अंकों की प्रतिस्पर्द्धा नहीं, व्यक्तित्व का समग्र एवं संतुलित विकास हो शिक्षा का लक्ष्य

 – प्रणय कुमार

गत 13 मई को केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड-परीक्षा के परिणाम घोषित किए गए। 12वीं में 88.39 तो 10वीं में 93.66 प्रतिशत विद्यार्थी उत्तीर्ण हुए। लड़कियों का प्रदर्शन लड़कों की तुलना में इस बार भी बेहतर रहा। पिछले वर्ष के मुकाबले इस वर्ष 12वीं के परिणाम में 0.41 तो दसवीं में 0.06 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। देश के कुल 26,675 विद्यालयों में 7,862 परीक्षा-केंद्र बनाए गए थे, जिसमें 10वीं के 23,71,939 और 12वीं के 16,92,794 छात्र शामिल हुए थे। पिछले 3 वर्ष के आँकड़े देखें तो 10वीं और 12वीं की परीक्षा उत्तीर्ण करने वाले छात्रों का प्रतिशत लगातार बढ़ रहा है। परंतु 2022 के बाद 90% व 95% से अधिक अंक पाने वाले छात्रों की संख्या में लगातार गिरावट आ रही है। इस वर्ष 90% से 95% अंक लाने वाले छात्रों का प्रतिशत पिछले 7 साल में सबसे कम रहा। इसी प्रकार राज्य-बोर्ड परीक्षाओं के परिणाम भी घोषित हो रहे हैं।

उल्लेखनीय है कि बोर्ड-परीक्षाओं के परिणाम एवं विभिन्न प्रतियोगी-परीक्षाओं की प्रतिभा-सूची को देख-सुनकर इन दिनों कहीं बधाइयों का ताँता लगा है तो कहीं शोक का सन्नाटा पसरा है। कोई ठहरकर यह सोचने को तैयार नहीं कि कोई भी परीक्षा जीवन की अंतिम परीक्षा नहीं होती और न ही किसी एक परीक्षा के परिणाम पर सब कुछ निर्भर ही करता है। जीवन अवसर देता है और बहुधा बार-बार देता है। अंततः ज्ञान और प्रतिभा ही मायने रखती है और इन्हीं पर जीवन की स्थाई सफलता-असफ़लता निर्भर किया करती है। समाज में प्रायः ऐसे दृष्टांत देखने को मिलते हैं कि बोर्ड-परीक्षाओं में कम अंक लाने या प्रतियोगी परीक्षाओं में मिली प्रारंभिक विफलता के बाद भी धैर्य और निरंतरता के साथ किए गए परिश्रम और पुरुषार्थ अंततः फलदायी सिद्ध होते हैं।

परंतु ऐसे तमाम दृष्टांतों के बावजूद बोर्ड एवं प्रतियोगी परीक्षाओं के दबाव और तनाव में एक ओर गुम होता बचपन दिखाई देता है तो दूसरी ओर येन-केन-प्रकारेण पास होने और अधिक-से-अधिक अंक बटोरने का तीव्रतम उतावलापन भी दिखलाई पड़ता है। प्रश्न यह है कि क्या कागज के एक टुकड़े भर से किसी के ज्ञान या व्यक्तित्व का समग्र और सतत आकलन-मूल्यांकन किया जा सकता है? क्या किसी एक परीक्षा की सफलता-असफलता पर ही भविष्य की सारी सफलताएँ-योजनाएँ निर्भर किया करती हैं? जीवन की वास्तविक परीक्षाओं में ये परीक्षाएँ कितनी सहायक हैं? इन्हें जाने-विचारे बिना अंकों के पीछे बदहवास होकर दौड़ने की प्रवृत्ति दिनोंदिन बढ़ती जा रही है।

अधिक प्राप्तांक को ही सफलता की एकमात्र कसौटी बनाने-मानने से  सामाजिकता, संवेदनशीलता, सरोकारधर्मिता, रचनात्मकता जैसे गुणों या मूल्यों की कहीं कोई चर्चा ही नहीं होती। यदि किसी विद्यार्थी के प्राप्तांक प्रतिशत कम हैं, पर वह नैतिक-सामाजिक-साहित्यिक-सांस्कृतिक-व्यावहारिक कसौटियों पर खरा उतरता हो तो क्या यह सब उसकी योग्यता का मापदंड नहीं होना चाहिए? क्या उसके संवाद-कौशल, नेतृत्व-क्षमता, सेवा-भाव, प्रकृति-परिवेश के प्रति सजगता आदि का आकलन-रेखांकन नहीं किया जाना चाहिए। पिछले सौ वर्षों की महानतम मानवीय उपलब्धियों पर यदि दृष्टि डालें तो मानवता को दिशा देने वाले, बड़े कारनामे करने वाले लोग विद्यालयी परीक्षाओं में सर्वोच्च अंक लाने वाले लोग नहीं थे, बल्कि उनमें से कई तो तत्कालीन शिक्षण-तंत्र की दृष्टि में कमज़ोर या फिसड्डी थे। हाँ, समाज को लेकर उनका ज्ञान विशद और दृष्टिकोण व्यापक अवश्य था।

अंकों की अंधी दौड़ का हिस्सा बनने से उचित क्या यह नहीं होता कि समाज व संस्थान इस पर गंभीर चिंतन और व्यापक विमर्श करते कि क्यों हमारे शिक्षण-संस्थान वैश्विक मानकों एवं गुणवत्ता की कसौटी पर खरे नहीं उतरते? क्यों हमारे शिक्षण-संस्थानों एवं विश्वविद्यालयों में मौलिक शोधों एवं वैज्ञानिक-व्यावहारिक दृष्टिकोण का अभाव परिलक्षित होता है? क्यों हमारे शिक्षण-संस्थान अभिनव प्रयोगों, नवोन्मेषी पद्धतियों, विश्लेषणपरक प्रवृत्तियों को बढ़ावा नहीं देते? क्यों हमारे शिक्षण-संस्थानों से निकले अधिकांश विद्यार्थी आत्मनिर्भर और स्वावलंबी नहीं बन पाते? क्यों उनमें कार्यानुकूल दक्षता एवं कुशलता की कमी देखने को मिलती है? क्यों वे साहस और आत्मविश्वास के साथ जीवन की चुनौतियों, विषमताओं, प्रतिकूलताओं का सामना नहीं कर पाते?

अंकों की प्रतिस्पर्द्धा का ऐसा आत्मघाती दबाव दारुण और दुःखद है। इस दबाव में बच्चे सहयोगी बनने की अपेक्षा परस्पर प्रतिस्पर्द्धी बन रहे हैं। ऐसी अंधी प्रतिस्पर्द्धा कुछ के अहं को सेंक देकर उन्हें एकाकी और स्वार्थी बनाती है तो कुछ को अंतहीन कुंठा के गर्त्त में धकेलती है। और यह तथ्य है कि प्रतिस्पर्द्धा और ईर्ष्या में व्यक्ति प्रकृति में सर्वत्र व्याप्त सहयोग, सामंजस्य और सौंदर्य को विस्मृत कर बैठता है। फिर वह चराचर में फैले जीवन के गीत को गुनगुनाना, गाना और सुनना ही भूल जाता है। प्रतिस्पर्द्धा करते-करते वह अपने घर-परिवार, समाज और राष्ट्र के प्रति भी प्रतिस्पर्द्धी-भाव रखने लगता है। कई बार तो वह अपनों के प्रति भी कटु और कृतघ्न हो उठता है। यह विडंबना नहीं तो और क्या है कि हम उसे बचपन से ही दूसरों को पछाड़ने की सीख दे रहे हैं? जबकि हमें साथ, सहयोग, सामंजस्य और संवेदनशीलता की सीख देनी चाहिए। ‘जीवन एक संघर्ष है’ उससे कहीं अधिक आवश्यक है यह जानना-समझना कि जीवन ‘विरुद्धों का सामंजस्य’ तथा ‘सहयोग व संतुलन’ की सतत साधना है।

उल्लेखनीय है कि अंकों की गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा वाले इस दौर में सफलता के सब्ज़बाग दिखाते और सपने बेचते ग्राम-नगर-गली मुहल्ले में कुकुरमुत्ते की तरह उग आए ऑनलाइन-ऑफलाइन कोचिंग संस्थान कोढ़ में खाज़ का काम करते हैं। वे अभिभावकों से सफलता का सौदा करते हैं। सफल अभ्यर्थियों के चमकते-दमकते सितारा चेहरों और बढ़ा-चढ़ाकर किए गए अतिरेकी दावों के पीछे वे मार-तमाम विफल अभ्यर्थियों की अंतहीन सूची और उनका दर्द नहीं दिखाते। सजे-चमचमाते कालीन के पीछे के स्याह-कटु सत्य को कौन देखे-दिखाये? रातों-रात करोड़पति बनने या छा जाने की मानसिकता हमारी सोचने-समझने की सहज शक्ति को भी कुंद कर देती है।

भ्रामक प्रचार-प्रसार या आक्रामक विज्ञापनों के जरिये भोले-भाले मासूमों और उनके लिए अपने पलकों की कोरों में सपने सजाए तमाम अभिभावकों को बहलाया-फुसलाया जाता है। बल्कि कई बार तो बहुतेरे अभिभावक अपने बच्चों की रुचि एवं क्षमता का विचार किए बिना अपने सपनों व महत्त्वाकांक्षाओं का बोझ जाने-अनजाने उनके कोमल-कमज़ोर कंधों पर डालने की भूल कर बैठते हैं। प्रायः बच्चे उनके सपनों व महत्त्वाकांक्षाओं का भार ढोते-ढोते अपना सहज-स्वाभाविक बचपन और जीवन तक भूल जाते हैं। वे कुछ और कर सकते थे। कुछ बेहतर बन सकते थे! लेकिन  भेड़चाल के कारण उन्हें प्रतियोगी परीक्षाओं (जेईई, नीट, क्लेट, सीए, यूपीएससी) की अंतहीन दौड़ एवं भीड़ में धकेल दिया जाता है! और यदि वे सफल हुए तो ठीक, पर कहीं जो वे विफल हुए तो जीवन भर वे उस विफलता से उपजी कुंठा या निराशा से बाहर नहीं निकल पाते! फिर उनके होठों से सहज हास और जीवन से आंतरिक आनंद एवं उल्लास ग़ायब हो जाता है।

समाज, सरकार एवं संस्थाओं को सोचना होगा कि ये बच्चे या विद्यार्थी उत्पाद न होकर जीते-जागते मनुष्य हैं। और मनुष्य का निर्माण स्नेह-समर्पण-त्याग-संयम-धैर्य-सहयोग-समझ और संवेदनाओं से ही संभव है। ध्यान रहे कि मनुष्य का मनुष्य हो जाना ही उसकी चरम उपलब्धि है। इसलिए भावी संततियों को अंकों की अंधी प्रतिस्पर्द्धा एवं अंतहीन दौड़ में झोंकने की बजाय उनके समग्र, संतुलित एवं बहुआयामी व्यक्तित्व के विकास पर ध्यान देना चाहिए। जीवन बहुरंगी एवं बहुपक्षीय है और हर रंग व पक्ष का अपना सौंदर्य, महत्त्व व आनंद है। हर रंग और पक्ष को हृदय से स्वीकार करने में ही जीवन की सार्थकता है, कृतार्थता है। स्मरण रहे, बच्चे मार्क्स बटोरने की मशीन नहीं हैं। हर बच्चा एक क़िताब नहीं, एक पूरी दुनिया है – जिसमें सपने हैं, कल्पनाएँ हैं, संभावनाएँ हैं। हर बच्चे में कोई-न-कोई प्रतिभा या मौलिक विशेषता होती है। बस उसे पहचानने या सही दिशा देने की आवश्यकता है।

बहुत-सी बातें समान होते हुए भी हर बच्चा अलग है, उसकी सोच, रुचि, प्रवृत्ति, पृष्ठभूमि और प्रतिभा भिन्न -भिन्न है। बच्चे को उसी क्षेत्र में निखारना व माँजना चाहिए, जिसमें उसकी रुचि और योग्यता हो। इससे अपनी रुचि वाले विषय में वह विशेषज्ञता अर्जित करता चला जाएगा और अंततः अपनी उपादेयता सिद्ध करेगा। आज की दुनिया में हर क्षेत्र में थोड़े-थोड़े दक्ष व कुशल लोगों की तुलना में किसी एक क्षेत्र में दक्ष व निपुण लोगों की महती आवश्यकता है। बच्चों को सिर्फ़ अंकों से तौलना अनुचित है, बल्कि अन्याय है।

शिक्षा का मतलब अंक बटोरना नहीं, समझ और संवेदना जगाना है। बच्चों की आपस में तुलना करने के बजाय उन्हें बेहतर बनने की प्रेरणा देनी चाहिए। उन पर अंकों का दबाव बनाने की जगह उन्हें दिशा देने का प्रयास किया जाना चाहिए। हमें मार्क्स नहीं, मुस्कान का मूल्य समझना होगा, क्योंकि बच्चे हमारे भविष्य हैं – और सदा याद रखें, हमें मशीनें नहीं, संवेदनशील और समझदार मनुष्य चाहिए।

(लेखक शिक्षाविद एवं वरिष्ठ स्तंभकार है।)

और पढ़ें : भारतीय गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन

2 thoughts on “अंकों की प्रतिस्पर्द्धा नहीं, व्यक्तित्व का समग्र एवं संतुलित विकास हो शिक्षा का लक्ष्य

  1. वर्तमान शिक्षा पद्धति ही विधार्थी के डिप्रेशन, तनाव व आत्महत्या जैसी क्रियाओं के लिए दोषी है।
    आज आदरणीय गुलाब चंद जी कटारिया का एक वीडियो सुना जिसमें वे बोलते समय भावुक होकर रोने लगे शिक्षा पद्धति पर बोल रहे थे।वो है वास्तविक दर्द

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