हिंदी साहित्यकार फादर कामिल बुल्के

 – डॉ. मीरा कुमारी

कामिल बुल्के का योगदान भारतीय साहित्यशास्त्र के क्षेत्र में महत्वपूर्ण है और उन्होंने भारतीय साहित्य और संस्कृति के प्रति अपनी गहरी रुचि और समझ को बढ़ावा दिया। वे एक कैथोलिक पैदाईशी पादरी थे इसलिए अपनी प्रारंभिक शिक्षा बेल्जियम में पूरी करने के पश्चात कैथोलिक पादरी बनने का निर्णय लिया। एक मशीही प्रेमिक और साहित्यशास्त्री होने के साथ वे बहुभाषाविद भी थे। उन्होंने भारतीय धर्म, भाषा, और साहित्य का अध्ययन करते समय उस पर गहरी रुचि रखी और उन साहित्यों की व्याख्या को अपने अद्वितीय दृष्टिकोण से अभिव्यक्त किया। उन्होंने भारतीय धार्मिक और दार्शनिक विचारों को भी अपने अध्ययन का हिस्सा बनाया और उनके लेखन का मुख्य उद्देश्य भारतीय साहित्य की गहराईयों को समझना और प्रस्तुत करना था।

फादर कामिल बुल्के बेल्जियम के रहने वाले थे। वे भारतीय भाषा, साहित्य एवं संस्कृति के सच्चे साधक भी थे। उनके भारतीय भाषा साहित्य और संस्कृति के प्रति समर्पण के भाव को उनकी वाणी से ही समझा जा सकता है। उन्होंने कहा था- “मैं मातृभाषा प्रेम के संस्कार के साथ वर्ष 1935 में रांची पहुंचा और मुझे जानकर दु:ख हुआ कि भारत पर न केवल अंग्रेजों का, बल्कि अंग्रेजी का भी नियंत्रण है। उत्तर भारत का माध्यम वर्ग, मेरे देश की तरह, अपनी मातृभाषा पर एक विदेशी भाषा को महत्व देता है। नतीजतन, मैंने पंडित के रूप में अपना कैरियर बनाने का फैसला किया।”

फ़ादर कामिल बुल्के एक ऐसे विद्वान हैं जिन्हें अंग्रेजी हिंदी कोशके लेखक के रूप में, हिंदी के विद्वान के रूप में और समाजसेवी के रूप में ख्याति प्राप्त है। ये भारतीय संस्कृति और हिंदी से जीवन भर प्यार करते रहे, वह भी एक विदेशी होकर नहीं बल्कि एक भारतीय होकर। फादर कामिल बुलके बेल्जियम में जन्मे मगर अपनी कर्मस्थली झारखंड की राजधानी राँची को बनाई। रांची स्थित सेंट जेवियर्स कॉलेज में बुल्के ने वर्षों तक हिंदी का अध्यापन किया।

वर्ष 1935 में वे भारत पहुँचे जहाँ पर उनकी जीवन यात्रा का एक नया दौर शुरू हुआ। प्रारम्भ में उन्होंने दार्जिलिंग के संत जोसेफ कॉलेज और गुमला के एक मिशनरी स्कूल में विज्ञान विषय के शिक्षक के रूप में काम करना शुरू किया लेकिन कुछ ही दिनों में उन्होंने महसूस किया कि जैसे बेल्जियम में मातृभाषा फ्लेमिश की उपेक्षा और फ्रेंच का वर्चस्व था, वैसी ही स्थिति भारत में थी जहाँ हिंदी उपेक्षित थी और अंग्रेजी का बोलबाला था।

भारत की साहित्य और संस्कृति से प्रभावित होकर उन्होंने हिन्दी सीखने का प्राण लिया। हिन्दी सीखने के लिए वे अपने ही विद्यालय में हिन्दी कक्षा के दौरान सबसे पीछे वाली बेंच में बैठा करते और हिन्दी की पढ़ाई करते। वर्ष 1947 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से उन्होंने हिंदी साहित्य में एम.ए. किया और फिर वहीं से 1949 में ‘रामकथा के विकास’ विषय पर पीएचडी किया जो बाद में ‘रामकथा: उत्पत्ति और विकास’ पुस्तक के रूप में चर्चित हुई। राँची स्थित सेंट जेवियर्स कॉलेज के हिंदी विभाग में वर्ष 1950 में उनकी नियुक्ति विभागाध्यक्ष पद पर हुई। इसी वर्ष उन्होंने भारत की नागरिकता ली। वर्ष 1968 में अंग्रेजी-हिंदी कोश प्रकाशित हुआ जो अब तक प्रकाशित कोशों में सबसे अधिक प्रामाणिक माना जाता है। मॉरिस मेटरलिंक के प्रसिद्ध नाटक ‘द ब्लू बर्ड’ का ‘नील पंछी’ नाम से बुल्के ने अनुवाद किया। इसके अलावा उन्होंने बाइबिल का हिंदी में अनुवाद किया। छोटी-बड़ी कुल मिलाकर उन्होंने लगभग 29 पुस्तकें लिखी। भारत सरकार ने 1974 में उन्हें पद्मभूषण सम्मानित किया।

फादर बुल्के का व्यक्तित्व एकदम प्रभावशाली था। गोरा रंग, नीली आंखें, सफेद झाई मारती हुई भूरी दाढ़ी, लंबा कद, सफेद चोगे में सज्ज देवदारू के समान प्रतीत होते थे। वे निष्काम कर्मयोगी थे। वे विदेशी होते हुए भी भारतीय संन्यासी थे। मानवीय करुणा के अवतार थे। उनमें वात्सल्य और ममता की भावनाएं कूट-कूट कर भरी थी। अपने प्रियजनों के प्रति आत्मीयता का भाव रखते थे। वे समाज में रहकर लोगों के पारिवारिक उत्सवों में शामिल होते, उन्हें आशीर्वाद देते। वे किसी को दुःखी नहीं देख सकते थे, कभी किसी पर क्रोध नहीं करते थे। सदा दूसरों के लिए करुणा और दया का भाव रहता। इस तरह से फादर बुल्के सच में मानवीय करुणा के अवतार थे।

कामिल बुल्के एक बेल्जियमी प्रेसी पादरी और भारतीय साहित्यशास्त्री थे जिन्होंने अपने जीवन के दौरान भारत में अध्ययन और शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया। वे रांची के संत जेवियर महाविद्यालय, रांची में हिन्दी के प्राध्यापक और विभागाध्यक्ष थे और वहाँ पर भारतीय साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में शिक्षा देने के लिए जाने जाते थे। उन्होंने भारतीय साहित्य के महत्वपूर्ण ग्रंथों का अध्ययन किया और छात्रों को इनके माध्यम से भारतीय संस्कृति और धर्म की शिक्षा मिलती थी।

कामिल बुल्के का कार्य भारत और बेल्जियम दोनों में साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण योगदान माना जाता है। उन्होंने भारतीय साहित्य को विश्व के लिए प्रस्तुत किया और उसे बेल्जियम में भी प्रसारित किया, जिससे विश्व में भारतीय साहित्य के प्रति अधिक जानकारी और समझ बढ़ी। उनका योगदान आज भी साहित्यशास्त्र के क्षेत्र में अग्रणी है और उन्होंने भारतीय साहित्य के प्रति अपनी अद्वितीय समझ के साथ इसे और बेहतर बनाने का काम किया।

फ़ादर कामिल बुल्के ने विशेष कर हिंदी के प्रचार और प्रसार के लिए उल्लेखनीय काम किया ही साथ ही साथ रामकथा के महत्व को लेकर बुल्के ने वर्षों शोध किया और देश-विदेश में रामकथा के प्रसार पर प्रामाणिक तथ्य जुटाए। उन्होंने पूरी दुनिया में रामायण के क़रीब 300 रूपों की पहचान की। रामकथा पर विधिवत पहला शोध कार्य बुल्के ने ही किया है जो अपने आप में हिंदी शोध के क्षेत्र में एक मानक है। उन्होंने भगवद्गीता, रामचरितमानस, गीतांजलि, और अन्य कई महत्वपूर्ण ग्रंथों का अध्ययन करने में अपना जीवन दिया और इनके अध्ययन को लोगों के लिए समझने में सहायता की। उनके लेख और शिक्षा उन्होंने भारतीय साहित्य और संस्कृति को विशेष रूप से बेल्जियम और भारत में प्रसारित किया।

फादर कामिल बुल्के की मृत्यु जहरबाद से हुई थी। उन्होंने सारा जीवन दूसरों को स्नेह और वात्सल्य देने में लुटा दिया। सभी स्नेहीजनों के साथ आत्मीय संबंध स्थापित किया। उनको जानने वाले या मित्रगण उन्हें अपने परिवार का सदस्य मानते थे। अत: उनकी अंतिम यात्रा में असंख्य लोग आए। विदेश से आए इस व्यक्ति के प्रति लोगों में इतना लगाव था। कहा जाता है कि वे अंतिम दर्शन करने चले आए और सबकी आँखों में आसू थे। उनकी अंतिम यात्रा में जैनेन्द्र, विजयेन्द्र, स्नातक, अजित कुमार, डॉ. निर्मला, डॉ. सत्यप्रकाश, डॉ. रघुवंश जैसे विज्ञ जन उपस्थित थे। स्वयं फादर बुल्के ने भी नहीं सोचा होगा कि उनकी मृत्यु पर इतने लोग आंसू बहाएंगे। फादर बुल्के की अंतिम यात्रा पर उमड़ने वाली भीड़ उनके अपने स्नेहीजन थे जो उनसे बेहद प्रेम करते थे। वे सभी साहित्य प्रेमी और बुलके प्रेमी थे।

(लेखिका बलदेव साहु महाविद्यालय लोहरदगा-रांची में हिंदी विभागध्यक्षा है।)

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