गीता में वर्णित निष्काम कर्मयोग के बारे में क्या जानते है आप? – गीता जयंती विशेष

 – रवि कुमार

सामान्यतः घरों में जाने पर गीता के विषय में गीता का कैलेंडर दीवारों पर लगा मिलता है और उस पर साधारण बात लिखी मिलती है, ‘कर्म करो फल की चिंता मत करो’। सामान्य बातचीत में भी यह विषय बार बार आता है। यह गीता के एक श्लोक का संक्षिप्त भाग है।

एक बात और ध्यान आती है। एक पत्रिका में एक महिला पत्रकार के नाम पर एक लेख प्रकाशित हुआ जिसका शीर्षक था ‘We are Hindu’. शीर्षक से ध्यान आ सकता है कि महिला पत्रकार भारतीय मूल की रही होगी। परन्तु ऐसा नहीं था। वह अमेरिकी मूल की थी। फिर We are Hindu क्यों लिखा – यह लेख पढ़ने पर ध्यान में आया। वह लिखती है कि हम अमेरिका के वासी हैं। अमेरिका की भूमि भोग भूमि है। भारत भूमि जहाँ गीता में कर्म करने के लिए कहा है और वहां के लोग कार्य करने में विश्वास करते है। अब कुछ अमेरिकावासी भी गीता के कर्मयोग को आत्मसात कर कर्म करने में विश्वास करने लगे है। इसलिए वे लिखती है We are Hindu ।

एक पंक्ति में तो सरलता से समझ आता है और उस भाव को आम समाज ने समझा भी है। फिर आज के भौतिकवादी युग में कर्म भी करना और फल की चिंता भी नहीं करनी यह कैसे संभव है। बिना फल की चिंता किए कर्म में रूचि कैसे होगी तथा बिना रूचि के कर्म पूर्णता की ओर कैसे जाएगा ऐसी अनेक प्रकार की उलझन है। कर्मयोग को ठीक प्रकार से समझने की आवश्यकता है।

भगवद्गीता में बार बार इस बात का उपदेश मिलता है कि हमें निरंतर कर्म करते रहना चाहिए। कर्म के परिणाम को देखकर कई बार मनुष्य कर्म करना बंद करता है। परिणाम अच्छा आता है तो गति तेज हो जाती है और गलत अथवा कम आता है या तो गति कम हो जाती है या बिल्कुल रुक जाती है। परिणाम अच्छा या गलत मेहनत अनुसार आता है परन्तु गति कम करने या रोकने से तो जीवन भी रुक जाएगा। अतः कर्म की निरंतरता आवश्यक है।

गीता में कर्मयोग का वर्णन है। व्यक्ति एकाग्रता से कर्म करे तो परिणाम अच्छा आने का प्रतिशत स्वाभाविक ही बढ़ेगा और आनंद भी होगा। विद्यार्थी अपनी शिक्षा एकाग्रता से ग्रहण करेगा तो अंक अच्छे आएँगे ही। उस शिक्षा का उसके जीवन पर भी प्रभाव पड़ेगा। फिर चाहे विद्यार्थी हो, व्यवसायी हो, किसान या कर्मचारी हो सब प्रकार के कर्म में एकाग्रता तो चाहिए ही।

कर्म में आसक्ति यानि मोह होना स्वाभाविक है। परन्तु गीता में वर्णन है कर्म करो पर उससे आसक्त मत हो। कई बार व्यक्ति सामाजिक संस्था में कार्य करते हुए अच्छा समय लगाता है। अब सामाजिक संस्था है उसके सदस्य-पदाधिकारी बदलते रहते है। जब इस व्यक्ति के बदलने की बारी आती है तो वह बदलना नहीं चाहता। वह न बदले तो कई प्रकार से प्रयास करता है और इस प्रयास में इस मूल भाव को भूल जाता है कि वह किस सेवा भाव के साथ संस्था से जुड़ा था। वह इस संस्था में अपने द्वारा किए गए कार्य एवं पद के प्रति आसक्त है। सामाजिक जीवन में परिस्थितियां बदलती रहती है। अपना कार्य समयानुसार करते हुए कर्म करना है।

गीता में वर्णन है – ‘समत्वं योग उच्यते’। व्यक्ति जब कर्म करता है तो उसके मन में भाव आता है कि कार्य पूर्ण होना ही चाहिए और यदि पूर्ण नहीं हुआ तो निराशा का भाव आता है और पूर्ण हुआ तो प्रसन्नता। लेकिन गीता के अनुसार कर्म करते हुए समभाव चाहिए। कार्य पूर्ण हुआ या अपूर्ण, परिणाम ठीक हुआ या गलत, व्यक्ति के मन में समान भाव हो।

निष्काम कर्म की भी चर्चा आती है। निष्काम – कामना रहित कर्म करने की सर्वोच्च अवस्था इसे कह सकते है। व्यक्ति कर्म कर रहा है। कर्म करते हुए उसके अनेक प्रकार के स्तर हैं उन्हें पार करते हुए एक अवस्था ऐसी होती है जब वह कर्म को कर्तव्यरूप समझकर कर रहा है। अधिकार व फल की कामना नहीं है। तीन प्रकार के कर्ता का वर्णन आता है। एक बिना सोचे समझे कर्म कर रहा है। दूसरा कर्म करते हुए चरम अवस्था तक आ गया है और विरक्त हो जाता है तथा तीसरा चरम अवस्था आने पर भी कर्तव्यरूप समझकर कर रहा है। यह तीसरा प्रकार कर्मयोग है।

वर्तमान जनजीवन में व्यक्ति के कर्म करने का उद्देश्य अपनी लाभ पूर्ति है। इसे भौतिक लाभ पूर्ति कह सकते है। जबकि गीता में कर्म करने का उद्देश्य लोक कल्याण है। एक विद्यार्थी अपना लक्ष्य रखता है कि डॉक्टर बनूंगा। डॉक्टर बन गया अब क्या करूँगा यह वह सोचता है। लोक कल्याण की भावना यदि मन में है तो वह सोचेगा कि दीन-दरिद्र रोगी व्यक्ति की सेवा करनी है तो इसलिए मुझे डॉक्टर बनना है। कर्म में लोक कल्याण के भाव का समावेश अति आवश्यक है।

लोकमान्य बालगंगाधर तिलक जी ने गीता रहस्य में कहा है, “धर्म और व्यावारिक जीवन अलग नहीं है। संन्यास लेना जीवन का परित्याग करना नहीं है। असली भावना सिर्फ अपने लिए कर्म करने की बजाय देश को अपना बना, मिलजुल कर कर्म करना है। इसके बाद का कदम मानवता की सेवा करना है और यह कदम ईश्वर सेवा है।”

स्वामी विवेकानंद जी ने कहा है, “दुःख का एकमेव कारण यह हैं कि हम आसक्त हैं, हम वृद्ध हो जा रहे हैं। इसलिए गीता में कहा है – निरंतर काम करते रहो, पर आसक्त मत हो, बन्धनों में मत पड़ो। प्रत्येक वस्तु से अपने आपको स्वतंत्र बना लेने की शक्ति स्वयं में संचित रखो। वह वस्तु तुम्हें बहुत प्यारी क्यों नहीं लगती हो, तुम्हारा प्राण उसके लिए चाहे जितना ही लालायित क्यों न हो, उसके त्यागने में तुम्हें चाहे जितना कष्ट क्यों न उठाना पड़े, फिर भी अपनी इच्छानुसार उसका त्याग करने की अपनी शक्ति मत खो बैठो।”

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