पुस्तक परिचय : भारतीय शिक्षा ग्रंथमाला, प्रथम ग्रन्थ – भारतीय शिक्षाः संकल्पना एवं स्वरुप

 – वासुदेव प्रजापति

पुस्तक का नाम : भारतीय शिक्षा ग्रंथमाला, प्रथम ग्रन्थभारतीय शिक्षाः संकल्पना एवं स्वरुप

लेखन एवं संपादन : इंदुमति काटदरे, अहमदाबाद

सह संपादक : वंदना फड़के नासिक, सुधा करंजगावकर अहमदाबाद, वासुदेव प्रजापति जोधपुर

प्रकाशक : पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, अहमदाबाद वेबसाइट – www.punarutthan.org

संस्करण : व्यास पूर्णिमा, युगाब्द, 9 जुलाई 2017

 

क्या आपने यह सब पढ़ा है?

  • राष्ट्र की आत्मा ‘चिति’ कहलाती है।
  • भारतीय जीवन दृष्टि आत्मवादी है और पाश्चात्य जीवन दृष्टि अनात्मवादी है।
  • ज्ञान, धर्म, अध्यात्म व संस्कृति का मर्म पढ़ा है?
  • पुरुषार्थ चतुष्टय एवं वर्ण चतुष्टय की शिक्षा क्या होती है?
  • व्यक्ति के समष्टि व सृष्टि के साथ समायोजन की शिक्षा क्या है?
  • ज्ञानार्जन प्रक्रिया एवं ज्ञानार्जन के करण व उपकरण कौन-कौन से है?
  • क्रिया, संवेदन, विचार, विवेक एवं अनुभूति की शिक्षा का तात्पर्य क्या है?
  • भारतीय पंचपदी शिक्षण पद्धति के पांच पद कौन से हैं?
  • कुटुम्ब, शिक्षा का सबसे प्रभावी केन्द्र है क्यों है?
  • लालयेत् पंचवर्षाणि……………………… के बारे में?
  • भारत में सभी विषयों का अधिष्ठान अध्यात्म क्यों है?

यदि आप भी यह सब जानना चाहते हैं तो इस ग्रन्थमाला का प्रथम ग्रन्थ अवश्य पढ़े। आओ! हम प्रथम ग्रन्थ का परिचय प्राप्त करें।

प्रथम ग्रन्थ – भारतीय शिक्षाः संकल्पना एवं स्वरुप

प्रथम ग्रन्थ की विषयवस्तु आठ पर्वों में समायी हुई है। इन पर्वों के नाम 1. उपोद्धात, 2. उद्देश्य निर्धारण, 3. शिक्षा का मनोविज्ञान, 4. शिक्षक, विद्यार्थी एवं अध्ययन, 5. कुटुम्ब शिक्षा एवं लोक शिक्षा, 6. शिक्षा प्रक्रियाओं का सांस्कृतिक स्वरूप, 7. पठन सामग्री, 8. हमारे प्रेरणा स्रोत।

उपोद्धात में राष्ट्र की आत्मा चिति के अनुरूप भारतीय आत्मवादी जीवन दृष्टि व अभारतीय अनात्मवादी जीवन दृष्टि को समझाते हुए शिक्षा के 150 सूत्र दिये हैं। तत्पश्चात् शिक्षा क्षेत्र में बढ़ते हुए अंग्रेजी के प्रभाव से प्रभावित लोगों के लिए भारतीय संकल्पनाओं – ज्ञान, धर्म, राष्ट्र, वैश्विकता, वैज्ञानिकता, अध्यात्म, संस्कृति-सभ्यता, आधुनिकता व शिक्षा का भारतीय अर्थ स्पष्ट किया गया है। संकल्पनाओं को स्पष्ट करने के बाद पुरुषार्थ चतुष्टय धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष, पुरुषार्थ की शिक्षा तथा वर्णचतुष्टय की शिक्षा का समावेश किया गया है।

उद्देश्य निर्धारण के अन्तर्गत् शिक्षा के प्रयोजन बताते हुए व्यक्ति के लिए शिक्षा, व्यक्ति का सृष्टि के साथ समायोजन की शिक्षा, देश के लिए शिक्षा क्यों आवश्यक है, यह प्रतिपादन किया गया है।

शिक्षा मनोविज्ञान में ज्ञानार्जन के करण-उपकरण और ज्ञानार्जन प्रक्रिया बताई गई है। अध्ययन में आने वाले अवरोध एवं उनके उपाय बताने के साथ क्रिया, संवेदना, विचार, विवेक, निर्णय, दायित्व बोध, अनुभूति एवं अनुभूति की शिक्षा को समझाते हुए भारत में दर्शन की संकल्पना बताई गई है। तत्पश्चात् पंचपदी शिक्षण पद्धति को अनेक उदाहरणों से समझाते हुए विषयानुसार कक्ष रचना करना उपयोगी बताया गया है।

शिक्षक, विद्यार्थी एवं अध्ययन के इस चोथे पर्व में एक शिक्षक के गुणों का, विद्यार्थी के लक्षणों का और शिक्षक सम्बन्धों का निरुपण करते हुए ‘मा विद्विषावहै’ अर्थात् गुरु-शिष्य के मध्य द्वेष न हो, यह स्थापित किया है। आगे जाकर पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्वान्त, पाठ्यक्रम में भारतीय विद्याओं को जोड़ना आदि बतलाते हुए ‘गुरुकुल’ संकल्पना’ के अन्तर्गत गुरूकुल व्यवस्था के लाभ बतलाते हुए उसकी पुनर्स्थापना का मार्ग सुझाया है।

कुटुम्ब शिक्षा एवं लोक शिक्षा पर्व के अन्तर्गत कुटुम्ब को शिक्षा का सबसे प्रभावी केन्द्र बताया गया है। कुटुम्ब में आजीवन शिक्षा तथा एक पीढ़ी की शिक्षा का समावेश किया है। फिर भारतीय कुटुम्ब व्यवस्था के मूल तत्त्वों को बतलाते हुए यह ध्यान दिलाया गया है कि इस कुटुम्ब व्यवस्था ने ही भारतीय समाज को चिरंजीविता प्रदान की है। कुटुम्ब में पीढ़ी निर्माण के तीनों चरणों 1. लालयेत पंचवर्षाणि 2. दशवर्षाणिताडयेत तथा 3. पुत्र मित्र समाचेरत को व्याख्यायित किया गया है। सोलह वर्ष के आगे की शिक्षा का स्वरूप बतलाते हुए कुटुम्ब शिक्षा के कुछ मौलिक विचार सूत्र बता कर अवरोध और उन्हें दूर करने के उपाय बताये हैं।

लोक शिक्षा के अन्तर्गत लोक में शिक्षा, लोक शिक्षा के माध्यम, उद्देश्य और परिणाम, कुटुम्ब और लोक शिक्षा का स्वरूप बतलाते हुए अन्त में वृद्धावस्था के अनुभवों को साँझा किया है।

शिक्षा प्रक्रियाओं का सांस्कृतिक स्वरूप में विषयों का अंगामी सम्बन्ध, सभी विषयों का अधिष्ठान आध्यात्म, विभिन्न विषयों का सांस्कृतिक स्वरूप बतलाते हुए धर्म शिक्षा, कर्मशिक्षा व शास्त्र शिक्षा का निरूपण कर शिक्षित व पढ़त मूर्ख के लक्षण बतलाये गये हैं। साथ में बालक व बालिका की शिक्षा का अलग-अलग विचार किया गया है। तत्पश्चात् व्यक्तित्व निर्धारण के आधारों को परिभाषित करते हुए शिक्षा में स्वायत्तता के भारतीय पक्ष को प्रतिपादित किया है।

पठन सामग्री के अन्तर्गत संकल्प, वृक्ष का उगना, काल गणना, मन के जीते जीत, बुद्धि देती ज्ञान, भगवद्गीता प्रश्नोत्तर तालिका जैसे कुल 15 आलेख दिये हैं।

हमारे प्रेरणास्त्रोत में योगीश्वर याज्ञवल्क्य, भगवान वेद व्यास, आचार्य चाणक्य तथा जगदगुरु आद्यशंकराचार्य का प्ररेक जीवन बतलाते हुए यह भी स्पष्ट किया है कि ये हमारे प्रेरणा स्रोत क्यों हैं।

फलश्रुति अंत में समापन एवं परिशिष्ट के साथ यह प्रथम ग्रन्थ भारतीय शिक्षा संकल्पना एवं स्वरूप पूर्ण होता है। इसका आद्योपांत स्वाध्याय करने वालों की बुद्धि भारतीयता की समझ वाली बन जाएगी, यह निश्चत है।

(लेखक शिक्षाविद् है, इस ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सह सचिव है।)

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