शरीर में खनिज लवण व पोषक तत्वों की पूर्ति सहज ही होती रहती है। आजकल कोल्ड स्टोर की सुविधा के कारण बेमौसमी सब्जी-फल सर्वदूर उपलब्ध हो जाता है। इससे सुविधा तो बढ़ी है परन्तु स्वास्थ्य के लिए यह अहितकर है।
भारतीय समाज में विशेष तीज-त्यौहारों पर भी विशेष व्यंजन बनाने का प्रचलन है। सावन में अनेक अवसरों पर गुलगुले, आटे व गुड़ के पूड़े आदि बनते है। होली पर मावा युक्त गुजिया बनाई जाती है। जन्माष्टमी के आसपास नारियल से बर्फी बनाने का प्रचलन है। सर्दी में सूत के लड्डू बनते है। वर्षा ऋतु में घेवर व फिरनी बनाई जाती है। नव संवत्सर पर मीठे चावल बनाए जाते है। गोवर्धन पूजा पर अन्नकूट बनाया जाता है। इस प्रकार की सूची लंबी है। यह व्यंजनों की परंपरा ऋतुचर्या अनुसार आहार की व्यवस्था से निकली है। इसी प्रकार प्रत्येक मास की एकादशी, अमावस्या व पूर्णिमा से भी अनेक बातें जुड़ी हुई है।
भारतीय परंपरा में सहज रूप से प्रचलित ऋतुचर्या अनुसार आहार का पालन हमें एक स्वस्थ समाज की ओर ले जाता है। आवश्यकता है हमें विरासत में मिली परंपरा को आगे बढाने की और नई पीढ़ी के मन में इस परंपरा को अपनाने हेतु भाव जगरण व जानकारी प्रेषण की।
(लेखक विद्या भारती हरियाणा प्रान्त के संगठन मंत्री है और विद्या भारती प्रचार विभाग की केन्द्रीय टोली के सदस्य है।)
सन्दर्भ –
१ चरक संहिता, सूत्रस्थानम्, तस्याशितीयाध्याय: ६
२ स्वस्थवृत्त विज्ञान, परिशिष्ट १
और पढ़ें : भारतीय परम्परागत रसोई