भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात 73 (भारतीय शिक्षा और अंग्रेजी षडयंत्र)

 ✍ वासुदेव प्रजापति

“ज्ञान की बात” राष्ट्रीय शिक्षा डॉटकॉम पर प्रसारित होने वाला एक पाक्षिक स्तम्भ है। इसमें भारतीय शिक्षा  की मूलभूत अवधारणाओं को स्पष्ट किया गया है। इसे प्रारम्भ हुए तीन वर्ष पूर्ण हो गए हैं। इन तीन वर्षों में कुल 72 ज्ञान की बातें प्रसारित हो चुकी हैं। इन्हीं 72 बातों की दो पुस्तकें ज्ञान की बात 1 व 2 प्रकाशित हो चुकी हैं और ज्ञान की बात 3 छपने की प्रक्रिया में है।

आज ज्ञान की बात चौथे वर्ष में प्रवेश रही है, इसकी विषयवस्तु है – “भारतीय शिक्षा और अंग्रेज़ी षडयंत्र”

हम सब यह तो जानते हैं कि अंग्रेजों ने हमारी  प्राचीन काल से चली आ रही भारतीय शिक्षा को हटाकर उसके स्थान पर अंग्रेजी शिक्षा प्रारम्भ की। किन्तु यह नहीं जानते कि भारतीय शिक्षा को हटाने के लिए उन्होंने क्या-क्या षडयंत्र रचे और उन षडयंत्रों के द्वारा हमारे धर्म ग्रंथों व इतिहास को कैसे-कैसे विकृत किया? जिसके परिणाम स्वरूप हमारे धर्म ग्रंथों के प्रति घोर अनास्था निर्माण करने का देश विघातक कार्य किया गया।

इसलिए चौथे वर्ष की पहली ज्ञान की बात में अंग्रेजों के षड्यंत्रों को उजागर करना और आगे की बातों में उनके द्वारा दी गई अंग्रेजी शिक्षा के दुष्परिणामों को जिन्हें देश आज भी झेल रहा है, उसे एक-एक कर सबके समक्ष लाने का प्रयत्न होगा। उन सब दुष्परिणामों को जानने से हमें अपनी भारतीय शिक्षा को पुनः प्रतिष्ठित करने का मार्ग सुझेगा।

यूरोप में संस्कृत साहित्य का प्रचार

अंग्रेज भारत में व्यापारी बनकर आया। व्यापार के नाम पर यहाँ की धन-सम्पदा लूटने लगा। इस लूट में यहाँ के कायदे-कानून आड़े आने लगे, तब उन्होंने यहाँ का शासन हथियाने का प्रयत्न किया। “फूट डालो और राज करो” की नीति का सहारा लिया। यहाँ के धर्मप्रेमी राजा उनकी कुटिल चाल में फँसते गए और अपना राज्य गवाँ बैठे। राज्य हाथ में आते ही उन्होंने अपने हितों के अनुसार कायदे-कानून बनाए और मनमाने ढंग से इस देश की धन-सम्पदा लूटने लगे। इस लूट के साथ-साथ उनका छद्म उद्देश्य भारत का ईसाईकरण करना भी था, जिसमें उन्हें सफलता नहीं मिल रही थी। सफलता न मिलने का कारण देश के जन मानस में अपने श्रेष्ठ धर्मग्रंथों व महान संस्कृति के प्रति गहरी आस्था कूट-कूट कर भरी होना था।

दूसरा एक और तात्कालिक कारण बना। जो अंग्रेज अधिकारी बनकर भारत आए, उनका प्रत्यक्ष सम्पर्क यहाँ के धर्म, संस्कृति व साहित्य से हुआ।

उनमें से कुछ विद्वान अधिकारी भारत की ज्ञान सम्पदा से अत्यधिक प्रभावित हुए। उन्होंने हमारी संस्कृत भाषा सीखी और संस्कृत साहित्य का लेटिन में अनुवाद किया। अनुवाद करने वालों में प्रमुख थे, जोन विलियम्स, हेनरी कोल ब्रुक, आंकेतिल दुपेरा आदि। सन् 1789 में जोन विलियम्स ने कालिदास रचित नाटक अभिज्ञान शाकुंतलम् एवं हितोपदेश का लेटिन में अनुवाद किया। इसी तरह सन 1794 में मनु के धर्मशास्त्र का अनुवाद हुआ। सन 1805 में हेनरी कोल ब्रुक ने वेदों पर “आन दि वेदाज” नामक निबन्ध लिखा। सन 1801 में आंकेतिल दुपेरा ने दारा शिकोह द्वारा उपनिषदों पर किए गए फारसी अनुवाद का “ओपनेखत” नाम से लेटिन में अनुवाद किया। यह अनुवादित साहित्य जब यूरोप में पहुँचा तो यूरोपीय विद्वान इन्हें पढ़कर मंत्रमुग्ध हो गए।

जर्मन विद्वान शोपन हावर ने जब उपनिषदों को पढ़ा तो उनके उद्गार थे –

“उपनिषद मानव बुद्धि की सर्वोच्च उपज हैं। यह मेरे जीवन के लिए शान्ति का आश्वासन रहा है, जो मेरी मृत्यु के बाद तक बना रहेगा।” इस प्रकार जर्मनी में आगस्ट विल्हेम्स, फॉन श्लेगल तथा हमबोल्ट जैसे विद्वान संस्कृत वांगमय से अत्यधिक प्रभावित हुए। हमबोल्ट गीता को संसार का गम्भीरतम और उच्चतम ग्रंथ मानते थे। जैसे-जैसे भारत, भारतीयता और हिन्दू धर्म का अधिक प्रचार होने लगा वैसे-वैसे ईसाई धर्म प्रचारकों और पादरियों के कान खड़े हो गए। वे डरने लगें कि यदि संस्कृत वांगमय का प्रचार इसी प्रकार चला तो सृष्टि निर्माण 4004 ई.पू. हुआ, ये बाइबिल सिद्धांत तथा बाइबिल में व्यक्त विचार ही सर्वश्रेष्ठ विचार हैं, जैसी समस्त धारणाएँ ध्वस्त हो जायेंगी।

अबे डुर्बोई का निष्कर्ष

जब हमारे देश पर ईस्ट इंडिया कम्पनी का शासन चल रहा था, उस समय एक फ्रेंच मशनरी ‘अबे डुर्बोई’ भारत आया और मद्रास प्रेसीडेंसी में उसने ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार का काम प्रारम्भ किया। ईसायत का काम करते समय उसने बहुत गहराई से हिन्दू समाज की जीवन पद्धति, परम्पराओं व सांस्कृतिक मूल्यों का अध्ययन किया और एक निष्कर्ष निकाला, उसका निष्कर्ष यह था- “हिन्दुओं का तत्त्वज्ञान श्रेष्ठ है। इनकी परम्पराएँ व संस्कृति महान हैं। जब तक हिन्दुओं की इनमें गहरी आस्था बनी रहेगी तब तक अंग्रेजी राजसत्ता का भारत में स्थायी रहना और ईसायत का प्रचार होना कठिन रहेगा।” उसने अपना यह निष्कर्ष ईस्ट इंडिया कम्पनी के डायरेक्टर बोर्ड को भेजा। कम्पनी बोर्ड के लोगों में विचार विमर्श हुआ, उन्होंने उस दिशा में कुछ प्रयास करने की मानसिकता बनाई। इन लोगों के मन में भारतीय साहित्य का अत्यधिक भय था।जिसकी जानकारी फ्रेडरिक वॉडमेर ने इन शब्दों में दी थी – “बाइबिल के रक्षक इतने अधिक भयभीत हो गए हैं कि उन्हें ऐसा लगने लगा है कि संस्कृत का वर्चस्व बाइबिल की मीनार गिरा देगा।” इसलिए बाइबिल के रक्षकों ने एक षडयंत्र रचा।

अंग्रेजी षडयंत्र

भारतीय साहित्य की श्रेष्ठता से भयाक्रांत अंग्रेजों ने प्रतिकार की योजना बनाई। योजनानुसार जर्मनी व इंग्लैण्ड के लेखकों की एक बड़ी फौज तैयार की। इसमें सम्मिलित लेखकों ने अपने-अपने ढंग से भारत के साहित्य, इतिहास व संस्कृति को बिगाड़ने का कार्य किया। इनके प्रयत्न मुख्य रूप से तीन प्रकार के थे। और तीन अधिकारी आधार स्तम्भ सिद्ध हुए –

  1. संस्कृत ग्रंथों का अनुवाद कर उनके अर्थ को विकृत करना। इस कार्य के आधार स्तम्भ बने “मेक्समूलर”।
  2. भारतीय इतिहास की प्राचीनता को नकारना और आधुनिक इतिहास लिखकर हमारे प्राचीन इतिहास को विकृत करना। इसके आधार स्तम्भ बने “जेम्स मिल”।
  3. उपर्युक्त दोनों प्रयत्नों को अंग्रेजी शिक्षा पद्धति में जोड़कर समूची पीढ़ी को भारतीयता से काटने की व्यवस्था की गई। इसके आधार स्तम्भ बने, “थॉमस बाबिंग्टन मैकाले “।

इन तीनों आधार स्तम्भ बने यूरोपीय विद्वानों के जीवन का विश्लेषण करने से कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्य हमारे ध्यान में आते हैं।

वेदों को विकृत करनेवाला मैक्समूलर

28 वर्ष के युवा मैक्समूलर जर्मनी के रहने वाले तथा वेदों में पी.एच.डी. प्राप्त बेरोजगार युवक थे। रोजगार की तलाश में इंग्लैण्ड आ गए। इंग्लैण्ड में इनकी भेंट मैकाले से हुई। मैकाले ने इन्हें नौकरी पर रखा और ईसाई धर्म के प्रसार के लिए भारत में रहकर वेदों का अनुवाद करने का काम सौंपा। इस कार्य हेतु ब्रिटिश शासन, ईस्ट इंडिया कम्पनी तथा बोडन ट्रस्ट ने विपुल धन राशि व्यय की। इस धन राशि का उपयोग हिन्दुओं की वेदों पर से श्रद्धा हटाने के लिए वेदों का विकृत अनुवाद करके किया गया। मेक्समूलर ने अनुवाद में कहीं-कहीं वैदिक वांगमय की मन से प्रशंसा भी की। इसी कारण विश्वभर में संस्कृत के अध्ययन को गति मिली। इस दृष्टि से तो हम मेक्समूलर के ऋणी हैं, किन्तु इस कार्य के पीछे मैक्समूलर का छद्म हेतु बड़ा भयंकर था, जो आगे चलकर भारतीय संस्कृति के लिए बहुत ही विघातक सिद्ध हुआ।

सन् 1902 में मैक्समूलर की पत्नी ने उनकी मृत्यु के उपरान्त चरित्र और पत्रों का प्रकाशन दो खण्डों में किया। उनमें से कुछ पत्रों का उल्लेख यहाँ किया जा रहा है, जिससे उनके छद्म उद्देश्य का पता चलेगा –

  1. वेदों को उखाड़ फेंकना – दि. 9.12.1866 को वे अपनी पत्नी को पत्र में लिखते हैं कि “वेद का अनुवाद और मेरा यह संस्करण उत्तर काल में भारत के भाग्य पर दूर तक प्रभाव डालेगा। यह उनके धर्म का मूल है और विगत तीन हजार वर्षों से उत्पन्न आस्थाओं को जड़-मूल से उखाड़ने का उपाय है।
  2. बाइबिल श्रेष्ठ और वेद निकृष्ट – यह पत्र उन्होंने अपने पुत्र को लिखा। वे लिखते हैं कि “समूचे विश्व के धर्मों में 1. प्रथम क्र. पर न्यू टेस्टामेंट बाइबिल का 2. द्वितीय क्र. कुरान का 3. ओल्ड टेस्टामेंट का 4. बौद्ध त्रिपिटक का 5. लाआत्से का 6. कन्फ्यूशस का 7. वेद का और आखिर में अवेस्ता का। अर्थात उन्होंने यह क्रम देकर सिद्ध किया कि बाइबिल श्रेष्ठ व वेद निकृष्ट है।
  3. क्रिश्चियन बनो – यह पत्र एन. के. मजूमदार को अपनी मृत्यु से एक वर्ष पूर्व दि. 30.10.1899 में लिखा था। इसमें वे लिखते हैं कि “मैं हिन्दू धर्म को शुद्ध बनाकर ईसाइयत के पास लाने का प्रयास कर रहा हूँ। आप और केशवचन्द्र सरीखे लोग प्रकट तौर पर ईसायत को स्वीकार क्यों नहीं करते? जैसा जर्मन चर्च है, अंग्रेज चर्च है वैसा ही हिन्दू चर्च होगा। नदी पर पुल तैयार है, केवल तुम लोगों को चलकर आना बाकी है। पुल के उस पार लोग स्वागत के लिए आपकी राह देख रहे हैं।
  4. स्वामी दयानन्द जी पर छींटे – दि. 28. 01.1882 के पत्र में बैरामजी मलवारी को लिखते हैं कि “दयानन्द सरीखे लोग वेदों को अतिरिक्त महत्त्व देते हैं। जो अर्थ मूल में नहीं है, उसे मानते हैं। वेदों को केवल ऐतिहासिक ग्रंथ के रूप में ही देखना चाहिए। उनमें वाष्प यंत्र, विद्युत शक्ति, नीति या दर्शन शास्त्र के तत्त्वज्ञान को ढूँढना उसकी वास्तविक महत्ता को नष्ट करना होगा।”

उपर्युक्त पत्रों से वेदों के अनुवाद का हेतु और मानसिकता स्पष्ट होती है। मैक्समूलर के लेखन से ध्वनित हुआ कि वेद गड़रियों के गीत हैं। उन्होंने वैदिक सूक्तों को जटिल, अधम व बचकाना बताया। वेदों का काल ई.पू. 1500 वर्षों में ही समेट लिया, हिन्दू देवी-देवताओं को हास्यास्पद रूप में दर्शाया और यहाँ के लोग यहाँ के हैं ही नहीं, इस भ्रम को खड़ा करने वाला सिद्धांत – “आर्य एक जाति थी, जो बाहर से आई और  यहाँ के मूल निवासियों पर आक्रमण कर उन्हें वनों में ठकेल दिया।” मैक्समूलर को भारत का ज्ञाता मानकर अंग्रेजों ने इसका अत्यधिक प्रचार किया। और अन्य दो जेम्स मिल व मैकाले के प्रयत्नों की जानकारी ज्ञान की बात 74 में …

(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सचिव है।)

और पढ़ें : भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात 72 (स्वायत्त शिक्षा भाग २)

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