✍ वासुदेव प्रजापति
हमारे देश में शिक्षा, चिकित्सा तथा धर्म अनादि काल से सेवा के क्षेत्र रहे हैं। सेवा से हमारा तात्पर्य आज की भाँति पैसे लेकर की जाने वाली सेवा नहीं, अपितु निस्वार्थ भाव से लोक हितार्थ किये जाने वाले कार्यों को हमारे यहाँ सेवा माना जाता था। शिक्षा ज्ञानवान बनाने के लिए, चिकित्सा लोगों को निरोगी बनाने के लिए और धार्मिक कार्य जैसे प्याऊ, धर्मशाला और राम रसोड़ा (सदाव्रत) गरीब लोगों की भूख-प्यास और निवास जैसी अनिवार्य आवश्यकताओं को निशुल्क उपलब्ध करवाने के लिए की जाती थी। परन्तु आज ये सब नि:शुल्क नहीं रही, सब बाजार में बिकती हैं और लोग इन्हें पैसे देकर खरीदते हैं। अर्थात् जिन क्षेत्रों को पैसों से श्रेष्ठ माना गया, जो अब तक क्रय-विक्रय के क्षेत्र नहीं थे। उनका भी अब हमारे देश में बाजारीकरण हो चुका है। यह बाजारीकरण क्यों, कब व कैसे हुआ? इसे समझने की आवश्यकता है।
अंग्रेजों द्वारा कानून बनाया गया
अंग्रेजों ने हमारे देश में सन् 1860 में एक नया कानून बनाया, “इंडियन चेरिटेबल सोसायटीज एक्ट”। इस कानून ने हजारों वर्षों से चली आ रही हमारी दान-धर्म की परम्परा के लिए पंजीकरण अनिवार्य कर दिया। अब तक धार्मिक कार्य शासन की मान्यता से मुक्त थे, वे भी बाजार तंत्र में आ गए। जो शिक्षा अब तक जीवन का अंग मानी जाती थी, इस कानून के कारण समिति, संविधान और चुनाव से बाँध दी गई। शिक्षा को सीधा रोजगार से जोड़ दिया गया। शिक्षा जीवन विकास के लिए होती है, इस संकल्पना को भुला दिया गया। शिक्षा से सम्बन्धित हमारी जो प्राचीन मान्यता थी, “शिक्षा ऋषिऋण से मुक्त होने के लिए है, जो पिछली पीढ़ी से पाया उसे अगली पीढ़ी को हस्तान्तरित करने के लिए है।” अब हमारा यह दायित्व समाप्त हो गया। हमारी सभी प्रचीन संकल्पनाएँ स्वतः ही निरस्त हो गईं। आज की मान्यताओं के अनुसार भारत ‘अनपढ़’ है। प्राचीन अनपढ़ भारत ने शताब्दियों तक नदी, वन, पर्वतादि (प्रकृति) का संरक्षण किया और आज के शिक्षित व आधुनिक भारत ने प्रकृति को प्रदूषित किया। क्योंकि प्रकृति से ऋणमुक्त होने के विचार को कालबाह्य और पिछड़ा मान लिया गया है।
शिक्षा नौकरी के लिए कर दी गई
नई व्यवस्था में शिक्षा डिग्री आधारित हो गई। शिक्षा का उद्देश्य ज्ञान प्राप्ति के स्थान पर डिग्री प्राप्त करना हो गया। उस डिग्री के माध्यम से रोजगार पाना अर्थात् नौकरी प्राप्त करना हो गया। जिस विद्या का ध्येय ‘सा विद्या या विमुक्तये’ था, वह अब बदलकर ‘सा विद्या या नियुक्तये’ हो गया। डिग्री देने वाली संस्था के लिए मान्यता लेना अनिवार्य हो गया। मान्यता देने वाले प्राधिकरणों ने उन संस्थाओं के लिए जो मानक निश्चित किए उनमें शैक्षिक गुणवत्ता, शैक्षिक वातावरण, शिक्षा में प्रयोग व नवाचार या शिक्षकों की दक्षता के स्थान पर भूमि-भवन, भौतिक संसाधनों की उपलब्धता जैसे बिन्दुओं को अधिक बल दिया गया। परिणामस्वरूप शिक्षा के संस्थान चलाने वाली संस्थाओं को शैक्षिक गुणवत्ता बढ़ाने के स्थान पर अधिकाधिक भौतिक संसाधन जुटाने की प्रतिस्पर्धा में सम्मिलित होना पड़ा।
पूर्व शिक्षा नीति 1986 ने भी शिक्षा की गुणवत्ता के स्थान पर डिग्री को ही पुष्ट किया और अब तक यह क्रम जारी था। भारतीय विश्वविद्यालयों व तकनीकी संस्थानों में विदेशी प्राधिकरणों से ग्रेड लेने की प्रतिस्पर्धा चल पड़ी है। भारत में तकनीकी शिक्षा के विकास हेतु अमेरिकी सरकार व अनेक अन्तरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थान सहायता तथा ऋण देने को तैयार हैं। आखिर क्यों? इसलिए कि उनके तकनीकी आधारित बड़े उद्योगों के लिए मानव संसाधन की आपूर्ति भारतीय श्रमशक्ति के रूप में उन्हें सरलता से उपलब्ध होती रहे।
कमीशनखोरी का सरकारीकरण
संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम ने एक सर्वेक्षण किया। उस सर्वेक्षण के आँकड़े बतलाते हैं कि भारत में कुल 45 लाख प्रशिक्षित शिक्षकों की आवश्यकता है। किन्तु 22 लाख शिक्षक ही उपलब्ध हैं, अभी 23 लाख शिक्षकों की और आवश्यकता है। इस पर वर्मा आयोग सुझाव देता है कि इस कार्य के लिए एनजीओ का सहयोग लेना चाहिए। सीबीएसई ने इस नये तंत्र के क्रियान्वयन की प्रक्रिया प्रारम्भ कर दी है। यह तो शुद्ध बाजारीकरण की प्रक्रिया है। मजे की बात यह है कि सीबीएसई ने शर्त रखी है कि शिक्षक प्रशिक्षण के तंत्र में सम्मिलित होनेवाले एनजीओ को प्राप्त प्रशिक्षण शुल्क में से 10% राशि सीबीएसई को देनी होगी। यह वास्तव में कमीशनखोरी का सरकारीकरण है। इस प्रकार कमीशनखोरी देश की उस शीर्ष शैक्षिक संस्था द्वारा की जा रही है, जो नि:शुल्क शिक्षा की पक्षधर होने का दावा करती है। यह तो खुलेआम बाजारीकरण का उदाहरण है।
विश्व के 100 सर्वोच्च विश्वविद्यालयों में भारत का एक भी विश्वविद्यालय नहीं है। यह समाचार बुद्धिजीवी वर्ग की चिन्ता का विषय बनता है। शैक्षिक गुणवत्ता से कोई समझौता नहीं हो सकता, परन्तु प्रश्न यह भी उठता है कि सर्वोच्चता की सूची तैयार करने वाली संस्था का मानक और उसकी स्वयं की शैक्षिक समझ क्या व कैसी है? वास्तविकता तो यह है कि प्रत्येक देश की शैक्षिक आवश्यकताएँ उसकी अपनी सामाजिक, राजनैतिक, वित्तीय तथा पर्यावरणीय परिस्थितियों के आधार पर निर्धारित होती हैं। यूनेस्को की प्रख्यात डेलर्स रिपोर्ट भी यही कहती है कि “प्रत्येक राष्ट्र की शिक्षा उसकी संस्कृति की जड़ों को सींचने वाली होनी चाहिए”। फिर शिक्षा के अन्तरराष्ट्रीय मानक एक कैसे हो सकते हैं। सब देशों के लिए समान मापदण्ड कहाँ तक उचित माने जा सकते हैं? कहीं हमारी भी स्थिति वैसी तो नहीं हैं, जिसमें एक मछली का आकलन उसके पेड़ पर चढ़ने की योग्यता के आधार पर करने का प्रयास किया जाता है।
राज्य सरकारें विद्यार्थियों को मध्याह्न भोजन, बस्ते, लेपटॉप या साइकिल आदि बांटकर शिक्षा में बाजारवाद को प्रोत्साहन दे रही है। इसी धन राशि का उपयोग विद्यालयों की व्यवस्थाएं सुधारने, शिक्षकों के रिक्त पदों को भरने, कक्षाकक्ष की मूलभूत सुविधाएं जुटाने में किया जाता तो शिक्षा का कुछ तो उद्धार होता।
शिक्षा में निजीकरण को बढ़ावा
शिक्षा के क्षेत्र में बढ़ता निजीकरण भी बाजारीकरण को बढ़ावा दे रहा है। विशेषकर जब से शिक्षा क्षेत्र में औद्योगिक घरानों ने प्रवेश किया है तब से इसकी गति बढ़ी है। प्रारम्भ तकनीकी संस्थानों से हुआ था। उस समय तो उनका यह प्रयास सराहनीय था। ये अपने उद्योग समूह के लिए ही सही परन्तु गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देकर मेधावी विद्यार्थियों को आगे बढ़ाने में सहायता कर रहे थे। राजस्थान में बिड़ला समूह इसका उदाहरण बना। पिलानी स्थित अभियांत्रिकी महाविद्यालय अनेक वर्षों से इस क्षेत्र में जाने वाले विद्यार्थियों के लिए स्वप्नपूर्ति का केन्द्र बना रहा है। परन्तु कुछ वर्षों से निजी विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों व तकनीकी शिक्षा संस्थानों में यह क्रम स्कूली शिक्षा तक पहुँच गया है। आर्थिक विकास के कारण लोगों की खर्च करने की क्षमता बढ़ी है। अभिभावकों में शिक्षा के प्रति जागरूकता बढ़ी है। अपनी संतानों को बड़े पैकेज वाली नौकरियाँ मिले जिससे उनका बुढ़ापा सुरक्षित हो जाय, ऐसी उनकी मानसिकता बनी हैं। उनकी इस मानसिकता को भुनाने में ये औद्योगिक घराने सफल हो रहे हैं और शिक्षा के नाम पर खूब भुना भी रहे हैं।
आज निजी विद्यालयों में आलीशान भवन, वातानुकूलित कक्षाकक्ष, शीतल जल आदि की व्यवस्था करके शिक्षा से अधिक ध्यान सुख-सुविधाओं पर देकर अच्छे विद्यालय की पहचान बन गए हैं। अब तो स्थिति यहाँ तक पहुँच गई है कि प्राइवेट स्कूल विद्यालय नहीं रहे, मॉल बन गए हैं। वहाँ पुस्तकें बिकती हैं, कपड़े बिकते हैं, जूते बिकते हैं, मोजे बिकते हैं, ट्यूशन के लिए मास्टर बिकते हैं। कुछ विद्यालयों में तो धर्म भी बिकता है और सबसे अन्त में बिकती है, शिक्षा। और ये सारे सामान लागत मूल्य से दस गुना अधिक भाव पर बेचे जाते हैं। मजे की बात तो यह है कि सब कुछ जानते हुए भी सरकारी मास्टर अपने बच्चे को इन मॉल बने प्राइवेट स्कूल में पढ़ाता है। यह विद्यालयों का बाजारीकरण नहीं है तो और क्या है ?
शिक्षा का भयावह दृष्टिकोण
प्रत्येक देश के लिए उसके विद्यार्थी उस देश की सम्पत्ति होती है। ये भावी नागरिक उस देश के कर्णधार माने जाते हैं। इसलिए उनकी शिक्षा पर किया गया खर्च देश का निवेश माना जाता है। इसके विपरीत बड़े-बड़े औद्योगिक घरानों के लिए विद्यार्थी और अभिभावक उनके उपभोक्ता हैं। भावी पीढ़ी का सांस्कृतिक विकास करने के स्थान पर उनका यांत्रिक विकास करने का प्रयास होता है। शिक्षा के प्रति यह एक भयावह दृष्टिकोण है। यह शिक्षा का केवल बाजारीकरण या व्यावसायीकरण ही नहीं है अपितु विध्वंसीकरण भी है।
भारत में शिक्षा कभी भी पाठ्यपुस्तक, पाठ्यक्रम, कालांश-विभाजन या परीक्षा के शिकंजे में जकड़ी हुई नहीं थी। परिवारगत व्यवसायों की शिक्षा स्वाभाविक रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी परिवारों में ही मिल जाती थी। राजस्थान के अनेक मारवाड़ी लोग रोजगार के लिए देशभर में गए। जब गए थे तब खाली हाथ गए थे, एम.बी.ए. की डिग्री तो छोड़ो स्कूली पढ़ाई भी नहीं पढ़े थे परन्तु आज वे सुस्थापित व अग्रणी उद्योगपति हैं। भारत में किसानी और अन्य ग्रामीण व्यवसायों की शिक्षा तो घर के वातावरण में रहते हुए बालक सहज में प्राप्त कर लेता था। इस प्रकार शिक्षा और स्वरोजगार दोनों ही वह सरलता से पा लेता था। परन्तु यूरोप की औद्योगिक क्रांति और सम्पूर्ण विश्व में आई आर्थिक परिवर्तन की लहर से भारत भी अछूता नहीं रह सका। इसका सर्वाधिक विघातक परिणाम यह हुआ कि युगों-युगों से चली आ रही जाति और वर्ण व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई। इसका परिणाम यह हुआ कि श्रम विभाजन और विशेषज्ञता का विकास अवरुद्ध हो गया।
औद्योगिक क्रांति के दुष्परिणाम
औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप विश्वविद्यालयों व विद्यालयों की शिक्षा में विषयों की पुनर्रचना हुई। उद्योग के लिए आवश्यक विषय जैसे – भवन निर्माण, मशीनरी निर्माण, उत्पादन तकनीक फिर हिसाब रखने के लिए एकाउंटेंसी, व्यापार प्रबंधन के विषय आए। इसमें ही व्यापार विकास के लिए मार्केटिंग, बैंकिंग, इन्श्योरेंस, वेयरहाउसिंग आदि प्रबंधन के विषय शिक्षा संस्थानों में पढ़ाने शुरु हो गए। कृषि जो भारत की अर्थव्यवस्था का मूल आधार था, वह भी व्यावसायीकरण की भेंट चढ़कर शिक्षण का एक मात्र विषय बन गया। इसी व्यावसायीकरण के कारण आज शुद्ध विज्ञान कोई नहीं पढ़ना चाहता, सब इंजीनियरिंग और मेडिकल के पीछे भाग रहे हैं। जबकि वास्तविकता यही है कि ये विषय विज्ञान की उन्हीं शाखाओं के व्यवहार मात्र ही तो हैं। नई पीढ़ी में कोई मानविकी के विषय नहीं पढ़ना चाहता, शिक्षा अनुसंधान आदि के क्षेत्र में नहीं जाना चाहता, क्योंकि इन विषयों में पैकेज कम मिलता है। देश व समाज की आवश्यकता को ध्यान में रखकर विषयों का चयन करने के स्थान पर वे विषय लेना जिनमें पैसा अधिक मिलता है। यही शिक्षा का बाजारीकरण है, जिसने शिक्षा के मूल उद्देश्यों को ही भुला दिया है। शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वालों को इस विषय पर गंभीरता से चिन्तन कर कोई उपाय योजना बनानी चाहिए।
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सचिव है।)
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