✍वासुदेव प्रजापति
स्वायत्त शिक्षा भाग १ में हमने यह जाना कि स्वायत्तता अंग्रेजी शब्द ओटोनोमी का अनुवाद है। इसलिए ओटोनोमी का अर्थ ही स्वायत्तता पर लागू करते हैं। स्वायत्तता के भारतीय अर्थ में स्वतंत्रता उसके साथ जुड़ी हुई है। हमारे यहाँ स्वतंत्रता का महत्त्व अधिक है। इस स्वतंत्रता की रक्षा हेतु स्वायत्त होना आवश्यक है। शिक्षा में स्वायत्तता होने का अर्थ भी हमने समझा कि शिक्षा शिक्षक के अधीन होनी चाहिए?
भारतीय शिक्षातंत्र में शिक्षा सदैव शिक्षक के अधीन रही है। जबकि पाश्चात्य देशों में शिक्षा सदैव शासन के अधीन रही है। यही मूलभूत अन्तर दोनों शिक्षा तंत्रों में है। आधुनिक भारत में हमने भी शिक्षा में शासन की अधीनता का सिद्धांत स्वीकार कर लिया है। इसके परिणाम स्वरूप ही भारत की शिक्षा स्वतंत्र नहीं है। स्वतंत्र न होने के कारण वह व्यक्ति को मुक्ति दिलाने में समर्थ नहीं है। वह अपने ही उद्देश्य – “सा विद्या या विमुक्तये” पर खरी नहीं उतर रही है। अतः आज की सर्वप्रथम आवश्यकता शिक्षा को स्वतंत्र व स्वायत्त बनाना है।
भारत की गुरुकुल व्यवस्था
भारत में प्रारम्भ से शिक्षा की व्यवस्था का स्वरूप गुरुकुल ही रहा है। और गुरु गृहवास किसी भी प्रकार की संस्थागत व्यवस्थाओं की अपेक्षा नहीं करता। गुरुकुल में छात्रों की संख्या के अनुपात में आचार्यों की संख्या भी कम या अधिक रहती है। छात्र-आचार्य सभी मिलकर गुरु का कुल अर्थात बड़ा परिवार होता है। गुरु स्वयं अपने कुल का अधिष्ठाता होता है, आज की शब्दावली में वह कुलपति होता है। कुलपति के सहयोगी आचार्य भी वे ही होते हैं, जो पहले उनके ही छात्र रहे हैं, और अब यहाँ छोटे छात्रों को पढ़ाते हैं। जैसे – एक परिवार में पितामह-पिता-पुत्र और पौत्र एक साथ रहते हैं, वैसे ही गुरु-आचार्य-अध्यापक और छात्र साथ-साथ रहते हैं। जिस प्रकार परिवार में पिता की वंश परम्परा चलती है, उसी प्रकार गुरुकुल में गुरु की शिष्य परम्परा चलती है।
एक गुरुकुल में भी परिवार के समान ही सभी व्यवस्थाएँ चलती हैं। गुरुकुल में संख्या अधिक होने के कारण संचालन के नियम तो अवश्य होते हैं परन्तु वे आन्तरिक होते हैं, बाहर के किसी व्यक्ति अथवा संस्था के बनाए हुए नहीं होते। इस गुरुकुल की सभी प्रकार की सार-संभाल का दायित्व कुलपति का होता है, कुल के अन्य सदस्य उनके मार्गदर्शन में यथायोग्य सहयोग करते हैं। समाज या राजा कर्तव्यभाव से आर्थिक सहायता अवश्य करते हैं, परन्तु कानून या शर्तों का इसमें कोई स्थान नहीं होता। कण्व, वसिष्ठ, जमदग्नि आदि ऋषियों के आश्रमों की व्यवस्थाएँ ऐसी ही थीं।
गुरुकुलों या आश्रमों के परवर्ती काल में हमारे देश में विश्वविख्यात विद्यापीठ चले। यह समय ईसा पूर्व 400 वर्ष से लेकर ईसा के 1600 वर्ष तक की दीर्घकालीन अवधि का था, जिसमें तक्षशिला, नालन्दा, विक्रमशिला, वल्लभी, ओदन्तपुरी, नवद्वीप (नदिया) आदि विद्यापीठ चलते थे। इनका व्यवस्था तंत्र बहुत बड़ा था। इनमें छात्रों व आचार्यों की संख्या बहुत अधिक थी। इनकी भी सारी व्यवस्था आन्तरिक सूत्रों से ही होती थी, किसी बाहरी तंत्र से नहीं। बाहरी तंत्र सहायता करता था, रक्षा करता था, पोषण करता था, परन्तु कभी भी सूत्र संचालन नहीं करता था।
सूत्र संचालन शिक्षक के अधीन
जिस शैक्षिक इकाई के सूत्र शिक्षक के हाथ में हो, अन्तिम अधिकार शिक्षक के हाथ में हो और सर्वप्रकार का दायित्व शिक्षक का हो, उस व्यवस्था में चलने वाली शिक्षा को स्वायत्त शिक्षा कहा जाता है। व्यावहारिक सन्दर्भ में विचार करें तो वे कौन-कौन सी बातें हैं जो शिक्षक के हाथ में होनी चाहिए? उन बातों को जानते हैं –
- छात्र को प्रवेश देना या न देना,
- छात्र से शुल्क लेना या न लेना,
- छात्रों की सभी व्यवस्थाएँ करना,
- आचार्यों की नियुक्ति, स्थानांतरण, वेतन वृद्धि आदि करना या रोकना,
- छात्रों को क्या सिखाना, कैसे सिखाना, कितना सिखाना, कब तक सिखाना, किस समय सिखाना आदि बातों का निर्णय करना,
- छात्रों का मूल्यांकन या परीक्षा कब करना, किस प्रकार करना, कब उत्तीर्ण करना, कौन सा प्रमाणपत्र देना, किस प्रकार देना आदि बातों का निर्णय करना,
- ग्रंथादि शैक्षिक सामग्री, अन्न वस्त्रादि भौतिक सामग्री की व्यवस्था और संचालन सम्बन्धी नियमावली की रचना तथा उसके क्रियान्वयन का अधिकार जब शिक्षक के हाथ में होती है, तब हम कह सकते हैं कि शिक्षा स्वायत्त है।
हमारे देश में पहले यही व्यवस्था थी
उपर्युक्त सभी बातें शिक्षक के हाथ में होना, आज तो असम्भव या अव्यवहारिक लगता है। परन्तु आज से लगभग दो सौ वर्षों पूर्व तक हमारे देश में ये सभी बातें शिक्षक के हाथ में ही थीं। गाँधीवादी विचारक धर्मपालजी के १८वीं शताब्दी में भारतीय शिक्षा पर लिखे ग्रंथ में हमारे देश की शिक्षा का जो वर्णन मिलता है, वह अत्यन्त उज्ज्वल है। १९वीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक भारत के प्रत्येक ग्राम में विद्यालय था। सम्पूर्ण देश में लगभग ५ लाख विद्यालय थे और औसतन ४०० की जनसंख्या पर एक विद्यालय चलता था। यह प्राथमिक शिक्षा का चित्र था। उच्च शिक्षा के केन्द्र भी व्यापक संख्या में चलते थे। ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में भी भारत प्रगत अवस्था में था।
हमारे देश में उस समय शासन का शिक्षा विभाग ही नहीं था और पाठ्यपुस्तक मंड़ल, शिक्षा बोर्ड़, एनसीईआरटी व शिक्षा सचिवालय भी नहीं थे। उस समय इनकी आवश्यकता ही नहीं थी। क्योंकि शिक्षातंत्र का अधिष्ठाता शिक्षक था, शासन नहीं। उस समय शासन से व मंदिरों (समाज) से आर्थिक सहायता अवश्य मिलती थी, परन्तु सम्पूर्ण नियन्त्रण शिक्षक का ही था।
अंग्रेजों ने इस व्यवस्था को बदला
अंग्रेजों ने हमारे देश की शिक्षा व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन किया। इस परिवर्तन के मुख्य बिन्दु अधोलिखित थे –
- अब तक जो शिक्षा शिक्षकों के अधीन थी उसे शासन ने अपने हाथ में ले लिया।
- अब तक जो शिक्षा ज्ञानार्जन के लिए थी उसे अब नौकरी पाने का साधन बना दिया गया। अब शिक्षा का उद्देश्य ज्ञानार्जन से जीविकोपार्जन हो गया।
- अब तक शिक्षातंत्र का नियमन स्वयं के निर्देशन में होता था, अब वह राज्य के निर्देशन से होने लगा।
- अब तक समाज और राज्य बिना किसी शर्त के दान व अनुदान देते थे, अब वह दान मिलना बन्द हो गया और अनुदान के साथ राज्य के नियन्त्रण की शर्तें जुड़ गईं।
- अब तक शिक्षा धर्म के अनुसार चलती थी और निशुल्क थी, वही शिक्षा अब राज्यसत्ता के अनुसार चलने लगीं और सशुल्क हो गई।
- अब तक जो शिक्षक गुरु था, वही अब अंग्रेजों का कर्मचारी मात्र बन गया।
- स्वायत्त रचना में शिक्षक की नियुक्ति उससे वरिष्ठ शिक्षक करता था, अब शिक्षक की नियुक्ति राज्यसत्ता करने लगी।
भारत की स्वतंत्रता के पश्चात भी इस स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। राज्यसत्ता और अर्थसत्ता ने शिक्षा को बाँध लिया। इस व्यवस्था में आज एक और अनिष्ट जुड़ गया है। राजकीय विचारधाराएँ एक ओर शिक्षा को अपना प्रभाव जमाने का माध्यम बनाती है तो दूसरी ओर चुनाव जीतने हेतु साधन के रूप में शिक्षातंत्र का उपयोग करती है।
आज स्वायत्तता संस्थाओं की है
आज जब स्वायत्तता प्रदान की जाती है, तो वह स्वायत्तता संस्थाओं की होती है। स्वायत्तता शिक्षक की नहीं होती, क्योंकि संस्थाएँ शिक्षक के अधीन नहीं होती। संस्थाओं का संचालन भी शिक्षक के अधीन नहीं होता, संचालकों के अधीन होता है। कहीं-कहीं संचालन शिक्षक के अधीन दिखाई तो देता है परन्तु वह होता नहीं है। वह शिक्षक के नाते नहीं अपितु मंत्री या अध्यक्ष के नाते संचालन करता है।
शैक्षिक संस्थानों में शिक्षकों की नियुक्तियाँ भी राजकीय विचारधारा से प्रेरित सरकार की अनुशंसा पर राज्य का अधिकारी करता है। उस शैक्षिक संस्थान का प्राचार्य नहीं करता। विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की नियुक्ति प्रक्रिया से यह बात स्पष्ट होती है। विश्वविद्यालयों के संचालक मंडल, कार्यकारिणी सभाओं व गवर्निंग बोडीज जैसी रचनाओं को देखने से भी यह बात स्पष्ट होती है। अर्थात यह पूरा का पूरा तंत्र प्रशासनिक ढाँचे के अनुसार चलता है, शैक्षिक ढाँचे के अनुसार नहीं। इस ढाँचे में शिक्षक ही प्रशासक बन जाता है। जबकि स्वायत्त शिक्षा संस्थानों में प्रशासक भी प्रथम शिक्षक होना चाहिए।
प्राचीन नालन्दा विश्वविद्यालय
हमारे देश के सभी प्राचीन विश्वविद्यालय स्वायत्तता के अनुपम उदाहरण थे। उन्हीं में से एक है, विश्वविख्यात नालन्दा विश्वविद्यालय। यह था तो मुख्य रूप से बौद्ध धर्मावलंबियों का परन्तु इस विश्वविद्यालय में वेद, वेदान्त, सांख्य, व्याकरण, दर्शन, ज्योतिष, योगशास्त्र, चिकित्साशास्त्र, धातुशास्त्र, खगोलशास्त्र तथा कला व शिल्प की शिक्षा दी जाती थी। इस प्रकार यह विश्वविद्यालय उच्च शिक्षा का प्रथम पूर्णतः आवासीय विश्वविद्यालय था।
इस विश्वविद्यालय में सातवीं सदी में दो चीनी यात्री ह्वेनसांग व इत्सिंग भारत आए थे। इन दोनों ने यहाँ रहकर संस्कृति व दर्शन की शिक्षा प्राप्त की थी। ह्वेनसांग ने तो कुछ वर्षों तक शिक्षक बनकर अध्यापन भी किया था। इन्होंने अपने यात्रा वृत्तांत लिखे हैं। उन यात्रा वृतान्तों से नालन्दा विश्वविद्यालय की सही-सही जानकारी मिलती है, जो अधोलिखित है –
ह्वेनसांग के समय में यहाँ दस हजार विद्यार्थी पढ़ते थे, जिन्हें लगभग दो हजार शिक्षक पढ़ाते थे। सम्पूर्ण शिक्षा निशुल्क थी। उस समय के आचार्यों में शीलभद्र, धर्मपाल, चन्द्रपाल, गुणमति व स्थिरमति प्रमुख आचार्य थे। आचार्य शीलभद्र महान विद्वान थे, आप ही कुलपति भी थे। विश्वविद्यालय का समस्त प्रबन्ध कुलपति शीलभद्र ही देखते थे। कुलपति और आचार्यों का निर्वाचन भिक्षुओं (धर्मसत्ता) के द्वारा हुआ था, राज सत्ता द्वारा नहीं। कुलपति ने अपने आचार्यों की दो परामर्शदात्री समितियाँ बनाई थीं। प्रथम समिति शिक्षा तथा पाठ्यक्रम सम्बन्धी कार्य देखती थीं और दूसरी समिति आर्थिक एवं प्रशासनिक व्यवस्थाओं की देखभाल करती थीं। यही समिति हजारों विद्यार्थियों के भोजन, कपड़े व आवास की चिन्ता करती थी। इन समितियों के साथ-साथ छात्रसंघ भी बना हुआ था। यह छात्रों का संघ छात्रावास के तीन सौ कक्षों की व्यवस्था देखता था।
राज्य व समाज की भूमिका संरक्षण की थी। राज्य की ओर से विश्वविद्यालय को दो सौ गाँव दान में मिले हुए थे। उन गाँवों के लोग प्रतिदिन दूध, दही, सब्जी, फल व अनाज अपनी बैलगाड़ियों से वहाँ पहुँचाते थे। इस प्रकार विश्व विद्यालय पूर्णरूप से स्वायत्त था। विश्वविद्यालय के सम्पूर्ण सूत्र कुलपति एवं आचार्यों के अधीन थे, समाज व राज्य का कोई हस्तक्षेप नहीं था।
उच्च शिक्षा का ऐसा स्वायत्त शिक्षा केन्द्र नौवीं सदी से लेकर बारहवीं सदी तक सम्पूर्ण विश्व में ख्याति प्राप्त था। ऐसे ख्याति प्राप्त विश्वविद्यालय को 1199 ई. में विधर्मी तुर्क आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी ने जलाकर नष्ट कर दिया। हम अपने शिक्षा केन्द्रों की रक्षा नहीं कर पाए। आज हमें ऐसे स्वायत्त विश्वविद्यालय खड़ेकर भारत को पुनःविश्वगुरु के पद पर स्थापित करना है।
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सचिव है।)
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