– प्रोफेसर रवीन्द्र नाथ तिवारी
माँ भारती के महान सपूत, अनन्य राष्ट्रभक्त, मौलिक चिंतक, श्रेष्ठ लेखक, पत्रकार और संगठनकर्ता के रूप में पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने राष्ट्र की अतुलनीय एवं अविस्मरणीय सेवा की। इनका जन्म 25 सितम्बर 1916 को मथुरा जिले के नगला चन्द्रभान ग्राम मथुरा में हुआ था। उनके पिता भगवती प्रसाद उपाध्याय तथा माता रामप्यारी धार्मिक प्रवृत्ति की थीं। 1937 में वह कानपुर से बी.ए. करते समय सहपाठी बालूजी महाशब्दे की प्रेरणा से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सम्पर्क में आये, जहां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक पूज्य डॉ. हेडगेवार जी का सान्निध्य कानपुर में मिला। वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के जीवनव्रती प्रचारक प्रचारक रहे। तत्कालीन सरसंघचालक पूज्य माधव सदाशिव गोलवलकर जी की प्रेरणा से 21 अक्टूबर 1951 को डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी की अध्यक्षता में ‘भारतीय जनसंघ’ की स्थापना हुई। इसका प्रथम अधिवेशन 1952 में कानपुर में हुआ जहां दीनदयाल जी जनसंघ के महामंत्री बने; 1967 तक वे भारतीय जनसंघ के महामंत्री रहे। अपनी ओजस्वी भाषण कला, लेखन, संगठन क्षमता से वे अखिल भारतीय स्तर पर भारतीय मूल्यों पर आधारित राजनीति की मुखर आवाज बनकर उभरे। 1967 में कालीकट अधिवेशन में भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष निर्वाचित हुए।
पण्डित दीनदयाल उपाध्याय भारत की सनातन विचारधारा को युगानुकूल रूप में प्रस्तुत करते हुए देश को एकात्म मानव दर्शन जैसी प्रगतिशील विचारधारा दी। एकात्म मानववाद में मानव जाति की मूलभूत आवश्यकताओं और सृजित कानूनों के अनुरुप राजनीतिक कार्रवाई हेतु एक वैकल्पिक सन्दर्भ दिया गया है। दीनदयाल उपाध्याय का मानना था कि हिन्दू कोई धर्म या संप्रदाय नहीं, अपितु भारत की राष्ट्रीय संस्कृति है। दीनदयाल उपाध्याय जी के अनुसार, एकात्म मानववाद का शाब्दिक अर्थ मानव के शरीर, मस्तिष्क, बुद्धि और आत्मा को चार पुरुषार्थ – धर्म, अर्थ काम और मोक्ष से एकमत होते हुए तदनुरूप होना है। यह दर्शन मानव-जाति की मानसिक स्वतंत्रता तथा उसके पशुत्व से मनुष्यत्व और फिर मनुष्यत्व से देवत्व तक की यात्रा का परिचय प्रस्तुत करता है। वास्तव में, यह मानव के सर्वोच्च आत्मिक और मानसिक विकास का दर्शन है। यह एक ऐसा नवीन घोषणा-पत्र है, जिसमें भौतिक तत्वों पर नैतिक मूल्यों की सर्वोच्चता स्थापित की गयी है।
दीनदयाल उपाध्याय ने लखनऊ से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका ‘राष्ट्रधर्म’ में 1940 से पत्रकारिता क्षेत्र में कदम रखा। उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकाल के समय ‘पांचजन्य’ और ‘स्वदेश’ समाचार पत्र शुरू किया था। नाटक ‘चंद्रगुप्त मौर्य’ और हिन्दी में शंकराचार्य की जीवनी लिखी। उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार जी की जीवनी का मराठी से हिंदी में अनुवाद किया। उनकी अन्य प्रसिद्ध साहित्यिक कृतियों में ‘सम्राट चंद्रगुप्त’, ‘जगतगुरू शंकराचार्य’, ‘अखंड भारत क्यों है’, ‘राष्ट्र जीवन की समस्याएं’, ‘राष्ट्र चिंतन’ और ‘राष्ट्र जीवन की दिशा’ आदि हैं। दीनदयाल उपाध्याय द्वारा लिखित पुस्तक ‘एकात्म मानववाद’ प्राचीन भारतीय परंपरा को आधुनिक संदर्भ में विश्लेषित करती है। अत्यंत सहज, सरस और सरल भाषा में मानववाद का वैज्ञानिक और दार्शनिक विवेचन तथा व्याख्या करना ही इस पुस्तक का सबसे बड़ा गुण और अद्भुत सौंदर्य था।
दीनदयाल उपाध्याय का चिंतन शाश्वत विचारधारा से जुड़ता है। इसके आधार पर वह राष्ट्रभाव को समझने का प्रयास करते हैं। एकात्म मानव और अन्त्योदय जैसे दर्शन हमारी ऋषि परंपरा से जुड़ते हैं, जिसके केंद्र में व्यक्ति या सत्ता नहीं है। इसमें व्यक्ति, मन, बुद्धि, आत्मा सभी का महत्व है। प्रत्येक जीव में आत्मा का निवास होता है, आत्मा को परमात्मा का अंश माना गया है। उनका मानना था कि जहां समाज का हित हो तो परिवार का हित छोड़ देना चाहिये और जहां देश का हित हो तो समाज का हित छोड़ देना चाहिये। राष्ट्रवाद का यह विचार प्रत्येक नागरिक में होना चाहिये। व्यक्ति केवल एकवचन तक सीमित नहीं है; समाज व समष्टि तक उसकी भूमिका होती है। सभी कार्य धर्म से प्रेरित होने चाहिये अर्थात् लाभ की कामना हो, लेकिन कार्य शुभ होना अनिवार्य है। दीनदयाल जी ने संपूर्ण जीवन की रचनात्मक दृष्टि पर विचार किया। उन्होंने विदेशी विचारों को सार्वलौकिक नहीं माना। उनका मानना था कि भारतीय संस्कृति संपूर्ण जीवन व संपूर्ण सृष्टि का संकलित विचार करती है, इसका दृष्टिकोण एकात्मवादी है। संसार में एकता का दर्शन, उसके विविध रूपों के बीच परस्पर पूरकता को पहचानना, उनमें परस्पर अनुकूलता का विकास करना तथा उसका संस्कार करना ही संस्कृति है।
दीनदयाल उपाध्याय जी देश की एकता और अखंडता के लिए सदैव समर्पित रहे। उनका मानना था कि राष्ट्र की निर्धनता और अशिक्षा को दूर किए बिना वास्तविक उन्नति संभव नहीं है। निर्धन और अशिक्षित लोगों की उन्नति के लिए उन्होने अंत्योदय की संकल्पना का सुझाव दिया। उनका कहना था कि “अनपढ़ और मैले कुचैले लोग हमारे नारायण हैं।” ग्रामों में जहां समय अचल खड़ा है जहां माता-पिता अपने बच्चों को बनाने में असमर्थ हैं वहाँ जब तक हम आशा और पुरुषार्थ का संदेश नहीं पहुंचा पाएंगे तब तक हम राष्ट्र को जागृत नहीं कर सकेंगे। हमारी श्रद्धा का केंद्र, आराध्य, हमारे पराक्रम और प्रयत्न का उपकरण तथा उपलब्धियों का मानदंड वह मानव होगा जो आज शब्दशः अनिकेत और अपरिग्रही है। दीनदयाल उपाध्याय जी का आर्थिक चिंतन भारत की तत्कालीन वास्तविकताओं पर आधारित था। उनका विचार था कि आर्थिक विषमता को समाप्त करके ही व्यक्ति का सम्मान और प्रतिष्ठा स्थापित की जा सकती है। भारत की अर्थनीति जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित लोगों के उत्थान पर केन्द्रित होनी चाहिए। वह राजनीति के समान अर्थव्यवस्था में भी व्यक्ति के विकास के अवसरों की सुनिश्चितता के पक्षधर थे।
आजादी के अमृतकाल में राष्ट्र के प्रत्येक जनमानस में ‘स्व’ का विचार करना आवश्यक है। परतन्त्रता में समाज का ‘स्व’ के भाव का अभाव हो जाता है इसीलिए राष्ट्र स्वराज्य की कामना करते हैं जिससे वे अपनी प्रकृति और गुणधर्म के अनुसार प्रयत्न करते हुए सुख की अनुभूति कर सकें। महान दार्शनिक एवं चिंतक दीनदयाल उपाध्याय द्वारा प्रतिपादित राष्ट्रवाद और एकात्म मानववाद के सिद्धांतों को भारत के प्रत्येक नागरिक द्वारा अपनाने पर ही देश उनके सपनों को पूरा कर पाएगा। परिणामस्वरूप, भारत एक वैश्विक मार्गदर्शक और संरक्षक की भूमिका निभाते हुए वैश्विक महाशक्ति के पद पर आसीन होगा, जो पूरे विश्व को ज्ञान और मार्गदर्शन प्रदान करने में सक्षम होगा।
(लेखक भारतीय शिक्षण मण्डल महाकोशल प्रान्त अनुसंधान प्रकोष्ठ के प्रान्त प्रमुख हैं।)