भारतीय ज्ञान का खजाना-24 (प्राचीन भारतीय ज्ञानपीठ)

✍ प्रशांत पोळ

ईसवी सन् की दसवीं शताब्दी में, अर्थात् ई.स. 1000 में, भारत विश्व की सबसे बड़ी आर्थिक महाशक्ति था। प्रोफेसर अंगस मेडिसन ने लिखा है कि उस कालखंड में वैश्विक व्यापार में भारत का हिस्सा 29 प्रतिशत से भी अधिक था (आजकल विश्व व्यापार में 14.4 प्रतिशत का हिस्सा रखने वाला चीन पहले क्रमांक पर है, अर्थात् इस संबंध में भारत का रिकॉर्ड अभी तक कोई देश नहीं तोड़ सका है) ‘बेरेनिके परियोजना’ जैसे अनेक स्थानों से हमें भारत के तत्कालीन वैश्विक व्यापार के अनेक प्रत्यक्ष प्रमाण मिलते हैं।

इसका अर्थ यह है कि उस कालखंड में भारत जबरदस्त निर्यात क्षमता रखता था। भारत से आने वाले माल से केवल कमीशन प्राप्त करके ही यूरोप के अनेक शहर समृद्ध होते जा रहे थे’, यह बात स्वयं यूरोपियन इतिहासकारों ने लिखी हुई है।

जाहिर है कि उस कालखंड में भारत के पास उस क्षमता के मनुष्य, वैज्ञानिक, मजदूर, उद्यमी, व्यापारी, शोधकर्ता निश्चित ही रहे होंगे, जिनके कारण भारत ने विश्व व्यापार में यह स्थान प्राप्त किया था। ऐसे में सवाल उठता है कि जब ऐसे कुशल व्यक्ति उन दिनों भारत में थे, तो ये व्यक्ति कहाँ और कैसे तैयार किए जाते थे? उनके प्रशिक्षण और शिक्षा की क्या व्यवस्था थी?

अंग्रेज इतिहासकारों ने भारत के बारे में स्वयं की ऐसी छवि निर्माण की है, मानो उन्होंने ही भारत में शिक्षा पद्धति लागू की हो, स्कूल निर्माण किए हों, कॉलेज बनाए हों, इत्यादि। यह अफवाह और झूठी मान्यता भी समाज में बड़े पैमाने पर प्रसारित की गई है कि अंग्रेजों के यहाँ आने से पहले भारत में केवल संस्कृत भाषा और पुरोहित बनने की शिक्षा दी जाती थी। साथ ही यह भ्रम और सफेद झूठ भी फैलाया गया है कि अंग्रेजों के आने से पहले केवल ब्राह्मणों एवं केवल पुरुषों को ही शिक्षा उपलब्ध थी। दुर्भाग्य से कुछ भारतीय इतिहासकारों एवं समाज में काम करने वाले तथाकथित स्यूडो-सेक्यूलर लोगों ने भी इतिहास का अध्ययन किए बिना अंग्रेजों की हाँ में हाँ मिलाई। अंग्रेजों द्वारा फैलाया गया यह झूठ, यदि सच होता तो वैश्विक व्यापार में भारत का हिस्सा एक-तिहाई कैसे हो सकता था, इस बारे में कोई कुछ नहीं कहता!

बहरहाल, इतिहास का एक-एक तथ्य देखते हुए जब हम आगे बढ़ते हैं तो भारत का जो चित्र दिखाई देता है, वह एकदम अलग, भव्य एवं गर्व करने लायक है। अंग्रेजों एवं मुसलिम आक्रांताओं के आने से पहले भारत में जो शिक्षा पद्धति थी, उसका मुकाबला संपूर्ण संसार में कहीं भी नहीं दिखाई देता। अत्यधिक व्यवस्थित पद्धति से रची गई यह भारतीय शिक्षा व्यवस्था सभी आवश्यक क्षेत्रों में ज्ञान एवं प्रशिक्षण प्रदान करती थी।

विश्व का पहला विश्वविद्यालय (यूनिवर्सिटी) भारत में प्रारंभ हुआ, यह बात कितने लोगों को पता है? उन दिनों भारत में ‘अनपढ़’ जैसा कोई शब्द प्रचलन में ही नहीं था, इस बात से भी अनेक लोग अनजान हैं। आज हमारे बच्चे पढ़ाई करने विभिन्न देशों में जाते हैं, परंतु उस समय विभिन्न देशों के बच्चे पढ़ने के लिए भारत आते थे। एक भी भारतीय युवा उन दिनों विदेश पढ़ने नहीं जाता था, यह बात भी कितने लोग जानते हैं?

प्रख्यात सूफी संगीतकार, गायक, कवि और कव्वाली विधा के जनक अमीर खुसरो (सन् 1252-1325) तत्कालीन भारतीय विश्वविद्यालय देखने के लिए आए थे। उन दिनों मुसलिम आक्रांताओं का आक्रमण भारत में स्थायी होकर ये आक्रांता यहाँ बसने लगे थे। स्वाभाविक है कि वह कालखंड भारतीय विद्यापीठों का पतनकाल था; परंतु फिर भी अमीर खुसरो ने भारतीय शिक्षा पद्धति एवं यहाँ के विश्वविद्यालयों के बारे में जो लिखा है, वह जबरदस्त है। खुसरो ने भारतीय शिक्षा पद्धति की खुलकर प्रशंसा की है।

‘हारून अल रशीद’ नामक अरबी कथाओं का चमत्कारी नायक तो बहुत पहले हुआ था, अर्थात् सन् 754 से सन् 849 के कालखंड में। इस हारुन अल रशीद और अरबी सुल्तान अल मंसूर ने भारतीय विश्वविद्यालयों से प्रतिभाशाली युवाओं को लाने के लिए अपने विशेष दूत भेजे थे। इसके अनेक प्रमाण मिलते हैं। इसे हम ‘विश्व के इतिहास का पहला कैंपस इंटरव्यू’ कह सकते हैं, लगभग 1200 वर्ष पूर्व।

मुस्लिम आक्रांताओं के भारत आने से पहले भारत में परिपूर्ण शिक्षा प्रणाली काम कर रही थी। इस संदर्भ में अनेक सबूत एवं तथ्य उपलब्ध हैं। लड़कों लड़कियों को साधारणतः आठ वर्ष की आयु तक घर पर ही शिक्षा दी जाती थी। आठवें वर्ष में लड़कों का उपनयन संस्कार करके उन्हें गुरु के पास अथवा गुरुकुल में भेजने की परंपरा थी। यहाँ पर ‘गुरु’ शब्द का अर्थ केवल संस्कृत भाषा की शिक्षा देने वाले ऋषि नहीं होता था, बल्कि ‘गुरु’ अपने किसी विशिष्ट क्षेत्र का दिग्गज विद्वान होता था। समुद्र किनारे रहने वाले कई परिवारों के बच्चे जहाज निर्माण करने वाले अपने ‘गुरु’ के पास रहकर जहाज निर्माण की प्रत्यक्ष शिक्षा ग्रहण करते थे। यही परंपरा धनुर्विद्या, मल्लविद्या, लुहारी, वास्तुविद्या जैसी भिन्न-भिन्न कलाओं को सीखने के बारे में भी लागू थी। अगले 8-10 वर्षों तक गुरु के यहाँ शिक्षा ग्रहण करने के बाद इनमें से कुछ विद्यार्थी उच्च शिक्षा के लिए विश्वविद्यालयों में जाते थे। इन विश्वविद्यालयों में विभिन्न शास्त्रों एवं कलाओं को सिखाने की व्यवस्था थी। आगे चलकर मुस्लिम आक्रांताओं ने कई विश्वविद्यालयों को नष्ट कर दिया। इस कारण ई. सन् 1200-1300 के बाद इन विश्वविद्यालयों का अस्तित्व समाप्त हो गया, परंतु फिर भी गुरु के घर या आश्रम में रहकर शिक्षा ग्रहण करने की परंपरा बनी रही।

इन इस्लामिक आक्रमणों से पहले के कालखंड में स्त्रियों को भी उच्च शिक्षा की पद्धति एवं परंपरा हुआ करती थी। ऋग्वेद में स्त्री शिक्षा के बारे में कई उल्लेख मिलते हैं। प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण करने वाली स्त्रियों को ‘ऋषिका’ एवं उच्च शिक्षित स्त्रियों को ‘ब्रह्मवादिनी’ कहा जाता था। ऋग्वेद में ऐसी ऋषिकाएँ एवं ब्रह्मवादिनी स्त्रियों के नाम भी दिए गए हैं, जैसे- रोमासा, लोपामुद्रा, अपला, कद्रू, घोष, जुहू, वागांध्रिनी, पौलोमी, जरिता, श्रद्धा, कामायनी, उर्वशी, सारंगा, यमी, इंद्रायणी, सावित्री, देवाजयी, नोधा, सिकातनबावरी, अक्रीष्टभाषा, गौपयना इत्यादि।

पाणिनी ने अपने ग्रंथ में लड़कियों की शिक्षा के बारे में लिखा है। कन्याओं के लिए वसतिगृह (होस्टल) भी बनाए जाते थे। इसके लिए पाणिनी ने ‘छत्रीशाला’ शब्द का उपयोग किया है। उपनिषद् कालखंड में गार्गी और मैत्रेयी नामक विदुषियों का उल्लेख मिलता है। कुल मिलाकर बात यह है कि मुस्लिम आक्रांताओं के आने से पहले भारत में स्त्री शिक्षा का स्तर बहुत ऊँचा था। स्त्रियाँ समाज में मुक्त व्यवहार के साथ घुल-मिल जाती थीं।

शिक्षकों अथवा गुरुओं की महान परंपरा थी, जो कई शताब्दियों से निरंतर प्राचीन भारतीय ज्ञानपीठ चली आ रही थी। आचार्य/ उपाध्याय/चरक/गुरु/योजनासातिका/शिक्षक, इस प्रकार की भिन्न-भिन्न उपाधियाँ गुरुओं के लिए हुआ करती थीं।

विश्वविद्यालयों में शिक्षण सत्र प्रारंभ होने तथा सत्र समाप्त होने के समय बड़ा उत्सव होता था। सत्रारंभ उत्सव को ‘उपकर्णमन’ एवं सत्र समापन के पश्चात् होने वाले उत्सव को ‘उत्सर्ग’ कहा जाता था। उपाधि (डिग्री) प्रदान किए जाने वाला उत्सव (जिसे हम ग्रैजुएशन सेरेमनी कहते हैं), को ‘समवर्तना’ कहा जाता था। छुट्टियों के लिए ‘अनध्याय’ शब्द उपयोग किया जाता था। वर्ष भर में प्रमुख अनध्याय इस प्रकार होते थे – महीने में दोनों अष्टमी, दोनों चतुर्दशी, अमावस्या, पूर्णिमा एवं चातुर्मास का अंतिम दिन। इन नियमित अनध्यायों के अलावा नैमित्तिक अनध्याय भी होते थे, अर्थात् आज के समय जैसी ‘रविवार की छुट्टी’ जैसा कोई प्रावधान नहीं था। मजे की बात यह है कि भारतीय संस्कृति का प्रसार जिन दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों, जैसे लाओस, कंबोडिया, जावा-सुमात्रा (इंडोनेशिया), सयाम (थाईलैंड) इत्यादि में हुआ, वहाँ भी कुछ वर्षों पहले तक अनध्याय (छुट्टियाँ) के दिन प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति के समान ही होते थे।

तक्षशिला विद्यापीठ

तक्षशिला को विश्व का प्रथम विश्वविद्यालय माना जाता है। वर्तमान पाकिस्तान में रावलपिंडी से 18 मील दूर स्थित यह विश्वविद्यालय ईसा पूर्व 700 में स्थापित किया गया था। आगे चलकर ईसा पूर्व 455 में पूर्वी यूरोप के आक्रमणकारियों, अर्थात् ‘हूणों’ ने इसे नष्ट कर दिया। विश्व स्तर पर प्रसिद्धि प्राप्त इस विश्वविद्यालय ने लगभग 1200 वर्षों तक ज्ञान-दान का महान् कार्य किया। यहाँ पर श्रेष्ठ आचार्यों की परंपरा निर्माण हुई। अनेक विश्वप्रसिद्ध विद्यार्थी यहाँ से पढ़कर निकले।

तक्षशिला विश्वविद्यालय के बंद हो जाने के पश्चात् मगध राज्य (वर्तमान बिहार) में नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। यह दोनों नामी-गिरामी विश्वविद्यालय कभी भी एक साथ कार्यरत नहीं रहे।

ऐसा कहा जाता है कि तक्षशिला नगरी की स्थापना राजा भरत ने अपने ‘तक्ष’ के नाम पर की। आगे चलकर इसी नगरी में विश्वविद्यालय स्थापित हुआ। जातक कथाओं में तक्षशिला विश्वविद्यालय के बारे में काफी जानकारी प्राप्त होती है। इन कथाओं में 105 स्थानों पर तक्षशिला का संदर्भ मिलता है। उस कालखंड में, अर्थात् लगभग एक हजार वर्षों तक, तक्षशिला संपूर्ण अखंड भारत की बौद्धिक राजधानी हुआ करती थी। इसकी यही ख्याति सुनकर ‘चाणक्य’ जैसा व्यक्ति मगध (बिहार) से इतनी दूर तक्षशिला पहुँचा। बौद्ध ग्रंथ ‘सुसीमजातक’ एवं ‘तेलपत्त’ में काशी से तक्षशिला की दूरी 2000 कोस बताई गई है।

ईसा पूर्व 500 वर्ष पहले, जब दुनिया में कहीं भी चिकित्सा शास्त्रका नाम तक नहीं था, उस समय तक्षशिला विश्वविद्यालय को चिकित्सा शास्त्र का भव्यतम केंद्र माना जाता था। यहाँ पर 60 से अधिक विषय पढ़ाए जाते थे। इस विश्वविद्यालय में एक ही समय पर 10,500 विद्यार्थियों के लिए शिक्षा की व्यवस्था उपलब्ध थी।

तक्षशिला विश्वविद्यालय से निकले प्रतिभाशाली विद्यार्थियों की एक लंबी परंपरा है-

  • इस विश्वविद्यालय की स्थापना के बाद अर्थात् ईसा पूर्व 700 में यहाँ से पढ़कर निकले सबसे पहले प्रसिद्ध विद्यार्थी, अर्थात् पाणिनी, जिन्होंने संस्कृत का व्याकरण तैयार किया।
  • ईसा पूर्व सन् 600 में चिकित्साशास्त्र की पढ़ाई करके निकले ‘जीवक’ (अथवा जिबाका) आगे जाकर मगध राजवंश के राजवैद्य बने, इन्होंने भी अनेक ग्रंथ लिखे।
  • ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में अर्थशास्त्र का विद्यार्थी ‘चाणक्य’, जो आगे जाकर ‘कौटिल्य’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

चीनी यात्री एवं विद्यार्थी ‘फाह्यान’ भी सन् 405 में तक्षशिला विश्वविद्यालय में आया। यह कालखंड इस विश्वविद्यालय का पतन काल था। पश्चिमी देशों से होने वाले आक्रमणों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही थी। पढ़ाने वाले अनेक आचार्य तक्षशिला छोड़कर चले गए। स्वाभाविक है कि फाह्यान को यहाँ पर कोई विशेष ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ। ऐसा उसने अपनी यात्रा-पुस्तक में लिखा भी है। आगे चलकर प्राचीन भारतीय ज्ञानपीठ सातवीं शताब्दी में तक्षशिला का वर्णन सुनकर एक और चीनी यात्री ‘युवान च्वांग’ यहाँ पहुँचा, परंतु तब उसे यहाँ पर पढ़ाई अथवा अभ्यास संबंधी किसी भी गतिविधि के चिह्न तक नहीं मिले।

नालंदा विश्वविद्यालय

हूण आक्रांताओं ने जिस समय तक्षशिला विद्यापीठ को ध्वस्त किया, लगभग उसी कालखंड में तत्कालीन मगध साम्राज्य में नालंदा विश्वविद्यालय की नींव रखी जा रही थी। मगध में महाराज ‘शकादित्य’ (अर्थात् गुप्तवंशीय सम्राट् कुमारगुप्त : सन् 415 से 455) ने अपने अल्पकालिक शासन में नालंदा नामक स्थान पर विश्वविद्यालय को विकसित किया। आरंभ में इस विश्वविद्यालय का नाम ‘नलविहार’ था। सन् 1199 में बख्तियार खिलजी द्वारा इस विश्वविद्यालय को पूर्णतः जलाए जाने तक, अर्थात् लगभग सात सौ वर्षों तक यह विश्व का सर्वोत्तम विश्वविद्यालय बना रहा।

नालंदा विश्वविद्यालय में प्रवेश हेतु कठोर परीक्षा ली जाती थी। यहाँ पर अनेक दुर्लभ एवं अनमोल ग्रंथों का बड़ा भारी संग्रह था। चीनी यात्री ‘ह्वेन सांग’ ने यहाँ पर दस वर्ष तक पढ़ाई की। उसके गुरु शीलभद्र असम से थे। हेन सांग ने इस विश्वविद्यालय के बारे में अपने ढेर सारे लेखन में बहुत प्रशंसा की है। नालंदा विश्वविद्यालय अनेक इमारतों का एक संकुल था। इनमें प्रमुख भवनों के नाम इस प्रकार थे – रत्नसागर, रत्नोदधि एवं रत्नरंजक। सबसे बड़े और ऊँचे प्रशासनिक भवन का नाम था – मान मंदिर।

विक्रमशिला विद्यापीठ

आठवीं शताब्दी में बंगाल के पालवंशीय राजा धर्मपालन ने इस विश्वविद्यालय की स्थापना वर्तमान बिहार में की थी। इस विश्वविद्यालय के अंतर्गत 6 विद्यालय थे। प्रत्येक विद्यालय में 108 शिक्षक थे। दसवीं शताब्दी के प्रसिद्ध तिब्बती लेखक तारानाथ ने इस विश्वविद्यालय का विस्तार से वर्णन किया है। इस विश्वविद्यालय के प्रत्येक द्वार पर एक-एक प्रमुख आचार्य नियुक्त थे। ये आचार्य सभी नए प्रवेश करने वाले विद्यार्थियों की कड़ी परीक्षा लेते थे। इनकी परीक्षा में उत्तीर्ण होने के बाद ही विद्यार्थियों को यहाँ प्रवेश मिलता था। यह आचार्य थे – पूर्व द्वार : पंडित रत्नाकर शास्त्री, पश्चिम द्वार : वर्गाश्वर कीर्ति, उत्तरी द्वार: नारोपंत एवं दक्षिण द्वार : प्रज्ञाकर मित्रा। इनमें से नारोपंत महाराष्ट्र से आए थे। आचार्य दीपक इस विक्रमशिला विश्वविद्यालय के सर्वाधिक प्रसिद्ध प्राचार्य हुए हैं।

बारहवीं शताब्दी में यहाँ पर 3000 विद्यार्थी पढ़ाई करते थे। जबकि यह प्राचीन भारतीय ज्ञानपीठ कालखंड इस विश्वविद्यालय का पतन काल था। पूर्वी एवं दक्षिण दिशा में मुसलिम आक्रांता पहुँचने लगे थे और ज्ञान-विद्या के जो भी साधन एवं स्थान उन्हें मिलते थे, उन्हें वे ध्वस्त करते जा रहे थे। इसीलिए उत्खनन द्वारा इस विश्वविद्यालय के जो अवशेष प्राप्त हुए हैं, उनसे पता चलता है कि विश्वविद्यालय में एक बड़ा सभागार था, जिसमें 8000 लोगों के बैठने की व्यवस्था थी।

इस विश्वविद्यालय के विदेशी छात्रों में सबसे अधिक संख्या तिब्बती छात्रों की थी। उसका एक प्रमुख कारण यह था कि यह बौद्ध धर्म के ‘वज्रयान’ संप्रदाय की पढ़ाई का महत्त्वपूर्ण एवं अधिकृत केंद्र था। नालंदा विश्वविद्यालय को जलाने के लगभग छह वर्षों पश्चात् उसी बख्तियार खिलजी ने इस विश्वविद्यालय को भी जला दिया।

उड्डयंतपुर विश्वविद्यालय

पाल वंश की स्थापना करने वाले राजा गोपाल ने इस विश्वविद्यालय की स्थापना एक बौद्ध विहार के रूप में की थी। इस विश्वविद्यालय के विशाल भवनों को देखकर बख्तियार खिलजी को लगा कि यह कोई बड़ा किला है। इसलिए उसने इस पर भी आक्रमण किया, परंतु समय पर कोई सैन्य मदद नहीं मिल सकी, इस कारण केवल विद्यार्थियों और आचार्यों ने खिलजी से कड़ा मुकाबला किया, परंतु अंततः सभी-के-सभी मारे गए।

सुलोटगी विश्वविद्यालय

कर्नाटक के बीजापुर जिले में यह महत्त्वपूर्ण विश्वविद्यालय ग्यारहवीं शताब्दी में स्थापित किया गया था। राष्ट्रकूटों के शासनकाल में कृष्णदेव (तृतीय) राजा के मंत्री नारायण ने इस विद्यापीठ का निर्माण किया, परंतु इसके लोकप्रिय होने से पहले ही मुसलिम आक्रांताओं ने इस पर कब्जा करके इसे ध्वस्त कर दिया।

इस विश्वविद्यालय के अंतर्गत आने वाला पविट्टागे संस्कृत महाविद्यालय अल्प अवधि में ही संस्कृत शिक्षा के लिए चर्चित हो गया था। देश भर से चुनिंदा 200 मेधावी विद्यार्थियों को भोजन एवं निवास सहित शिक्षा प्रदान करने वाला यह विश्वविद्यालय विशिष्टताओं से भरा था।

सोमपुर महाविहार

वर्तमान बांग्लादेश के नौगाँव जिले के बादलगाजी तहसील के पहाड़पुर गाँव में इसे बौद्ध महाविहार के रूप में स्थापित किया गया था, जो आगे चलकर विश्वविद्यालय में परिवर्तित हो गया। पाल वंश के दूसरे राजा धर्मपाल देव ने आठवीं शताब्दी के अंत में इस विहार का निर्माण किया था। इसकी रचना ऐसी थी कि इसे सहज ही विश्व का सबसे बड़ा बौद्ध विहार कहा जाता था। चीन तिब्बत/मलेशिया/ जावा / सुमात्रा के अनेक विद्यार्थी यहाँ शिक्षा ग्रहण करने आते थे। दसवीं शताब्दी के प्रसिद्ध विद्वान् अतीश दीपशंकर श्रीज्ञान इसी विश्वविद्यालय के आचार्य थे।

रत्नागिरी विश्वविद्यालय, ओडिशा

छठी शताब्दी में इसकी स्थापना बौद्ध विहार के रूप में हुई, लेकिन आगे चलकर यह स्थान शिक्षा का प्रमुख केंद्र बन गया। तिब्बत से अनेक विद्यार्थी यहाँ पढ़ाई करके वापस गए। तिब्बती इतिहास में इस विश्वविद्यालय का उल्लेख ‘कालचक्र तंत्र का विकास करने वाला विश्वविद्यालय’ के रूप में किया गया है, क्योंकि यहाँ पर खगोलशास्त्र का गहन अध्यापन किया जाता था।

रत्नागिरी विश्वविद्यालय के वैभवशाली अवशेष प्राचीन भारतीय ज्ञानपीठ अखंड भारत के कोने-कोने में शिक्षा के ऐसे अनेक केंद्र स्थापित थे। छोटे-छोटे तो न जाने कितने ही विद्या केंद्र थे। जबलपुर के भेड़ाघाट में चौंसठ योगिनी का मंदिर। इस मंदिर को ‘गोलकी मठ’ भी कहा जाता हैं। इस गोलकी मठ का उल्लेख ‘मलकापुर पिलर’ के रूप में किए जाने का उल्लेख पुरातत्त्व की खुदाई में मिला है।

‘मटमायुर वंश’ कलचुरी वंश में से ही निकला है। इस वंश के युवराज देव (प्रथम) ने इस मठ की स्थापना की थी। मूलतः यह मठ तांत्रिक विद्याओं एवं संबंधित विषय का विश्वविद्यालय था। इस ‘गोलकी मठ’ के अर्थात् विश्वविद्यालय के अधीन अनेक विद्यालय आंध्र प्रदेश में भी स्थित थे।

बंगाल में ‘जगद्दल’, आंध्र प्रदेश का ‘नागार्जुन कोंडा’, कश्मीर का ‘शारदापीठ’, तमिलनाडु का ‘कांचीपुरम्’, ओडिशा में स्थित ‘पुष्पगिरी’, उत्तर प्रदेश स्थित ‘वाराणसी’ ऐसे कितने नाम लिए जाएँ? ये सभी स्थान ज्ञान मंदिर थे, ज्ञानपीठ थे। सुदूर वनवासी (और वर्तमान भाषा में कहें तो पिछड़े) इलाकों में भी यह शिक्षा सभी के लिए सुलभ थी। संस्कृत केवल राजभाषा ही नहीं, वरन् लोकभाषा भी थी। पुरुषपुर (वर्तमान पेशावर) से लेकर कंबोडिया, लाओस, जावा-सुमात्रा तक यही संस्कृत भाषा चलती थी। ईसा पूर्व सौ-दो सौ वर्ष से लेकर ग्यारहवीं शताब्दी तक इस संपूर्ण भू-भाग पर संस्कृत भाषा को राजभाषा एवं लोकभाषा के रूप में मान्यता प्राप्त थी । भारतीय विश्वविद्यालयों की कीर्ति समूचे विश्व में फैली हुई थी। शिक्षा के क्षेत्र में भारत सर्वोच्च स्थान पर विराजित था, इसीलिए व्यापार में भी सर्वोच्च था।

ये सारी बातें आज हमें किसी कहानी जैसी लगती हैं। परंतु एक हजार वर्ष के मुस्लिम और अंग्रेजी शासन के कारण अपना समृद्ध ज्ञान तो हम भूल ही चुके हैं, साथ ही शिक्षा के क्षेत्र में भी पूरी तरह पिछड़ गए हैं और पश्चिम की नकल करने लगे हैं।

भारतीय शिक्षा की समृद्ध विरासत को स्मरण करने के लिए हमें पाश्चात्य चिंतकों एवं शोधकर्ताओं की सहायता लेनी पड़ती है, यह हमारी त्रासदी ही है!

और पढ़ें : भारतीय ज्ञान का खजाना-23 (कटपयादी संख्या का रहस्य)

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