– वासुदेव प्रजापति
अब तक हमने मनोवैज्ञानिक सन्दर्भ में तथा सामाजिक व सांस्कृतिक सन्दर्भ में आने वाले संस्कारों के बारे में जानकारी प्राप्त की। आज हम पारम्परिक सन्दर्भ में जो संस्कार आते हैं, उनके बारे में जानेंगे। किन्तु उससे पूर्व संस्कारों से सम्बन्धित इस कथा का रसास्वादन करेंगे।
माता-पिता की सेवा से सिद्धि
संस्कारों के द्वारा मनुष्य अपने जीवन में निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति करता है। इन संस्कारों में माता-पिता की सेवा का संस्कार तो ऐसा विलक्षण संस्कार है, जिसके बल पर मनुष्य को समस्त सिद्धियाँ अन्यास ही मिल जाती है। इसी आशय की एक कथा महाभारत में वर्णित है। यह कथा एक वेदज्ञ धर्मशील ब्राह्मण की है जो कठोर तपस्या करके भी वे सिद्धियाँ प्राप्त नहीं कर सका, जिन्हें पशुओं का मास बेचने वाले एक व्याध ने केवल माता-पिता की सेवा करके ही प्राप्त कर ली।
कौशिक नामक यह तपस्वी ब्राह्मण, एक दिन वटवृक्ष के नीचे ध्यानमग्न था। उसी समय एक बगुली ने उस पर बींट कर दी। उस ध्यानमग्न ब्राह्मण ने क्रुद्ध दृष्टि से बगुली को देखा तो वह बगुली जलकर भस्म हो गई। इस घटना से व्यथित हुआ ब्राह्मण कौशिक पश्चाताप करता हुआ भिक्षाटन के लिए समीप के गाँव में गया।
गाँव में एक घर के सामने जाकर उसने- भवति भिक्षां देहि! आवाज लगाई। घर के भीतर से एक स्त्री ने उत्तर दिया- तनिक ठहरो, आती हूँ। क्योंकि उस समय वह अपने पति की सेवा में लगी हुई थीं। पति सेवा में कुछ समय लग गया, सेवा पूर्णकर वह भिक्षा लेकर आई और ब्राह्मण से देरी हो जाने के लिए क्षमा माँगने लगीं। किन्तु उस ब्राह्मण को क्रोध में भरा हुआ देखकर वह पतिव्रता बोली- हे तपस्वी ब्राह्मण! मैं वह बगुली नहीं हूँ, जो तुम्हारी क्रोध भरी दृष्टि से जल जाऊॅंगी। यदि तुम धर्म का तात्विक ज्ञान पाना चाहते हो तो मिथिला में रहने वाले व्याध के पास जाओ।
उस पतिव्रता की बात सुनकर वह आश्चर्यचकित हो गया। गाँव की एक महिला को यह कैसे पता चला कि मेरे देखने मात्र से बगुली जल गई थी! और यह मुझे एक व्याध से तत्त्वज्ञान सीखने के लिए मिथिला जाने को कह रही है। कौतूहलवश वह ब्राह्मण मिथिला चला गया और पूछता-पूछता उसके कसाई खाने में पहुँच गया। एक वेदज्ञ ब्राह्मण को आया देख, उस व्याध ने आगे बढ़कर उसे अभिवादन किया और बोला- भगवन! आपका स्वागत है। उस पतिव्रता स्त्री ने आपको भेजा है और आप जिस उद्देश्य से यहाँ आए हैं, वह सब मैं जानता हूँ। यह कसाईखाना आपके ठहरने योग्य स्थान नहीं है। यदि आप मुझसे कुछ जानना चाहते हैं तो मेरे घर चलें, वहीं बैठकर बात करेंगे।
व्याध की बात सुनकर उसे बहुत विस्मय हुआ, यह व्याध सब-कुछ कैसे जान गया? यह सोचता-सोचता वह उसके घर आ गया। घर पर व्याध ने उसका विधिवत स्वागत-सत्कार किया और उसे धर्म की सूक्ष्मता तथा परमात्मा को प्राप्त करने के उपाय आदि विभिन्न विषयों का उपदेश दिया। तत्पश्चात वह ब्राह्मण को घर के भीतर ले गया और अपने माता-पिता को दिखाकर उनके चरणों में प्रणाम किया। प्रणाम करने के उपरान्त वह कहने लगा- हे वेदज्ञ ब्राह्मण! ये माता-पिता ही मेरे प्रत्यक्ष धर्म और परम देवता हैं। इन्हीं की सेवा के प्रभाव से मुझे यह सिद्धि मिली है। जैसे समस्त संसार के लिए इन्द्रादि देवता पूजनीय हैं, वैसे ही मेरे माता-पिता मेरे लिए आराधनीय हैं।
मैं नाना प्रकार के उपहार, फल-फूल व रत्नादि से इन्हें संतुष्ट करता हूँ। मेरे लिए चारों वेद, अग्नि और यज्ञादि मेरे ये माता-पिता ही हैं। मेरे प्राण, मेरे स्त्री-पुत्र एवं सुहृद सब इनकी सेवा के लिए ही हैं। मैं अपने स्त्री-पुत्रों के साथ प्रतिदिन इनकी सेवा करता हूँ। इस प्रकार माता-पिता के सेवा रूप धर्म को ही महान मानकर मैं सदा उसका पालन करता हूँ। उन्नति चाहने वाले पुरुष के पाँच ही गुरु हैं- माता, पिता, अग्नि, परमात्मा और गुरु। जो इन सबके प्रति उत्तम आचरण करेगा, उस गृहस्थ के द्वारा सब अग्नियों की सेवा सम्पन्न होती रहेगी। यही सनातन धर्म है।
हे तपस्वी ब्राह्मण! माता-पिता की सेवा ही मेरी तपस्या है। इसी तपस्या के प्रभाव से मुझे दिव्य दृष्टि प्राप्त हुई है। आपने अपने माता-पिता की उपेक्षा की है। आप उनसे आज्ञा लिए बिना ही वेदाध्ययन के लिए घर से निकल पड़े, परिणाम स्वरूप आपके वियोग में शोक करते रहने से वे वृद्ध दम्पति अन्धे हो गए हैं। धर्म में लगे रहने के उपरान्त भी माता-पिता को संतुष्ट न करने के कारण आपका यह सारा धर्म और व्रत व्यर्थ हो गया है। अतः आप घर जाकर उनकी सेवा करें, जिससे वे प्रसन्न हों। मैं इससे बढ़कर और कोई धर्म नहीं देखता।
व्याध की अनुभूत बातें सुनकर कौशिक ब्राह्मण घर जाकर माता-पिता की सेवा में लग गए और उनके आशीर्वाद से अपने उद्देश्य में सफल हुए। हमारे श्रुति वचनों में कहा है- मातृदेवो भव, पितृदेवो भव (माता-पिता देवता हैं)। इन वचनों को हृदयंगम करके जो अपने माता-पिता की सेवा करता है, वह एकमात्र सेवा के संस्कार के बल पर वह अपने जीवन का सर्वोच्च तत्त्व- नि:श्रेयस को प्राप्त कर सकता है।
संस्कारों का महत्त्व
भारतीय परम्परा में सोलह संस्कारों का महत्त्व सर्वविदित है। प्राकृत व्यक्ति को संस्कारित करने में इन सोलह संस्कारों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। हमारे धर्मग्रंथों में संस्कारों की आवश्यकता बतलाई गई है। जैसे खदान से सोना व हीरा निकलने पर उसमें चमक-दमक नहीं होती। उसे तपाना, तराशना, उसका मैल हटाना तथा चिकना करना आवश्यक होता है, उसी प्रकार मनुष्य में मानवीय शक्ति का आधान होने के लिए उसे सुसंस्कृत होना आवश्यक है। अर्थात् उसका पूर्णतः विधि पूर्वक संस्कार सम्पन्न करना चाहिए। संस्कारों से अन्त:करण शुद्ध होता है। संस्कार मनुष्य को पाप और अज्ञान से दूर रखकर आचार-विचार और ज्ञान-विज्ञान में निपुण बनाते हैं।
पारम्परिक सोलह संस्कार
व्यक्ति जीवन को निखारने वाले इन संस्कारों की संख्या में प्रारम्भ से ही मतभेद है। गौतम स्मृति में इनकी संख्या 48 बतलाई गई है। महर्षि अंगिरा संस्कारों की संख्या 25 बतलाते हैं, जबकि महर्षि व्यास इनकी संख्या 16 बतलाते हैं। आज के समय में व्यास प्रतिपादित 16 संस्कार ही सर्वमान्य हैं। इन सोलह संस्कारों के नाम अधोलिखित हैं –
गर्भाधान, पुंसवन, सीमंतोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकरण, कर्णवेध, उपनयन, वेदारम्भ, समावर्तन, विवाह, वानप्रस्थ, संन्यास, अन्त्येष्टि संस्कार।
इन सोलह संस्कारों में से प्रारम्भिक तीन संस्कार- गर्भाधान, पुंसवन और सीमंतोन्नयन शिशु के जन्म से पहले के संस्कार हैं। बाद के छः संस्कार- जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकरण व कर्णवेध ये पाँच वर्ष की आयु से पहले-पहले हो जाते हैं। ये तीन संस्कार- उपनयन, वेदारम्भ व समावर्तन उसके विद्यार्थी काल के संस्कार हैं। तेरहवां संस्कार है- विवाह, यह गृहस्थाश्रम में प्रवेश का संस्कार है। दो संस्कार- वानप्रस्थ और संन्यास उसके भावी जीवन की पूर्व तैयारी के लिए हैं, और इस जीवन का अंतिम संस्कार अन्त्येष्टि उसकी मृत्यु के बाद का संस्कार है। ये सोलह संस्कार जन्म पूर्व से लेकर मृत्यु पर्यन्त चलते हैं। अर्थात् ये सोलह संस्कार व्यक्ति के सम्पूर्ण जीवन को श्रेष्ठ बनाने के लिए हमारे पूर्वजों ने हमें उपहार स्वरूप दे रखे हैं। अतः हमें अपने पूर्वजों का उपकार मानना चाहिए।
संस्कार निर्माण के मूलतत्त्व
नवीन संस्कारों के निर्माण में कुछ ऐसे मूलभूत तत्त्व हैं, जो मानव को विशेष रूप से प्रभावित करते हैं। इन तत्त्वों के प्रभाव से सूक्ष्म संस्कार घनीभूत होकर व्यक्ति जीवन को श्रेष्ठ बनाते हैं। यदि बालक को अच्छा परिवेश और संस्कारक्षम वातावरण मिले तो अच्छे संस्कार बनने की संभावना रहती है। इसके स्थान पर बुरा परिवेश मिलने पर व्यक्ति गलत मार्ग पर चलकर जीवन व्यर्थ गँवा देता है। ऐसे कुछ तत्त्व ये हैं –
पारिवारिक परिवेश
संस्कारों का निर्माण बहुत कुछ पारिवारिक वातावरण पर निर्भर करता है। भारत की संयुक्त परिवार प्रथा संस्कार निर्माण करने का सर्वोत्तम माध्यम था। संयुक्त परिवार में बालक अपने दादा-दादी, नाना-नानी और चाचा-चाची से बड़ों का सम्मान करना, उनका कहा मानना, कर्त्तव्यपालन और आत्मीयता के संस्कार स्वत: सीख जाता था। किन्तु आज संयुक्त परिवारों का स्थान एकल परिवारों ने ले लिया है, फलत: घरों में संस्कारों का अभाव सा हो गया है।
शिक्षा
शिक्षा को संस्कारों की जननी कहा गया है। बच्चों को सुसंस्कृत विद्यालयों में भेजना चाहिए, जिससे उन्हें संस्कारयुक्त शिक्षा मिल सके। हितोपदेश में कहा है –
विद्या ददाति विनयं विनयाद्याति पात्रताम्।
पात्रत्वाद्धनमाप्नोति धनाद्धर्मं तत: सुखम्।।
अर्थात् विद्या विनय प्रदान करती है, विनय से व्यक्ति में पात्रता आती है, और पात्रता से ही सच्ची सम्पत्ति प्राप्त होती है, जिससे वह सुखी जीवन जीता है। सद् विद्या के अर्जन में ही संस्कारों का समावेश है। ऐसा विद्यार्थी ही गुणी, सच्चरित्र और सदाचार परायण होता है।
स्वाध्याय
बच्चों को संस्कारित करने के लिए स्वाध्याय भावना को जाग्रत करना आवश्यक है। बालकों को सद् साहित्य पठन की प्रेरणा देनी चाहिए। प्रेरणादायक साहित्य पढ़ने से उनके चरित्र का विकास होता है। स्वाध्याय से सम्यक ज्ञान की प्राप्ति होती है। सदाचरण में वृद्धि होती है, दुराग्रह दूर होता है। बोध कथाओं को पढ़ने से उनमें उन्नत भावों का संचरण होता है। महापुरुषों की जीवनियाँ, भक्तों व वीरों की सत्कथाओं का पाठ एवं स्मरण उनके जीवन में कुछ श्रेष्ठ करने का संकल्प करवाया है।
सत्संग
सत्संग भी संस्कार निर्माण का सशक्त माध्यम है। अच्छे व्यक्तियों, साधु-संतों एवं सत्पुरुषों की संगति जीवन को ऊॅंचा उठाती है। कबीरदास जी ने सत्संग की महिमा बताते हुए कहा है कि क्षणभर का सत्संग भी बड़े-बड़े अपराधों को हर लेता है –
एक घड़ी आधी घड़ी, आधी से पुनि आध।
कबिरा संगत साधु की, हरे कोटि अपराध।।
संस्कारित बालक ही बड़ा होकर पारिवारिक जीवन को सौहार्दमय बनाता है और समाज व राष्ट्र के विकास में सहयोगी बनता है। अतः जीवन में सत्संग होना ही चाहिए।
भगवद्भक्ति
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में अपने प्रिय भक्तों के लक्षण, गुण, कर्तव्य, इस संसार में रहने के नियम और जन्म मरण के चक्कर से मुक्त होने की राह बतलाई है। बारहवें अध्याय के ये आठ श्लोक अच्छे संस्कारों के मूलभूत हैं। अतः इन श्लोकों को प्रतिदिन पढ़ना, इनका मनन करना और इन गुणों को धारण करना चाहिए। भगवद् वाणी का स्मरण करने से भगवान की भक्ति दृढ़ होती है और जीवन को संस्कारों से भर देती है।
सात्त्विक भोजन
भोजन को मात्र खाना न मानकर उसे भगवान का प्रसाद समझकर ग्रहण करना चाहिए। अत्यन्त निर्मल, शुद्ध और प्रेमपूर्वक वातावरण में प्रसाद रूपी भोजन ग्रहण करना चाहिए। प्रसाद की सार्थकता इसी में है कि पहले उसे बाँटना तत्पश्चात ग्रहण करना चाहिए। भोजन बनाते समय और ग्रहण करते समय हम जिस विचारधारा में होते हैं, जो देखते हैं, सुनते हैं, मनन करते हैं, वैसे ही संस्कार हम पर बन जाते हैं। संस्कारित भोजन से अच्छे संस्कारों का जीवन में समावेश होता है।
वाणी पर नियंत्रण
वाणी का संस्कार भी एक उत्तम संस्कार है और अन्य उत्तम संस्कारों को जन्म देता है। इसलिए वाक्-संयम को तप माना गया है। इसी प्रकार क्षमा भी विशाल हृदय की एक उदात्त वृत्ति है और साधुता का प्रधान लक्षण है। अतः संस्कार-सम्पन्न होने के लिए उपर्युक्त गुणों को आत्मसात करना चाहिए।
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सह सचिव है।)
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