✍ गोपाल माहेश्वरी
वैसे तो उसका नाम भास्कर था लेकिन मित्रों में वह गणितानंद के नाम से प्रसिद्ध हो चला था। कक्षा के अधिकांश बच्चे जहाँ गणित के नाम से ही बिदकते थे वहीं प्रो. रामानुज शास्त्री का यह पुत्र गणित का भक्त था। विशेषता यह कि गणित के सूत्रों सवालों से जहाँ दूसरे छात्र उलझते उलझते परेशान हो उठते वहीं यह गणितानंद उनसे खेलता बतियाता था और मनचाहा हल निकाल लेता। उसकी गणित से मित्रता और निर्भयता का रंग अब कक्षा के बच्चों पर भी चढ़ने लगा था।
सर्दियाँ समाप्त होने को थीं। होली मनाने वह अपने पैतृक गाँव आया था। पिताजी नगर के प्रतिष्ठित कृषि महाविद्यालय में पदस्थ होते हुए भी प्रमुख त्यौहारों पर गाँव में अपने माता-पिता के पास आना न भूलते थे।
तीन बजे पहुँचने वाली उनकी रेलगाड़ी आज साढ़े चार बजे गाँव के स्टेशन पर दो मिनिट में इन्हें उतार कर चल पड़ी। स्टेशन के बाहर ही काका रामसहाय छकडा़ यानि छोटी बैलगाड़ी लिए तैयार खड़े थे। भास्कर ने उनके पैर छू कर आशीष लिए। रामसहाय ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा- “जल्दी गाड़ी पर चढ़ जाओ बबुआ! तुम्हारे दादा दादी को एक एक पल भारी हो रहा होगा मानो चौघड़िया न टल जाए।”
“हाँ, यह तो तुमने खरी कही भैया! बापू को तो अपने इस पोते से मिले बिना एक एक घड़ी, युगों-सी लगती है।” रामानुज बोले।
बैलगाड़ी की चरड़-मरड़ और बैलों के गले की घंटियों का संगीत सुनते आपसी हालचाल पूछते बातों ही बातों में गाँव आ पहुँचे।
दादा जी सामने ही चारपाई पर उनकी प्रतीक्षा में बैठे थे। दादाजी को सामने देख भास्कर उनके पैरों से लिपट गया उसे दुलार करते वृद्ध के नयन छलछला उठे। तभी अंदर से दादी की आवाज आई- “चलो सब लोग जीम लो सांझ होने को है।”
भोजन करके दादा-पोता एक ही गुदड़ी में घुसे बतियाने लगे। समय जाने कितना बीत गया पता ही नहीं चला। दादी ने रोका “डेढ़ पहर रात हो चली है अब उसे सोने भी दोगे पंडित जी! बच्चा थक गया होगा रेल के सफर में।”
“डेढ़ पहर?” भास्कर ने पूछा।
“हाँ, दस-साढे़ दस बज गए होंगे।” दादा जी ने उत्तर दिया पर दादी को तो उत्तर मिला नहीं था। वे फिर टोकते हुए बोलीं “अभी ही गप्पें लड़ाने का मुहूर्त है जो टल जाएगा?”
“उठते हैं भाई! उठते हैं। अब पोते से मिलो तो लगता है युगों बाद मिल रहा हूँ और तुम भी तो आठों जाम उसी को याद करती रहती हो।”
“हाँ दादी! अभी सोने न दूँगा। अभी तो आपको भी कहानी सुनानी होगी मुझे।” भास्कर के अनुरोध में भी बालहठ की दृढ़ता थी।
दादी बोली “अच्छा, सोते समय सुना दूँगी कहानी भी। थोड़ी देर बाद सब अंदर जाकर चारपाईयों पर पसर गए। भास्कर ने दादी से प्रह्लाद और हिरण्यकश्यपु की कहानी सुनी। दादी सुनाती रही वह आँखे मूँदे सुनता रहा। दादी जादूगर है क्या? कहानी सुनाती है या बंद पलकों में फिल्म दिखाती है! एक एक घटना साकार, जीवंत हो उठती हैं। यह बात सतयुग की है से आरंभ हुई कथा, इसीलिए फागुनी पूनम के दिन होली जलाते हैं पर भक्त प्रह्लाद की जय बोलकर पूरी हुई।
“दादी! अभी नींद नहीं आ रही है?” इसका अर्थ समझते हुए दादी ने फिर द्वापरयुग में श्रीकृष्ण जी से आरंभ होली के प्रसंग छेड़ दिए …..सुनते-सुनते भास्कर जाने कब स्वप्नलोक में होली खेलने जा पहुँचा।
भोर होते ही दादा-पोता चल पड़े अपने खेतों की ओर। दादा पोता संवाद आरंभ था। “दादाजी! मैं कल से सुन रहा हूँ ये सतयुग, द्वापरयुग, पहर, जाम …”
“पहर नहीं प्रहर, जाम नहीं याम” दादाजी ने सुधारा। “अच्छा प्रहर, याम, मुहूर्त्त, चौघड़िया, घड़ी, शुक्ल पक्ष ये सब क्या हैं?” भास्कर ने प्रश्न पूरा करते करते अपनी जेबी डायरी और कलम भी निकाल ली।
दादा जी ने उसी से पूछा “अच्छा बताओ तुम्हें समय मापना हो तो कैसे मापोगे?”
भास्कर ने क्षण भर सोचा और उत्तर दिया “घंटे, मिनिट, सेकण्ड में।”
“बस?”
“माइक्रोसेकंड में भी।”
“और लंबा समय मापना हो तब?”
“दिन, सप्ताह, महिने या वर्ष में।”
“और आगे?”
“दशक या शताब्दी।”
“बेटा जैसे यह समय मापन की इकाइयाँ हैं वैसे ही पल, क्षण, प्रहर, मुहूर्त्त, घड़ी, याम, चौघड़िया आदि भी समय की इकाइयाँ हैं। हमारे ऋषि-मुनियों ने सूर्य की स्थिति, चंद्र और पृथ्वी की चाल का प्रत्यक्ष अध्ययन करके समय की इतनी छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी इकाइयों का निर्धारण किया है कि तुम तो क्या कोई भी आश्चर्यचकित हो जाए।”
“अच्छा!!” भास्कर ने डायरी कलम खोल लिए।
“हाँ, तुम सैकण्ड से छोटी इकाई माइक्रोसैकण्ड बता रहे थे मैं उससे छोटी तेरह इकाइयाँ बता सकता हूँ।”
“क्या तेरह इकाइयाँ!!” भास्कर का मुँह खुला रह गया।
“सुनो, एक सैकण्ड ढाई त्रुटि के बराबर, ढाई त्रुटि में पाँच निमेष, निमेष यानि पलक झपकने का समय, तीन निमेष का एक क्षण और दो निमेष का एक विपल, एक निमेष में तीन लव, एक लव में तीन वेध, एक वेध में दस प्राण।” स्मरण करने के लिए दादा जी आँखें मूँद कर बोल रहे थे पल भर आँखें खोलीं तो देखा भास्कर डायरी में फटाफट लिखता जा रहा था। मुस्कुराते हुए उन्होंने अपने बोलने की गति थोड़ी कम कर ली और आगे कहने लगे “एक प्राण से दस त्रुटि, एक त्रुटि से तीन त्रसरेणु, एक त्रसरेणु तीन अणु का, एक अणु में दो परमाणु।”
“दादाजी! आप गणित से रसायन में घुस रहे हैं क्या?” भास्कर ने टोका।
“नहीं बेटा! बल्कि अणु, परमाणु गणित में भी होते हैं जैसे त्रुटि यानि बारीक सी गलती ऐसा हिंदी संस्कृत में कहा जाता है पर है तो यह समय की इकाई। बेटा विषयों में बहुत उदारता होती है वे आपस में कई बार अपनी चीजें बाँट भी लेते हैं। एक कमल के पत्ते को बबूल के तीखे काँटे से छेदने में जो समय लगता है उसे त्रुटि कहते हैं। अच्छा, यह परमाणु ही काल की सबसे छोटी इकाई है।”
“अच्छा तो समय मापने की दूसरी सीमा भी सुन लो। बीस निमेष के बराबर दस विपल अर्थात् चार सैकण्ड। पाँच क्षण की एक काष्ठा, पन्द्रह काष्ठा का एक दण्ड।”
“मैं तो दण्ड का अर्थ लाठी या सजा ही समझता था।” भास्कर चकित था।
“आगे सुनो। दो दण्ड का एक मुहूर्त्त, एक दण्ड का एक लघु, पन्द्रह लघु मिलकर एक घटी। इस घटी से ही यह घड़ी शब्द बना है, याद रखना।” लिखते लिखते ही भास्कर ने हाँ सूचक सिर हिलाया।
“एक घटी आज के चौबीस मिनट की, तुम घड़ी बनाओगे तो आज के चलन की इकाइयों का भी तालमेल बैठा सकोगे। तीन मुहूर्त्त का एक प्रहर, एक प्रहर को ही एक याम समझो, साठ घटी का एक दिन रात, चौबीस घंटे, आठ याम या प्रहर, पन्द्रह दिन-रात का एक पक्ष या पखवाड़ा।” अब भास्कर को लगा किसी अंतरिक्ष से वह धरती पर उतर रहा है दादा जी के मुँह से निकले समय की इकाई के नाम परिचित लगे। दादा जी भी यह ताड़ गए थे, बोले “दो पक्षों का?”
“एक माह” भास्कर ने तपाक् से बता दिया। इतना बता कर वह रुका नहीं बोलता गया “एक माह में तीस तिथि, पन्द्रह शुक्ल पक्ष की, पन्द्रह कृष्ण पक्ष की; शुक्लपक्ष की पूर्णिमा, कृष्ण पक्ष की अमावस्या शेष चौदह एक जैसे नाम की। बारह माह का एक वर्ष।” उत्साह में वह बोलता गया।
“रुको, रुको! बीच में चूक गए दो माह की एक ऋतु, तीन ऋतुओं की एक छःमाही, एक छःमाही यानि एक अयन, दो अयन का एक संवत्सर।”
भास्कर फिर बोल पड़ा “यानि एक वर्ष। दो अयन उत्तरायण और दक्षिणायन। दस वर्ष का एक दशक, दस दशक यानि सौ वर्षों की शताब्दी, दस शताब्दी की ..की..” वह याद करने लगा।
दादा जी ने सहायता की “स ..सह..”
“सहस्राब्दी” वह उत्साह में चिल्लाता-सा बोला।
“ ठीक, आगे सुनो जो तुम नहीं जानते होंगे।”
भास्कर की कलम लिखने को फिर तैयार हो गई।
दादा जी बोलने लगे “तीन सौ साठ वर्षों का एक दिव्य वर्ष या देव वर्ष। ऐसे चार हजार देववर्ष में चार सौ-चार सौ वर्षों का संधिकाल या संध्याकाल जोड़े तो होता है सतयुग। बताओ सतयुग में मनुष्यों के कितने वर्ष?”
गणितानंद भास्कर ने तुरंत जोड़ कर बताया सत्रह लाख अट्ठाइस हजार वर्ष।”
“ऐसे ही त्रेता, द्वापर और कलियुग क्रमशः तीन हजार, दो हजार और एक हजार दिव्यवर्षों के जिनमें तीन सौ-तीन सौ, दो सौ-दो सौ और एक सौ-एक सौ वर्षों का युग संध्याकाल जोडे़ तो..?”
गणितानंद तैयार था “त्रेतायुग बारह लाख छियानवे हजार वर्ष, द्वापरयुग आठ लाख चौंसठ हजार वर्ष और कलियुग चार लाख बत्तीसहजार वर्ष का, मानव वर्ष के अनुसार।”
दादा जी ने उसकी पीठ ठोक कर शाबासी दी बिना केलक्यूलेटर इतना जोड़ गुणा आज के बच्चे कर लें यह सुखद आश्चर्य ही था पर वे जानते थे उनका पोता वैदिक गणित जानता है। बात आगे बढ़ाते हुए उन्होंने और बताया “चार युगों की एक चतुर्युगी।”
“तिरयालीस लाख बीस हजार मानव वर्ष…….बस”
“यह एक चतुर्युगी यानि एक महायुग। इकहत्तर दशमलव चार तीन युग का एक मन्वन्तर। ऐसे एक हजार महायुग का एक कल्प यानि ब्रह्मा का एक दिन और इतनी ही एक रात। ऐसे तीन सौ साठ कल्प, ब्रह्मा का एक वर्ष। ब्रह्मा के सौ वर्ष यानि विष्णु का एक निमेष, विष्णु के भी सौ वर्ष रुद्र का एक दिन। कितने मानव वर्ष हुए?” दादा जी ने हँसते हुए कहा। भास्कर के लिए अब जोड़ना सरल न था। वह डायरी पर प्रयास करने लगा तो दादा जी ने रोका “तुम्हारी यह छोटी डायरी इतनी बड़ी संख्या कैसे सम्हालेगी बेटे! रहने दो, फिर जोड़ना। आओ घर चलें।”
“ठीक है दादा जी! पर अभी हम समय की रेखा पर हैं कहाँ?” भास्कर ने पूछ ही लिया।
“वर्तमान ईस्वी सन 2023 में कलियुग के पाँच हजार एक सौ चौबीस वर्ष हुए हैं और इस वर्षप्रतिपदा से विक्रम संवत् होगा दो हजार अस्सी। बस आज इतना ही बाकी फिर कभी।”
लौटते समय रेलगाड़ी में सारे रास्ते छोटी जेबी डायरी पर अनेक गणित हल होते रहे। जैसे एक मुहर्त्त में कितने मिनिट एक दिन में कितने याम, एक चौघड़िया याने चार घड़ी में कितना समय। एक सतयुग मे कितने कलियुग समा सकते हैं आदि आदि।
क्या आप भी बनेंगे थोड़े बहुत गणितानंद?
(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक है।)