देश की बात-1 : अपनी बात

-वासुदेव प्रजापति

बात आज से लगभग बीस-बाईस वर्ष पुरानी है। विद्या भारती जोधपुर प्रांत का अध्यक्ष-व्यवस्थापक सम्मेलन, बच्छराज व्यास आदर्श विद्या मंदिर डीडवाना में था। इस सम्मेलन में आदरणीया इंदुमति जी काटदरे, जोधपुर प्रान्त के प्रवास पर पधारीं थीं। वे उस समय विद्या भारती की अखिल भारतीय सह मंत्री थीं। विद्या मन्दिर के प्रागंण में ब्रह्ममुहूर्त में सर्वप्रथम दैनिक यज्ञ हुआ। यज्ञ के उपरान्त वहीं पर इन्दुमति जी का व्याख्यान आरम्भ हुआ। शीतल मंद पवन और यज्ञ की भीनी-भीनी सुगन्ध ने वातावरण को पवित्र बनाया हुआ था। ऐसे पवित्र वातावरण में जोधपुर प्रान्त के सभी प्रमुख कार्यकर्ता इन्दुमति जी को पहली बार सुन रहे थे। उनके व्याख्यान का विषय भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा था। जब उन्होंने भारतीय शिक्षा को चरणबद्ध समझाना आरम्भ किया तो सभी आश्चर्यचकित एवं दत्तचित्त हो सुनने में लीन हो गए। सबको ऐसा अनुभव हो रहा था कि उनकी मधुर व सारगर्भित वाणी में विद्या दायिनी मां सरस्वती स्वयं विराजमान हैं। सबने पहली बार ज्ञानार्जन के साधन – करण, बाह्य करण व अन्त:करण, करणों का विकास एवं उनसे होने वाला ज्ञानार्जन का विषय सुना। एक घंटे का व्याख्यान इतना शीघ्र पूर्ण हो गया कि पता ही नहीं चला। सबकी और सुनने की लालसा अभी भी बनी हुई थीं।

इस व्याख्यान को सुनने वालों में विद्या भारती जोधपुर प्रान्त के तत्कालीन उपाध्यक्ष श्रीमान कपूरचंद जी बेताला भी थे। वे डीडवाना के समीप ही छोटी खाटू के निवासी थे। व्याख्यान से अभिभूत बेतालाजी ने उसी समय इन्दूमति जी को छोटी खाटू चलने का निमंत्रण दिया। उनके निमंत्रण पर विचार करते हुए यह निर्णय हुआ कि छोटी खाटू होते हुए जोधपुर लौटा जाए। इन्दुमति जी के साथ हम दो-तीन कार्यकर्ता भी छोटी खाटू आए। बेताला जी ने सबको जलपान करवाकर और बताया कि छोटी खाटू में एक प्राचीन व समृद्ध पुस्तकालय है, जिसमें अनेक महत्वपूर्ण पुस्तकों का संग्रह है। इन्दुमति जी तो स्वयं स्वाध्यायी थीं, उन्होंने पुस्तकालय देखने की इच्छा व्यक्त की। बेताला जी हमें पुस्तकालय ले गए, वहां अनेक पुरानी पुस्तकें भी थीं। जोधपुर लौटने की शीघ्रता थी इसलिए अधिक नहीं रुक सकते थे। हमने जाने की इच्छा जताई, बेताला जी ने हमें बताया कि इस पुस्तकालय मैं “दैशिक शास्त्र” नामक एक दुर्लभ पुस्तक है। तिलक जी उसकी प्रस्तावना लिखने वाले थे, मेरी जानकारी में देशभक्तों के लिए इससे श्रेष्ठ कोई दूसरी पुस्तक नहीं है। यह बताते हुए वे दो पुस्तकें लेकर आए, एक इन्दुमति जी को भेंट की और दूसरी मुझे। भेंट स्वीकार कर हम जोधपुर के लिए चल पड़े।

प्रवास पूर्णकर इन्दुमति जी के लौट जाने के पश्चात् मैंने दैशिक शास्त्र को पहली बार पढ़ा, मन रोमांच से भर गया। सच में देशभक्ति से परिपूर्ण ऐसी कोई दूसरी पुस्तक मेरे पढ़ने में नहीं आई थी। कुछ समय बाद एक कार्यक्रम हेतु अहमदाबाद गया तब इन्दुमति जी से फिर दैशिक शास्त्र के सम्बन्ध में वार्ता हुई। यह ध्यान में आया कि यह पुस्तक सब कार्यकर्ताओं को अवश्य पढ़नी चाहिए, परन्तु वर्तमान में यह अप्राप्य है। इसलिए पुनरुत्थान ट्रस्ट को इसे पुनर्प्रकाशित करना चाहिए। पुस्तक इतनी पुरानी थी कि बार-बार पृष्ठ पलटने से कागज फट रहा था, फिर भी इन्दुमति जी ने सावधानी पूर्वक एवं अपने अथक परिश्रम से इसे पुनः प्रकाशित किया। आज यह पुस्तक सबके स्वाध्याय हेतु सहज सुलभ है। सहज सुलभ होने के पश्चात् भी मेरा अनुभव यही है कि बहुत कम लोगों ने इसे पढ़ा है। अधिकांश तो आज भी दैशिक शास्त्र नाम से भी अनभिज्ञ हैं। अतः मुझे अनुभव हुआ कि सौ वर्ष पूर्व की शब्दावली एवं भाषा-शैली में लिखित इस पुस्तक का सार “देश की बात” नामक शीर्षक से देशभक्तों के लिए सरल व सुबोध भाषा में पुनः लिखना समीचीन होगा।

अतः देश की बात में सबसे पहले दैशिक शास्त्र से आपका परिचय  करवा रहा हूँ। इस पुस्तक का परिचय इसलिए आवश्यक है कि दैशिक शास्त्र आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी अपने प्रकाशन के समय थीं। इसका प्रकाशन समय जानकर आप आश्चर्यचकित होंगे। आज से एक सौ चार वर्ष पूर्व अर्थात् संवत् 1978, तदनुसार ईस्वी सन् 1921 में इसका प्रथम प्रकाशन हुआ था। उस समय देश स्वतन्त्रता संग्राम की लड़ाई लड़ रहा था। स्वतन्त्रता संग्राम के अग्रणी नेताओं में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और महात्मा गांधी प्रमुख थे। इन दोनों ही नेताओं ने इस पुस्तक को पढ़कर इसकी भूरी-भूरी प्रशंसा की थी। पुस्तक के प्रकाशन से पूर्व ही इसका एक अंश जो बहुत पहले लिखा जा चुका था, उसे तिलक महाराज को भेजा गया था। जिसे पढ़कर तिलक महाराज बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने इस पुस्तक के विषय में यह लिखा –

“I have read your ‘Daishik Shastra’ with great pleasure, my view is entirely in accord with yours and I am glad to find that it has been so forcibly put forward by you in Hindi.”

लोकमान्य तिलक स्वयं इसकी प्रस्तावना लिखने वाले थे। परन्तु सन् 1920 में उनका स्वर्गवास हो जाने के कारण, वे लिख नहीं पाए। बाद में ‘बाल गंगाधर तिलक स्मारक समिति’ ने सन् 1921 में इसे प्रकाशित किया था।

दैशिक शास्त्र भारतीय सभ्यता, संस्कृति, दर्शन, राजनीति शास्त्र, समाजशास्त्र व धर्मशास्त्र का सार तत्त्व प्रस्तुत करने वाला अनुपम ग्रंथ है। जब पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति ने इस देश को आक्रांत करना आरंभ किया और देश की जनता दासता से मुक्त होने के लिए संघर्ष कर रही थी, तब श्री बद्रीशाह ठुलघरिया जी ने दैशिक  शास्त्र की रचना कर देशवासियों को स्वत्व का बोध करवाते हुए भारतीय जीवन का आदर्श प्रस्तुत किया, ताकि अपने देश की वैचारिक और जीवनगत विशिष्टता उनके सामने रहे, उन्हें प्रेरणा देता रहे और उन्हें अपने संघर्ष का आगामी स्वरूप निश्चित करने में सहायता मिले, यही दैशिक शास्त्र का उद्देश्य था।

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इसके प्रकाशन के लगभग दो वर्ष पश्चात महात्मा गांधी ने भी यह पुस्तक पढ़ी और इसके संबंध में अपनी संस्तुति दी, जिसे 8 फरवरी 1923 को दैनिक समाचार पत्र ‘नवजीवन’ ने इन शब्दों में छापा था –

“दैशिक शास्त्र” यह नाम पढ़कर पहले पहल हमें आश्चर्य हुआ पर जब पुस्तक को शुरू से अंत तक हमने पढ़ डाला तब आश्चर्य का स्थान आदर और प्रशंसा ने ले लिया। प्राच्य राजनीति पर इतनी उत्कृष्ट पुस्तक हिंदी में हमने यह पहली ही देखी। इसके अवलोकन से एक और जहां भारतीय राजनीति विज्ञान के मर्ममूल, सहज गंभीरता, सनातन तत्त्व और उपयोग का बोध होता है, वहां दूसरी ओर पश्चिमी राजनीति में उपलब्ध अस्थिरता और अपरिपक्वता का परिचय मिलता है। राजनीति की भाषा में धर्म और अध्यात्म तत्त्वों की इतनी सुंदर विवेचना करने के लिए लेखक श्री बद्री शाह ठुलघरिया अल्मोड़ा, हिंदी और देशभक्तों के अभिनंदन के पात्र हैं। भगवद् गीता और उपनिषदों को यदि कोई राजनीति की भाषा में पढ़ाना चाहे तो वह इस ग्रंथ को जरूर पढ़ें, पुस्तक की भाषा प्रौढ़ और सूत्रात्मक है तथा विवेचन शैली शास्त्रीय। जिन-जिन राष्ट्रीय विद्यालयों में राजनीति शास्त्र पढ़ाया जाता है उसमें तो यह पुस्तक के तौर पर रखे जाने योग्य है।”

बापू की इस सम्मति से इस पुस्तक को पर्याप्त प्रचार-प्रसार मिला। पुस्तक की विषयवस्तु ने सबको आकृष्ट किया तथा तत्कालीन शीर्षस्थ राजनेताओं तथा विचारकों ने उसका समादर किया। विषयवस्तु की दृष्टि से इसमें पांच भाग हैं, प्रथम भाग देशभक्ति विभूति का है। दूसरे भाग में दैशिक धर्म की महत्ता बताते हुए चिति और विराट की विशद विवेचना है। तीसरे भाग में सभी प्रकार की स्वतन्त्रता को समझाया गया है। चौथे भाग में राज्य का अध्याय है, जिसमें वर्णाश्रम, अर्थायाम, व्यवस्था धर्म तथा देश-काल को समाहित किया है और पांचवें भाग का शीर्षक दैवी सम्पद योगक्षेम है। इस अन्तिम भाग में अधिजनन, अध्यापन व अधिलवन की भारतीय अवधारणा को स्पष्ट किया गया है। इस प्रकार यह पुस्तक दिशाबोध रूपी उपसंहार के साथ पूर्णता प्राप्त करती है।

अंग्रेजों की कुदृष्टि के फलस्वरूप यह पुस्तक कुछ वर्षों तक अनुपलब्ध रही। आजादी के पश्चात सन् 1959 में दैशिक शास्त्र को पांचजन्य ने एक लेखमाला के रूप में पुनः प्रकाशित किया। लेखमाला की पूर्णता पर पं. दीनदयालजी उपाध्याय ने देशवासियों से अनुरोध किया कि “वे दैशिक शास्त्र का बहुत ध्यानपूर्वक अध्ययन करें क्योंकि आर्ष एवं सामयिक भारतीय सिद्धान्तों का विवेचन करने वाली यह एकमात्र पुस्तक है। इसे एक तप:पूत तत्वदर्शी महात्मा श्री 108 सोम्बारी बाबा के आशीर्वाद से स्व. श्री बद्री शाह ठुलघरिया ने दैशिक शास्त्र के गूढ़ सिद्धान्तों का ज्ञान प्राप्त कर इस पुस्तक का लेखन किया। भारतीय संस्कृति के सत्य तत्त्वों को नगाधिराज हिमालय की कन्दरा से निकालकर जीवन के दोराहे पर खड़ा कर दिया, जिसने भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन को अनन्त शक्ति का स्रोत प्रदान किया। गीता का कर्मयोग शास्त्र और दैशिक शास्त्र पूरक ग्रन्थ हैं।”

दीनदयालजी स्वयं इस पुस्तक का नियमित मनन एवं अनुशीलन करते थे, उसे अपना प्रेरणास्रोत मानते थे। इसीलिए तो पंडित दीनदयाल जी ने दैशिक शास्त्र में आई शब्दावली तथा विचार यथा, चिति, विराट, अर्थायाम आदि का प्रयोग अपने एकात्म दर्शन में किया है।

यह पुस्तक वेद और पुराण कब लिखे गए? उस समय की खोज करने वाले पुरातात्त्विकों के मनोविलास के लिए नहीं लिखी गई है, यह तो देश के लिए मर मिटने वाले देशभक्तों के लिए लिखी है। इसे पढ़कर वे देश की रक्षा के लिए सदैव सन्नद्ध रहे, इस हेतु से लिखी है। “दैशिक शास्त्र” का अर्थ भी देश की जानकारी देने वाला शास्त्र मात्र नहीं है। महर्षि पाणिनि के ‘रक्षति’ सूत्र के अनुसार देश शब्द में ‘ठक’ प्रत्यय लगाने से ‘दैशिक’ शब्द बनता है, जिसका अर्थ होता है देश की रक्षा करने वाला। अतः दैशिक शास्त्र का अर्थ हुआ, देश की रक्षा करने वाला शास्त्र। वर्तमान में देश की भावी पीढ़ी देश के सम्बन्ध में बहुत कम जानकारी रखती है। पाश्चात्य विचारों से प्रभावित युवा अपना हित साधने में लगे हैं, देश हित उनके लिए गौण है। ऐसे समय में यह पुस्तक देशहित सर्वोपरि रखने की प्रेरणा देती हुई, उन्हें देश की रक्षा करना मेरा परम कर्तव्य है का पाठ पढ़ाती है।

अतः दैशिक शास्त्र के विचारों को नई पीढ़ी के समक्ष “देश की बात” नामक पुस्तक में पुनः व्याख्यायित करने का एक लघु प्रयास है। सभी देशभक्त स्वयं देश की बात को पढ़ें व अन्य बन्धु-बान्धवों को इसे पढ़ने हेतु प्रेरित करें। मेरा पूर्ण विश्वास है कि इसे पढ़ने वालों तथा उनकी सन्तानों का जीवन देशभक्ति से ओत-प्रोत होगा और वे देश हितार्थ अपना तन-मन-धन भारत माता की सेवा में समर्पित करेंगें। इसके साथ ही स्वाध्यायी पाठकों से मेरा विनम्र निवेदन है कि वे मेरी त्रुटियों की ओर इंगित करते हुए, अपने अमूल्य सुझाव मुझे अवश्य दें। इसी आशा और विश्वास के साथ।

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(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सचिव है।)

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