✍ सचिन अरुण जोशी
आचार्य विनोबा भावे एक ऋषितुल्य व्यक्तित्व। केवल चिंतन ही नहीं अपितु चिंतनाधारित कृति ऐसी उनकी प्रगल्भता थी। विनोबाजी मूलतः महाराष्ट्र से थे पर उनका अधिकतम काल गुजरात में बीता। पदयात्रा के कारण उनका भ्रमण संपूर्ण भारतभर में हुआ। भारत भ्रमण की वजह से उनका अनेकानेक विषयों पर प्रभुत्व, हर तरह का ज्ञान और उस गहन अध्ययन के माध्यम से होने वाली कृति विनोबाजी के ज्ञान संदर्भ की विशेषता भी थी। विनोबाजी को श्रीमद्भगवगीता के प्रति विशेष लगाव था साथ ही शिक्षा का भी।
शिक्षा के संदर्भ में विनोबाजी की संकल्पनाएँ अत्यंत प्रगत और वस्तुनिष्ठ भी थी। विनोबाजी कहते है, “शिक्षा से कुछ नया निर्माण नहीं होता बल्कि जो विद्यार्थीयों में विद्यमान हैं उसी की जागृति करना इतना ही कार्य शिक्षा का है। विद्यार्थीयों के अंदर छुपे हुए पूर्णत्व की खोज कर उसके विकसन के लिए मदद करना ही शिक्षक का कर्तव्य होता है इतनी स्पष्ट धारणा उनकी शिक्षक के संदर्भ में थी।
त्वं नो अस्या अमतेरूत क्षुधो अभिशस्तेरव स्पृधि।
त्वं न ऊति तव चित्रया धिया शिक्षा शचिष्ठ गातुवित्।।
उपरोक्त संस्कृत श्लोक का अर्थ है, “हे शचिष्ठ गातुवित्, हे श्रेष्ठ शक्तिशाली मार्ग शोधक, हमारा अज्ञान, हमारी भूख और हमारी व्याधीयाँ दूर करने का रास्ता हमें दिखा। तू हमें उत्तम शिक्षा दे, बुद्धि,रक्षण शक्ति, उत्पादन शक्ति और तरह तरह की शक्ति तू प्रकट कर।” वेद में इस श्लोक का शिक्षा के संदर्भ में महत्वपूर्ण स्थान है उससे अधिक शिक्षक के संदर्भ में है यह कहना अनुचित नहीं होगा। वेदों में शिक्षक को ‘गातुवित’ कहा गया है जिसका अर्थ है ‘मार्ग खोज के निकालनेवाला’। गातु मतलब गमन मार्ग और वित् मतलब खोज के निकालने वाला। शिक्षकों के लिए वेदों में आया हुआ यह एक अर्थपूर्ण शब्द है। मूलतः गुरूकूल परंपरा मानने वाले हिंदू संस्कृति में गुरू का स्थान अनन्य साधारण है। जो ज्ञान देता है वह अपना गुरू होता है यह हमारी प्राचीन पुरातन परंपरा है। अपने पास होने वाले ज्ञान के आधार पर समाज का भला हों यह सोच रखने वाला शिक्षक होता है, इसलिए शिक्षक का समाज में अनन्य साधारण महत्त्व है। शिक्षक पर भरोसा करने वाली ऐसी अपनी प्राचीन पुरातन परंपरा है। एक शिक्षक के नाते समाज बडे़ विश्वास के साथ शिक्षक की ओर देखता है। प्राचीन काल से लेकर वर्तमान तक शिक्षक का समाज में महत्त्व अनन्य साधारण है। इसी मुद्दे को लेकर विनोबाजी के शिक्षक संदर्भ में दृष्टि समझ लेने की बेहद आवश्यकता आज निर्माण हुई है।
एक बार महात्मा गांधी जी को किसी ने एक सवाल पूछा कि आप ऐसा कौन-सा कार्य करते हो? उस समय महात्मा जी ने कहा था कि मैं धागा कातना और बुनना ऐसे दो कार्य करता हूँ। इसी आधार पर विनोबाजी कहते है, “अगर मुझे किसी ने सवाल पूछा तो मैं कहूँगा कि मैं शिक्षक हूँ, पढ़ाने का कार्य करता हूँ। इस बात का स्पष्टीकरण विनोबाजी बडे़ सटीक तरीके से देते है, “मैनें 13 वर्ष पदयात्रा की। उसमें मैं अविरत चलत रहा और इस पदयात्रा में मैंने अगर कोई कार्य किया तो एक शिक्षक और विद्यार्थी का।” जो शिक्षक होता है वह विद्यार्थी होता है पर जो विद्यार्थी नहीं होता वह शिक्षक कदापि नहीं होता। इतने सरल शब्दों में उन्होंने शिक्षक का श्रेष्ठत्व विदित किया है। विनोबाजी कहते है कि मेरे जीवन में ऐसा एक भी दिन नहीं गया जिस दिन मैनें कुछ अध्ययन नहीं किया हों। यह अध्ययन नये ज्ञान के लिए था या पुराने ज्ञान की पुनरावृत्ति के लिए था। इतनी श्रद्धा विनोबा जी की शिक्षक नामक व्यक्तित्व पर थी।
शिक्षक के लिए आवश्यक तीन गुण
विद्यार्थीयों के माध्यम से समाज निर्माण करने वाले शिक्षक के संदर्भ में विचार करना आवश्यक हुआ तो ऐसा कह सकते हैं कि अनेक गुणों का समुच्चय होने वाला व्यक्तित्व याने अध्यापक। आचार्य विनोबा भावे शिक्षक के संदर्भ में कम से कम तीन गुणों की आवश्यकता प्रतिपादित करते है । ये तीन गुण निम्न स्वरूप के है –
१) शिक्षकों का विद्यार्थीयों के प्रति प्रेम होना चाहिए। वात्सल्य और प्रेम इन दो घटकों पर आधारित जिनका जीवन भरा हुआ होता है वहीं असल में शिक्षक हो सकता है। माता के पास जो वत्सलता और प्यार होता है, वहीं शिक्षक के पास होनी चाहिए ऐसा विनोबाजी कहते है।
२) शिक्षक सदैव अध्ययनशील होना चाहिए। विश्व सतत बदलता रहता है। इस बदलते युग में छात्रों को किस प्रकार के ज्ञान की आवश्यकता है, वह ज्ञान विद्यार्थीयों को देकर अद्ययावत बनाना ही शिक्षक की मूल भूमिका होनी चाहिए। इसके लिए शिक्षक स्वयं निरंतर अध्ययनशील रहें ऐसा सुझाव विनोबाजी देते है।
३) अध्यापक को राजनीति से अलिप्त रहना चाहिए। राजनीति में न्याय-अन्याय, अपना-पराया ऐसी भावनाएँ होती है। शिक्षा क्षेत्र मात्र इससे अलग है। शिक्षा के क्षेत्र में सभी अपने ही होते हैं और यही सीख छात्रों को देनी होती है। जिसके कारण अध्यापक को पक्षीय राजनीति से अलिप्त रहना चाहिए ऐसा विनोबा जी का कहना है।
मातृमुखेन शिक्षणम्
आचार्य विनोबा जी ने शिक्षा का क्रम बताया है –
‘मातृमान’, ‘पितृमान’, ‘आचार्यमान’ अर्थात शिक्षा प्रथम माता से, बाद में पिता से और अंततः आचार्य की ओर से देना चाहिए। बच्चों को बचपन की शिक्षा माता से प्राप्त होती है। बचपन में अच्छे संस्कार माता के द्वारा ही किये जा सकते हैं। अन्य कोई इतना कर सकते है कि नहीं यह बताया नहीं जा सकता। इसालिए विनोबाजी स्त्री-शिक्षा पर जोर देते है। स्त्री बच्चों को सीखाती है और बच्चे देश का भविष्य बनाते है इसलिए नारी शिक्षा की जरूरत बहुत ज्यादा है। यह बताते हुए विनोबाजी कहते है कि प्राथमिक शिक्षा की जिम्मेदारी महिलाओं के हाथों में दिया जाना चाहिए इससे और अच्छा विकास होगा। किसी बालक से कैसे वर्तन करना यह स्त्री को बहूत अच्छे से मालुम होता है, इसलिए शिक्षा ‘मातृमुखेन’ हों ऐसा साधारण पर महत्त्वपूर्ण विचार विनोबाजी ने रखा है। महाभारत में भगवान श्रीकृष्ण ने ‘मातृहस्तेन् भोजनम्’ ऐसा वर मांगा था। उसी से संबंधित विनोबाजी ने शिक्षा के संदर्भ में ‘मातृमुखेन शिक्षणम्’ ऐसा विचार प्रस्तुत किया है। छोटे बच्चों के शिक्षा संदर्भ में विनोबाजी की जागरूकता इससे प्रतित होती है।
शिक्षकों का दायित्व
शिक्षकों के संदर्भा में पतंजली के कुछ मार्गदर्शक योगसूत्र है। अर्थात पतंजली ने शिक्षकों के लिए आचार्य शब्द का प्रयोग किया है। उसमें उन्होंने ईश्वरविषयक विचार रखा है। ईश्वर अपने पूर्व पुरूखों के गुरू है ऐसा पतंजली कहते है। “त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव” ऐसा अपने प्राचीन साहित्य में कहा गया है। किन्तु यहाँ ईश्वर गुरू है और गुरू के लक्षण क्या तो वह शिष्यों को स्वातंत्र्य देता है। उन्हें अनुभव से सीखने के लिए प्रवृत्त करता है। ‘अनुभव से शिक्षा’ यह विनोबा जी को अभिप्रेत है। शिक्षक और विद्यार्थी दोनों एक दूसरे के आचरण से सीखते है। अर्थात जो दिया नहीं जाता वह शिक्षण.जो लिया नहीं जाता, जिसका हिसाब रखा जा सकता है अथवा कुछ नोंद की जा सकती है वह शिक्षा नहीं हो सकती। कँलरी का असली हिसाब कागज पे नहीं तो वह शरीर पर ही दिखता है। जो अनुभव लिया, खाया और पचाया गया वही असल में शिक्षा है ऐसा विनोबाजी कहते है।
विनोबाजी के अनुसार शिक्षा की गिनती नहीं की जा सकती। जीवन यही शिक्षण है अतः शिक्षकों ने जीवन के क्षेत्र में ही शिक्षा देनी चाहिए, ऐसा आग्रह विनोबाजी करते है। इसलिए विनोबाजी कुरूक्षेत्र का उदाहरण देते है। भगवान श्रीकृष्ण ने कुरूक्षेत्र में अर्जून को भगवद्गीता बतायी। वैसे देखा जाए तो एकांत में भी यह भगवत् ज्ञान श्रीकृष्ण अर्जून को बता सकते थे परंतु वैसे न करते हुए जीवन की शिक्षा जीवन के क्षेत्र में ही देने के लिए और दी गई शिक्षा के द्वारा प्राप्त ज्ञान का अवबोध हो इसलिए प्रत्यक्ष जीवन के क्षेत्र का चयन भगवान श्रीकृष्ण ने किया है। इसी प्रकार की जीवन शिक्षा ही विनोबाजी को महत्वपूर्ण लगती है ।
आज के शिक्षक इस व्यक्तित्त्व के संदर्भ में आचार्य यह शब्द प्रचलित है। आचार्य इस शब्द में ‘चर’ ऐसा धातु है और आ उपसर्ग है। अर्थात आचार्य इस शब्द का अर्थ आचरण से संदर्भ में है। आचार्य मतलब विनोबाजी के शब्दों में “जो आचरण करता है वह आचार्य”। जो भी पढा़ना है वह आचरण में लाना और औरों से आचरण करवाना ऐसा प्रत्यक्ष बोध जिस व्यक्तित्व से प्राप्त होता है उसे ‘आचार्य’ कहना चाहिए ऐसा विनोबाजी कहते है। ऐसे ही कर्तृत्ववान आचार्य के माध्यम से कर्तृत्ववान विद्यार्थी निर्माण होंगे और परिणामतः कर्तृत्ववान राष्ट्र का निर्माण बनेगा जो समाज जीवन की आवश्यकता है।
आचार्य विनोबाजी के अनुसार अपनी शिक्षा का मंत्र सच्चिदानंद ऐसा होना चाहिए। सत् इस कर्मयोग के सिवाय जीवन आगे बढ़ नही सकता। चित्त यह ज्ञानयोग जिसके सिवाय जीवन बन नही सकता और आनंद के सिवाय जीवन में कुछ भी रस नहीं रहता। जिस शिक्षा में सत्, चित् और आनंद इन तीनों का योग होता है वहीं सच्ची शिक्षा होती है। यही सच्ची शिक्षा देने वाली कर्तृत्ववान पीढ़ी शिक्षकों के माध्यम से निर्माण हों ऐसी अपेक्षा हम सब इस माध्यम से करेंगे।
(लेखक आचार्य विनोबा भावे साहित्य के अभ्यासक है।)
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