✍ वासुदेव प्रजापति
इतिहास को विकृत करने वाला जेम्स मिल
दूसरा प्रयत्न हुआ भारतीय इतिहास की प्राचीनता को नकारने का। इस हेतु से उन्होंने दो नये शब्द गढ़े – 1. मिथक 2. माइथोलॉजी। सभी प्राचीन ऋषि-मुनियों व महापुरुषों को यथा- मनु, पाराशर, नारद, कपिल, वसिष्ठ, विश्वामित्र और राम-कृष्ण आदि मिथक माने गए अर्थात काल्पनिक माने गए। तथा इन सबके वर्णन जिन ग्रंथों में हैं, ऐसे सभी ग्रंथों को जैसे- वेद, ब्राह्मण, आरण्यक, रामायण, महाभारत आदि ये माइथोलॉजी है कहा गया। जब ये सब कल्पना मात्र है, यथार्थ नहीं है तो ये इतिहास का हिस्सा नहीं हो सकते, यह कहकर उन्हें नकार दिया और शिक्षा की मूलधारा से हटा दिया।
एक ओर प्राचीन भारतीय वांगमय को माइथोलॉजी घोषित किया तो दूसरी ओर अपने दृष्टिकोण से भारत का नया इतिहास लिखकर यहाँ की प्राचीन धारा को मोड़ने का प्रयत्न हुआ। यह सब करने वाले ब्रिटिश इतिहासकारों का पिता माने जाने वाले जेम्स मिल ने किया। उसने ब्रिटिश भारत का इतिहास लिखा, जो भारत आने वाले प्रत्येक अंग्रेज के लिए एक मार्गदर्शक ग्रंथ माना गया। किन्तु यह ग्रंथ कितना प्रामाणिक था? इसकी सत्यता ग्रंथ की प्रस्तावना में जो बातें स्वयं मिल ने लिखी है, उनसे पता चल जाती है –
“जेम्स मिल स्वयं कभी भारत नहीं आया, इंग्लैंड में वह किसी भारतीय से नहीं मिला, उसने कभी कोई भारतीय ग्रंथ नहीं पढ़ा तथा वह किसी भारतीय भाषा से परिचित नहीं था।” ऐसे व्यक्ति ने भारत, भारतीयता और भारतीय संस्कृति का इतिहास लिखा, जो स्वयं अप्रामाणिक है। ऐसे इतिहास ने कुछ विकृतियों को जन्म दिया जो आज तक चली आ रही हैं –
- इसने इतिहास को हिन्दू, मुस्लिम व अंग्रेजी काल में बाँटकर नई विकृति को जन्म दिया।
- भारत को एक देश न मानते हुए एक उपमहाद्वीप लिखकर देश की एकता को तोड़ने का प्रयत्न किया।
- अपने लेखन में वह यह मानने को तैयार नहीं था कि भारत की किसी वस्तु का मानव सभ्यता के विकास में कोई योगदान है।
- इसके साथी इतिहासकार जॉन माल्कम ने पोलिटिकल हिस्ट्री ऑफ इंडिया में सिक्ख और मराठों को अलग नेशन बताया।
इस प्रकार जेम्स मिल व उसके साथी इतिहासकारों ने भारतीय ग्रंथों के विकृतिकरण, इतिहास की प्राचीनता नष्ट करने के प्रयत्न और भारत के पढ़े लिखे लोगों को अपनी जड़ों से काटने के प्रयत्न किए।
भारतीय शिक्षा को हटाने वाला मैकाले
थॉमस बाबिंग्टन मैकाले जन्मजात भारत विरोधी था। इसे न तो भारत के व्यक्ति अच्छे लगते थे न पैड़-पौधे, न भोजन, न भारतीय संगीत और न भारतीय साहित्य। उसकी नजर में ये सब बकवास मात्र थे। उसे तो भारतीय जीवन ही अज्ञान, अनैतिकता, अन्धविश्वासों व रूढ़ियों से ग्रस्त लगता था। उसकी भारत के ज्ञान के बारे में यह धारणा थी कि “इंग्लैंड की लाइब्रेरी की किसी अलमारी में रखी दो पुस्तकें भारत के सम्पूर्ण साहित्य से अधिक मूल्यवान हैं।” भारत का धुर विरोधी मानसिकता का व्यक्ति सन 1834 में शिक्षा प्रमुख बनकर भारत आया और 1835 में अपनी अंग्रेजी शिक्षा पद्धति यहाँ लागू की।
अपनी अंग्रेजी शिक्षा पद्धति के परिणामों के प्रति पूर्ण आश्वस्त मैकाले ने भारत में शिक्षा बोर्ड के चेयरमैन के रूप में कार्य करते हुए सन 1836 में उसने अपने पिता को पत्र में लिखा था कि “हमारे इंग्लिश मिडियम के स्कूल आश्चर्यजनक रीति से सफल हो रहे हैं। इस शिक्षा का हिन्दुओं पर विलक्षण प्रभाव है। मेरा पूर्ण विश्वास है कि यदि यह शिक्षा ऐसे ही निरन्तर चलती रही तो आज से तीस वर्ष बाद बंगाल के सम्मानित हिन्दू कूलीन घरानों में एक भी मूर्तिपूजक शेष नहीं रहेगा। धर्मान्तरण के किसी भी प्रयास के बिना और धार्मिक स्वतन्त्रता में बिना कोई बाधा पहुँचाये, इस शिक्षा मात्र से ही सब कुछ ऐसे ही हो जायेगा। इस सम्भावना का अनुमान कर ही मुझे हार्दिक आनन्द हो रहा है।” अर्थात शिक्षा के माध्यम से भारत का ईसाईकरण करना ही मैकाले का मंतव्य था। इस शिक्षा के द्वारा भारतीयों पर होने वाले परिणामों के सन्दर्भ में वह यह भी कहता है कि “हमें भारत में एक ऐसी पीढ़ी तैयार करने का प्रयत्न करना चाहिए जो – Indian in blood and colour, but English in tastes, in opinion, morals and intellect. अर्थात रक्त व रंग में तो भारतीय हो परन्तु अभिरुचि, मत, नैतिक आदर्श तथा वैचारिक धारणाओं में पूरी तरह अंग्रेज हो।” मैकाले ने भारतीयों को पूरी तरह से काले अंग्रेज बनाने की शिक्षा योजना बनाई थी।
इस अंग्रेजी शिक्षा पद्धति को सफल व स्थायी बनाए रखने के लिए मैकाले का स्पष्ट मत था कि भारत की प्राचीन शिक्षा, शिक्षा की व्यवस्था तथा शिक्षा का माध्यम भारतीय भाषाएँ ही बनी रहीं तो यह कभी सम्भव नहीं होगा। अतः इन सबको उसने बदला। अनुदान के अभाव में पुरानी पाठशालाएँ बन्द हुईं। शिक्षा के उद्देश्य बदले गए और शिक्षा का माध्यम पुरानी भाषाओं को हटाकर अंग्रेजी बना दिया गया। इस प्रकार भारत का सम्पूर्ण प्राचीन शिक्षा तंत्र, जिसे महात्मा गांधी ने “Beautiful tree” कहा था, उसे जड़-मूल से उखाड़ दिया गया। अंग्रेजी शिक्षा पद्धति के तत्त्व को समझने के लिए लार्ड मैकाले के मिनिट्स को पढ़ना चाहिए, जिसके आधार पर ब्रिटिश पार्लियामेंट ने नीतियाँ बनाई थीं।
इन नीतियों में बताया गया था कि नौकरी उसे ही मिलेगी जो अंग्रेजी माध्यम से पढ़ा होगा, जिसने विज्ञान, टेक्नोलॉजी और यूरोपीय साहित्य विषय में पढ़ाई की होगी। वही ऐकेडिमिशियन कहलायेगा, भारत के वेद-उपनिषद पढ़े हुए नहीं। ऐकेडिमिशियन को ही नौकरी मिलेगी, शास्त्री, आचार्य या विद्यावाचस्पति उपाधि वालों को नहीं। जो बी.ए. पास करता था, उसे तुरन्त नौकरी मिल जाती थी। इसी प्रकार यदि कोई विद्यार्थी भारतीय सन्दर्भों के आधार पर हमारी संस्कृति की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करता तो उसे अन्धश्रद्धा, अवैज्ञानिक, अनैतिहासिक, तर्क विरुद्ध अथवा मिथ्या कथा आदि कहकर नकार दिया जाता था। जबकि कोई दूसरा विद्यार्थी तुलनात्मक अध्ययन के नाम पर किसी प्राचीन आचार्य जैसे सायणाचार्य आदि भाष्यकारों की कमियाँ निकालता तो उसे तुरन्त पी.एच.डी. की डिग्री मिल जाती।
अंग्रेजों की नौकरी में ऊँचा वेतनमान, बढ़िया बंग्ला, प्रोफेसर का पद इस लालच ने धीरे-धीरे सारी शिक्षा को भारत के मूल सन्दर्भों से काटकर रख दिया। पढ़े-लिखे वर्ग में भारत, भारतीयता, प्राचीन जीवन मूल्यों के प्रति अज्ञान और उपहास का भाव उत्पन्न हुआ। परिणामस्वरूप अंग्रेजी पढ़ा-लिखा वर्ग जो देश का नीति-नियामक था, वह अंग्रेजी दासता रूपी रोग से ग्रसित हो गया। आज भी हमारे देश का तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग इसी दासता की मानसिकता से ग्रस्त है। जब हमारे देश को स्वतंत्रता मिली तो आशा थी कि अंग्रेजों के जाने के साथ अंग्रेजियत भी चली जायेगी। किन्तु दुर्भाग्य से वैसा नहीं हुआ। अंग्रेजों ने अपनी दूरगामी रणनीति के अन्तर्गत पं. जवाहरलाल नेहरु को देश का पहला प्रधानमंत्री बनवाया। नेहरुजी की सम्पूर्ण शिक्षा-दीक्षा इंग्लैंड में होने के कारण वे अंग्रेजियत से पूरी तरह सराबोर हो गए थे। इसे वे स्वयं मानते थे और कहते भी थे। एक बार उन्होंने अमेरिका के राजदूत “जॉन गैलब्रैथ” से कहा था कि “मैं भारत पर शासन करने वाला अंतिम अंग्रेज हूँ।” यही कारण है कि अंग्रेजों के चले जाने के बाद भी अंग्रेजियत नहीं गईं। आज भी सेक्युलरवाद के नाम पर वही पुरानी साम्राज्यवादी मैकाले की शिक्षा प्रणाली जारी थी, जिसे वर्तमान मोदी सरकार ने भारतीय बनाने का बीडा उठाया है।
मंत्र विप्लव
अंग्रेजों ने हमारे देश में वैचारिक भ्रष्टता निर्माण की। वैचारिक स्पष्टता से वैचारिक भ्रष्टता अधिक खतरनाक होती है। किसी भी देश का नाश करना हो तो शत्रु देश अनेक प्रकार के हथियार प्रयोग में लाता है। उन सभी हथियारों में ‘मंत्र विप्लव’ का हथियार सबसे अधिक घातक माना जाता है। इस हथियार को समझने के लिए हम महाभारत काल में चलते हैं। राजा धृतराष्ट्र व मंत्री विदुर वार्तालाप कर रहे थे। धृतराष्ट्र ने विदुर से पूछा, सबसे घातक हथियार कौनसा है? विदुर बताते हैं कि महाराज! यदि किसी व्यक्ति को विष की एक बूंद पिला दी जाय तो विष पीने वाला वह एक व्यक्ति ही मरेगा। यदि धनुष से एक बाण छोड़ा जाय तो वह बाण जिस व्यक्ति को लगेगा, वही एक व्यक्ति मरेगा – “एकं विष रसोहन्ति शस्त्रेणैकैव हन्यते “। परन्तु जब मंत्र विप्लव के हथियार का प्रयोग किया जाता है तब उस पूरे देश का सत्यानाश हो जाता है – “राजानम हन्ति मंत्र विप्लवः”। अर्थात मंत्र विप्लव से एक-दो व्यक्तियों का नहीं पूरे देश का ही नाश हो जाता है। यहाँ मंत्र विप्लव का अभिप्राय उस देश के व्यक्तियों के विचारों को भ्रष्ट कर देने से है। हमारे देश पर जब इसे लागू करते हैं तो ध्यान में आता है कि अंग्रेजों ने हमारे देश में मंत्र विप्लव किया। हमारी श्रेष्ठ भारतीय संस्कृति, भारतीय साहित्य व इतिहास के प्रति अनास्था खड़ी कर इस देश के व्यक्ति को काला अंग्रेज बना दिया। इस काले अंग्रेज को हमारा सब कुछ निकृष्ट और अंग्रेजों का सब श्रेष्ठ ही प्रतीत होता है। यह मंत्र विप्लव का ही परिणाम है। मंत्र विप्लव के कारण हम यह तक भूल गए कि “हम कौन थे? क्या थे? हमारे पुरखों ने विश्व को क्या-क्या दिया था? यह सब कुछ भूल गए। अब हमें इस मंत्र विप्लव से, इस वैचारिक भ्रष्टता से देश को मुक्त करना है।
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सचिव है।)
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