– डॉ. विकास दवे
बाल साहित्य के संसार में रमते हुए 25 वर्ष बीत गए। जितना इसे पढ़ता हूँ, बुनता हूँ, गुनता हूँ, इसके वैशिष्ट्य का हर बार कोई नया आयाम सामने आ खड़ा होता है। बाल साहित्य को हम संस्कार का वाहक भी मानते हैं और संस्कार का प्रेरक भी। इस अर्थ में इस साहित्य का प्रसारक माध्यम बाल पत्रकारिता हुई। बड़ों की पत्रकारिता के अनेक उद्देश्यों में सूचना पहुंचाना, शिक्षित करना दो महत्वपूर्ण उद्देश्य माने गए हैं। बाल पत्रकारिता भी इन दो पहियों पर संतुलन बैठाकर चलती है किन्तु मध्य के एक बड़े काल में इसके कई ‘बाय प्रोडक्ट’ ‘मेन प्रोडक्ट’ बनकर उभरे हैं। अनुरंजन यानी मनोरंजन भी ऐसा ही एक ‘बाय प्रोडक्ट’ था पर अनेक रचनायें केवल घटिया मनोरंजन के अतिरिक्त कुछ भी देती नहीं दिखाई देती तो मन को कष्ट होता है।
हम जब बात करते हैं आचार संहिता की तो उसका महत्व बड़ों की पत्रकारिता की तुलना में कहीं बहुत बढ़ जाता है। बाल पत्रकारिता में आप पत्रकार के साथ एक शिक्षक भी होते हैं। आपके द्वारा शुद्धि पठन (Proof Reading) में हुई एक त्रुटि बाल मन पर पत्थर की लकीर हो सकती है। एक बड़े शिक्षाविद् लखनऊ विश्वविद्यालय के कुलपति बने किन्तु वे अपने इष्ट मित्रों के टोकने के बाद भी लखनऊ को नखलऊ बोलते रहे । कारण केवल इतना सा था कि बचपन में उनके शिक्षक का उच्चारण वैसा था। यदि हम बाल पत्र-पत्रिकाओं में छोटी-छोटी त्रुटियों को अनदेखा करते हैं तो उसके दुष्प्रभाव हमें बालक के पूरे जीवनकाल में दिखाई देते हैं।
बालक को मनोरंजन तो दें पर संस्कार की बली चढ़ाकर नहीं। कहानी, कविता और नाटक तो छोड़िए चुटकुलों के माध्यम से भी भूलवश भी कोई शराबी, कोई व्यसनी, कोई पथभ्रष्ट बाल मन में प्रवेश न करने पाए। कई बार बाल पत्रकारिता के नीति सिद्धांतों की स्थापना करने वाले विद्वत्जन कुछ अच्छी बातों को निषिद्ध करने का आग्रह कर बैठते हैं। जैसे हिंसा और क्रोध को कई बार हम एक बड़ा अवगुण मानकर उसे उसी तरह प्रतिबंधित करते हैं जैसे रंगमंच पर अग्नि का प्रवेश निषेध होता है। जबकि हमें ज्ञात होना चाहिए कि केवल हिंसा से परहेज किया तो बाल साहित्य से राम द्वारा रावण का, कृष्ण द्वारा कंस का और शिवाजी द्वारा अफजल खान का वध भी बाहर हो जावेंगे। हमें क्रोध से तो परहेज करना है पर यह भी ध्यान रखना है कि क्रोध को ‘मन्यु’ कहा जाता है। कहीं हम अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए प्रकटे अभिमन्यु से परहेज न करने लगें यह भी चिन्ता करनी होगी।
बाल पत्रकारिता नवीनता और आधुनिकता के नाम पर इण्टरनेट की सूचनाओं के बवण्डर को सुसज्जित प्लेट में परोसकर ज्ञान बनाकर परोस रही है। बच्चा इस भूसे के ढेर में दब गया है उसे वर्ल्ड रिकार्ड तो सब याद हैं पर ये पता नहीं कि चोट पर हल्दी लगाई जाती है। विज्ञान अब बाल पत्रकारिता का नया-नया ‘चस्का’ बन गया है। बाल साहित्यकार विज्ञान की बातें तो कर रहे हैं पर कल्पना की अधिकता और ऐतिहासिक भ्रांतियों को जस का तस रखे हुए हैं। आज भी चकोर चाँद को ताक रहा है, चातक केवल स्वाति नक्षत्र की बूंद सीधे बादलों से पी रहा है और सांप चंदन के पेड़ों से लिपट रहा है। इनमें से विज्ञान एक भी बात को सत्य नहीं मानता पर हम इन्हें साहित्य के नाम पर परोस रहे हैं।
बाल पत्रकारिता में विविध सामग्रियों यथा चित्रकथाओं, पहेलियों और चित्रात्मक पजल्स में अब बहुत प्रयोग हो रहे हैं। किन्तु क्या इन पजल्स को भी हम सार्थक रूप दे सकते है? कुत्ते को हड्डियों तक पहुंचाना, चोर को तिजोरी तक का रास्ता बताएं क्या यही आवश्यक है? क्या इन्ही पजल्स में गोला बारूद को सैनिक तक, भोजन को भूखे तक नहीं पहुंचाया जा सकता?
समय के साथ बड़ों की पत्रकारिता की तरह बाल पत्रकारिता नए प्रयोग क्यों नहीं कर सकती? क्या नवीन भाव बोध लिए कविता, कहानियां या नाटक नहीं रचे जा सकते? बाल पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रयोगों की अपार संभावनाएं हैं। आवश्यकता प्रयोगधर्मियों की है। कब तक हम प्यासे कौए से मटके में कंकर डलवाते रहेंगे, अब कौआ कोल्ड्रींक्स की स्ट्रा लाकर पानी पी सकता है। नए युग के बच्चे शायद इन प्रयोगों का अधिक आनंद लेंगे।
बाल पत्रकारिता के क्षेत्र में अंग्रेजी बाल पत्रकारिता तो पश्चिम से इतना वैचारिक खाद-पानी लेती है कि वहां इतनी भी चिंता नहीं की जाती कि समकालीन बच्चे इस कारण परिवेश से ही कट रहे हैं। अमेरिका और लन्दन में बैठे बच्चे बर्फबारी से परेशान हैं इसलिए वो वर्षों से ‘रेन-रेन गो अवे’ गा रहे हैं। भारत के बच्चों को भी वही क्यों गाना चाहिए? यहाँ का बच्चा बेशक कान्वेन्ट शिक्षा प्राप्त करे, अंग्रेजी पत्रिकाएं पढ़े पर उसे वहां भी हिन्दी की तर्ज पर ‘पानी बाबा आना, ककड़ी भुट्टे लाना’ क्यों नहीं पढ़ाया जाना चाहिए?
हिन्दी बाल पत्रकारिता की आचार संहिता की बात करते समय एक और बिन्दु का ध्यान हमें रखना होगा। हिन्दी साहित्य में विधाओं का आधिक्य है। बड़ों की पत्रकारिता में यह विधा वैविध्य सुस्वादु भोजन की थाली का आभास देता है किन्तु बाल पत्रकारिता की थाली बड़ी सुनी-सुनी सी दिखाई देती है। अनेक शोधार्थियों के साथ शोधकार्य में संलग्न होने के कारण ध्यान में आया है कि बाल पत्रकारिता में केवल कविता, कहानी और नाटकों से ही काम चलाया जा रहा है । ज्यादा से ज्यादा निबन्ध यानी आलेख और उसमें सम्मिलित हो जाता है। क्या बच्चों की थाली भी भरी-भरी रहे इस दिशा में बाल साहित्यकार योजनापूर्वक काम नहीं कर सकते? रिपोतार्ज, यात्रा वृत्तांत, रेखाचित्र और ललित निबंध जैसी विधाएं बच्चों को क्यों नहीं परोसी जा सकती?
बात आचार संहिता की करें और कलेवर यानी प्रस्तुति की बात न हो ऐसा हो ही नहीं सकता। बाल पत्रकारिता में हमें पहला ध्यान रखना होगा अक्षरों का आकार (font size) थोड़ा बड़ा हो। अखबारों की तरह 10 और 12 पॉइंट की जगह कम से कम 14 या 15 पॉइंट में सामग्री रखी जाए। प्रिंटिंग और कागज की गुणवत्ता भी बाल पाठक के लिए बड़े मायने रखती है। अब कुछ बाल पत्रिकायें इस दृष्टि से बहुत अच्छी हो गई हैं।
चित्रांकन में कंजूसी बाल पत्रकारिता के लिए घातक है। थोड़ी सी लागत बढ़ने के डर से हम पृष्ठ के पृष्ठ सुने-सुने और ठसाठस टेक्स्ट से भर देंगे तो रोचकता कैसे बनी रहेगी? स्थान भरने और अधिक से अधिक रचनाकारों की बाल रचनायें स्वाभाविक रूप से अधिक गुणवत्ता वाली होती हैं। केवल इसी कारण बच्चों की रचनाओं को हाशिए पर डाल देना मूल पाठक के साथ अन्याय है। उनकी रचनाधर्मिता को प्रोत्साहन देना बाल पत्रकारिता का प्रथम कर्तव्य है। बच्चों को यदि कार्टून, चित्रकथा आदि अधिक पसन्द हैं तो इस माध्यम का अधिक उपयोग किया जाना चाहिए।
हिन्दी बाल पत्रकारिता अनुवाद की ओर बहुत कम जाती है। वैश्विक परिदृष्य में बाल साहित्य में अत्यधिक प्रयोग हो रहे हैं। अनुवाद के माध्यम से हम इन्हें सहज हिन्दी क्षेत्र के बाल पाठकों तक पहुंचा सकते हैं।
अंत में फिर से बाल पत्रकारिता के आचार संहिता की बात करते हुए उसके भाषा सौष्ठव की चर्चा करना चाहूंगा। सम्पादित करते समय अनिवार्यतः हम रचनाओं में निम्न बातों को सुनिश्चित करें:
रचना की भाषा सरल हो, वाक्य छोटे- छोटे हों, कठिन शब्दों से परहेज किया गया हो। इन विशेषताओं के कारण सामग्री बाल पाठकों के लिए सहज ग्राह्य और सरल, तरल बन जाएगी। बाल पत्रकारिता देश को संवेदनशील नागरिक दे सके इसलिए रचनाओं के विषय आज के समाज की समस्याओं, विद्रुपताओं को समाधन देने वाले हों। जीवन मूल्यों की ओर आकर्षित करता और सकारात्मक चिंतन की प्रेरणा देने वाला उपक्रम बने हमारी बाल पत्रकारिता।
Do’s and Dont’s की ये चिन्ताएं ही आकार देती हैं बाल पत्रकारिता की आचार संहिता को। आइए पालन करें इस अघोषित संविधान का ताकि राष्ट्र का भविष्य उज्ज्वल हो सके।
(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ सर्वाधिक प्रसारित बाल मासिक पत्रिका के संपादक है।)
और पढ़ें : नई पौध की घटती स्वाध्याय वृत्ति